क्योंकि बेवजह तो कुत्ते भी नही भौंकते हैं

(आँचल प्रजापति की कलम से)
बाल-मजदूरी, दहेज़-प्रथा, जाति-प्रथा इन सभी के साथ एक और प्रथा हमारे समाज में बड़े ही जोरो-शोरों से बढ़ रही है, वह है – बेवजह हॉर्न बजाने की प्रथा।
शहरों में जहां एक ओर सड़को पर अनगिनत गाड़ियां रोज़ाना चक्कर लगाती नज़र आती हैं, वही एक फैशन
यह भी बढ़ता दिख रहा है। खासकर युवाओं में बेवजह हॉर्न बजाकर तेज़ी से आगे जाने की परंपरा ज्यादा प्रचलन में है। ऐसा लगता है कि यह समाज के उन बुद्धिजीवियों में से हैं जिनसे आज हमें ‘समय की महत्ता’ सीखने की आवश्यकता है।

समस्या सिर्फ यही नही है, एक सच तो यह भी है कि आजकल कार व ट्रकों में प्रयोग होने वाले हॉर्न (करीब 109 डेसिबल से 118 डेसीबल) को लोग अपनी बाइकों में इस्तेमाल कर रहे हैं। निःसंदेह यह ध्वनि प्रदूषण को तो बढ़ावा देता ही है, साथ ही साथ मानव श्रवण शक्ति को भी हानि पहुँचाता है।
इसे रोकने के न सही, परंतु बढ़ावे के लिए ढेरो विकल्प आसानी से उपलब्ध हैं। कहीं किसी मोटरवाहन निर्माता कंपनी में संपर्क करे या आजकल की सुप्रसिद्ध ‘ऑनलाइन शॉपिंग’ हर जगह धड़ल्ले से ऐसे हॉर्न की बिक्री हो रही है। इतना ही नही ऐसे विज्ञापन इंटरनेट पर बड़े ही आकर्षक रूप धारण किये हुए हैं, वहाँ साक्षात् लिखा मिलेगा ‘car horns on bike’। मतलब साफ़ है कि कारों में प्रयोग होने वाले हॉर्न को अब अपने बाइकों में लगवाएं और आनंद प्राप्त करें। ऐसे विज्ञापन देख एक पर्यावरण के प्रति संवेदनशील व्यक्ति का क्रोधित होना जायज ही है।
आज लोग वायु प्रदूषण से बचाव के लिए मुँह पर कपड़े बाँध कर घर से निकलते हैं और अगर भविष्य में ऐसे बेवजह हॉर्न बजाने और अधिक ध्वनि तीव्रता वाले हॉर्न पर लगाम नही कसी गयी तो लोगों को अपने कानों को भी ढँकने के लिए विकल्प तलाशने की आवश्यकता आन पड़ेगी।
प्रश्न तो अब भी वही है कि ऐसा क्यों हो रहा है और इस बाबत प्रशासन का क्या रवैया है? क्यों अभी भी इसके लिए कठोर नियम नही हैं।इस मुद्दे पर प्रशासन की ओर से भी कोई खास कार्यवाही नज़र नहीं आई है। सिर्फ चंद पुलिसकर्मियो द्वारा व्यक्तिगत कार्यवाही के तौर पर ऐसे हार्न को वाहन से निकलवा देना। मगर उनकी इस कार्यवाही को कही न्याय प्रकिया का हिस्सा न मान कर समाज द्वारा उलटे इनको आलोचना ही झेलना पड़ा है। आज भी ये गुत्थी कोई सुलझाने का सही तरीका नहीं है प्रशासन के पास। प्रशासन तो केवल वाहन चेकिंग के नाम पर कागज़ देख कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है। मुझको पता है इस समस्या पर शासन प्रशासन का ध्यान दिलवाने के लिए और इस गुत्थी को सुलझाने के लिए शायद हमारे जैसे कई अनेक लेखों की आवश्यकता पड़ेगी, तब जाकर शायद शासन और प्रशासन की नज़र इस ओर पड़े और ऐसा करने वालों के प्रति सख्ती हो। शायद एक अधूरी शुरुवात ही सही मैं कर रही हु। भविष्य क्या है मुझको नहीं पता। मगर इतना ज़रूर है कि समय रहते अगर शासन प्रशासन के तरफ से कोई ठोस कार्यवाही इस ओर नहीं की गई तो यह समस्या बढती ही रहेगी।
(लेखिका BHU की मॉस काम की छात्रा है।)

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1 thought on “क्योंकि बेवजह तो कुत्ते भी नही भौंकते हैं”

  1. bilkul sahi kha apne kyoki ab is smsya pr dhyan dene ki jarurt he aur ise hm sbko milkr iska smadhan krna hoga.kas k ye lekh hmare manniy p.m. sahb tk phuche aur vo b isk prati koi kdm uthhae.jai hind jai bhart.

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