दालमंडी – पहलवानी के वर्चस्व से लेकर अपराध के वर्चस्व तक. भाग – 7, जाने रईस बनारसी कैसे बना इतना बड़ा डॉन

तारिक आज़मी.

वाराणसी. आतंक का पर्याय रईस बनारसी एक गुमनाम मौत मारा जा चूका है. एक ऐसा अपराधी जिसने अपराध जगत में चंद वक्त में ही एक बड़ा नाम कमा लिया था का इस तरह अज्ञात मौत मारा जाना कई सवाल खड़े करता है जिसके लिये वाराणसी पुलिस अपनी जी तोड़ मेहनत कर रही है केस को हल करने के लिये. सवाल बड़ा है की रईस बनारसी को किसने मारा मगर जवाब अभी तक अधुरा ही है. खैर यह पुलिस के विवेचना का विषय है. हम आज बात करेगे कि रईस बनारसी आखिर किस तरह रईस सिद्दीकी उर्फ़ रईस नक्फुसडा से डॉन रईस बनारसी बना. यहाँ हम डॉन शब्द का प्रयोग पहली बार कर रहे है मगर आप भी इसके इतिहास को जानकर कहेगे की वाकई रईस सिर्फ एक अपराधी नहीं बल्कि आतंक का दूसरा नाम था,

रईस सिद्दीकी से रईस नक्फुसडा का सफ़र.

बनारस की धरती से कानपुर जाकर बसने वाले रईस बनारसी को भले ही उसका सबसे बड़ा भाई यहाँ से लेकर गया हो और उससे चार और बड़े भाई वहा रहते थे. सबसे बड़ा भाई शकील मेहनत मजदूरी करके अपने परिवार को पालता था. वह आज भी राजमिस्त्री का काम करता है और अपने बकिया किसी भाई से संपर्क नहीं रखता है. शकील ने अपने छोटे भाइयो को अपने साथ समेट कर रखने का बहुत प्रयास किया मगर उसका प्रयास हर जगह कामयाब नही हो पाया, जानकारों के बताये के अनुसार उसका एक भाई नौशाद राजमिस्त्री के काम को करता हुआ अपराध जगत में कब पहुच गया किसी को मालूम ही नही चला. इसके बाद का एक भाई नईम जो पैर से थोडा माज़ूर था को लोग नईम लंगड़ा नाम से पुकारते थे. जिसका बुरा अक्सर रईस को लगता था और रईस को लोग मजाक में नक्फुसडा (चिडचिडा) कहने लगे थे. इस नाम से भी रईस चिडचिडा जाता था. यह वह समय था जब कानपुर में डी-2 गैंग का वर्चस्व था, बिल्लू नाम के अपराधी के द्वारा यह गैंग संचालित होता था और पुलिस के लिए यह गैंग सरदर्द बना हुआ था.

डी-2 गैंग का वर्चस्व इस कदर था कि उसके क्षेत्र में अन्य किसी क्षेत्र का रहने वाला अपराधिक छवि का व्यक्ति जा नहीं सकता था. अगर जाना होता था तो इस डी-2 गैंग के लोगो से उसको अनुमति लेना होता था. यह गैंग इतना ही कद्दावर था कि शानू बॉस जैसे अपराधी इस गैंग के शूटर थे और इसके लिए काम करते थे. बिल्लू का नाम इस शहर में बिकता था. या फिर कह लिया जाये कि कानपुर के आसपास के शहरों में इसके नाम के सिक्के चलते थे. जानकार सूत्रों की माने तो इधर सिद्दीकी परिवार में नौशाद की हिम्मत देख कर बिल्लू ने उसको अपने साथ काम करने का न्योता दिया मगर नौशाद ने उसके साथ काम करने से मना कर दिया. डी-2 गैंग के साथ शानू बॉस के अलावा कई और भी अपराधी जुड़े थे जिसमे शानू ओलंगा,  सईद राजा आदि थे. इस दौरान पुलिस का कडा रुख हुआ और बिल्लू पुलिस मुठभेड़ में मारा गया. इसके साथ ही शानू बॉस भी पुलिस मुठभेड़ में मारा गया. डी-2 गैंग की कमान अब निजामु के हाथो आ चुकी थी जो बिल्लू का करीबी रिश्तेदार था, इस गैंग के सञ्चालन में निजामु कही न कही कमज़ोर पड़ने लगा और एक गुट अपने को अलग करके अपना अलग वर्चस्व बना बैठा. डी-2 गैंग कमज़ोर पड़ने लगा और दूसरा गुट अपनी वसूली पर आ गया, इस दौरान नौशाद ने अपराध जगत में कदम रख दिया था. चर्चाओ के अनुसार नौशाद रईस को काफी मानता था. नौशाद का मुख्य काम चरस की बिक्री था. नौशाद अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझता था. यह बात दुसरे गुटों को खलती थी और वह उससे अपना हिस्सा नहीं ले पाते थे.

चर्चाओ के अनुसार नौशाद से वसूली के लिये शानू ओलंगा को उसके अन्य साथियों ने खूब चढ़ाया. जिसमे मुख्य नाम शाहिद आलम था जिसका डायलाग आज भी लोग दशक बीतने के बाद याद रखे है वह हमेशा कहता था की ज़िन्दगी एक उडती पतंग है. शानू ओलंगा अपने साथ शाहिद. शोएब रजा, एक अंडे रोल का कारोबारी और वर्त्तमान में एक राजनितिक दल से जुड़ चुके और तत्कालीन मुर्गा कारोबारी के साथ नौशाद के अड्डे पर जाता है. सूत्रों से प्राप्त जानकारी और तत्कालीन लोगो के बयान के आधार पर माने तो नौशाद जिसको नौशाद कालिया कहा जाता था से जाकर शानू ओलंगा ने हफ्ता और दारु की फरमाईश कर डाला. जिस पर नौशाद ने साफ़ मना कर दिया. इससे नाराज़ होकर शानू ओलंगा और उनके साथियों ने नौशाद पर गोलिया बरसाना शुरू कर दिया. नौशाद कालिया की हत्या चमनगंज और आस पास में दहशत कायम करने में सफल रही. नौशाद कालिया को कुल ५ गोलिया लगी थी जिससे उसकी मौत हो गई. यह घटना 2006 की है. इसके कुछ दिन के बाद शोएब राजा की गोली मार कर हत्या हो गई जिसमे सलीम ज़ंजीर, अख़लाक़ सुनहरा और आफाक सुनहरा का नाम आया. यहाँ से रईस का रईस बनारसी बनने का सिलसिला शुरू हो चूका था, इस घटना में रईस का नाम तो मुक़दमे में नहीं आया मगर चर्चा के अनुसार रईस का इसमें बड़ा हाथ था और रईस को लोग अब रईस बनारसी के नाम से जानने लगे.

क्षेत्रीय लोगो की चर्चा और वहा के एक क्राइम रिपोर्टर (सुरक्षा की दृष्टि से नाम नहीं दिया जा रहा है) के अनुसार रईस इसके बाद कानपुर से गायब ही हो गया था. इस दौरान रईस ने खुद को मजबूत कर लिया और उसको राजकुमार यादव उर्फ़ गुड्डू मामा का साथ मिला. गुड्डू मामा रईस का दाहिना हाथ है. रईस वापस 2011 में कानपुर पंहुचा. इस बार रईस अब अपना सिक्का चलाना चाहता था कानपुर में जिसके लिये उसने एक दुर्दांत हत्या का प्लान शायद पहले से तैयार कर रखा था. रईस और उसके साथियों के शब्दों में इसको शिकार कहते थे और शिकार था दूसरा दुर्दांत शानू ओलंगा.

अगर घटना को ध्यान से देखे तो शानू ओलंगा की हत्या सिर्फ करना मकसद नहीं था बल्कि अपना नाम कमाना मकसद था. इसके लिये उसने जगह कचहरी के पास ही डीआईजी कार्यालय के सामने चुना. दिनदहाड़े रईस और उसके साथी राजकुमार यादव उर्फ़ गुड्डू मामा ने शानू ओलंगा को गोली मारी. सिर्फ गोली मार कर भागना ही नहीं था. बल्कि दोनों ने शानू ओलंगा को दिनदहाड़े सरेराह गोली मारी और वहा कुछ देर रुके रहे. गाडी खडी करके उसके नीचे उतर कर हाथो में असलहा लिए हुवे दोनों लगभग दस मिनट मौके पर रहे. जनता की भीड़ कुछ दुरी पर इस तरह रुकी रही जैसे किसी ने रोड ब्लाक कर दिया हो. इसके बाद दोनों मौके से फरार हो गए. इस घटना के समय मौके पर एक खबरिया दैनिक अखबार का फोटो जर्नलिस्ट भी था जिसकी खीची हुई तस्वीर ने हडकंप मचा दिया. उसी तस्वीर को अखबार में खबरों के माध्यम से खूब उछाला गया. पुलिस को हैलमेट लगाये युवक की पहचान करना था और उसकी पहचान हुई रईस बनारसी के नाम से,

रईस ने इस दौरान दलेलपुरवा में अपना विवाह किया. जिससे उसको एक बेटी और एक बेटा है. बड़ा बेटा 8 साल का और बेटी तीन साल की है. वहा से फरार होने के बाद खुद के गुर्गे वहा छोड़ कर रईस बनारस आया. जिसको आदमपुर पुलिस ने एक अन्य मामले में गिरफ्तार कर लिया, गिरफ़्तारी के समय रईस के साथ राजकुमार भी पकड़ा गया था. बनारस से शाहजहांपुर जेल शिफ्ट करते समय रईस रास्ते से फरार हो गया. इस फरारी के बाद रईस अपने पाँव मुंबई में भी जमाना शुरू कर चूका था. कानपुर आने पर रईस चमनगंज एक पास एक अंडा रोल वाले के दूकान पर ज़रूर आता था. पुलिस से अपनी पहचान छुपाने के लिए रईस ने एक बार फिर दाढ़ी बड़ी कर लिया था. लुक काफी बदला होने के वजह से रईस को पुलिस पहचान नहीं पाती थी.

रईस के नाम की दहशत कानपुर में बन गई थी. रईस आतंक का दूसरा नाम बन चूका था. बताया जाता है कि रईस ने अपने भाई के क़त्ल के और आरोपियों को उनके हिसाब से सजा खुद मुक़र्रर किया. इससे अंडारोल बेचने वाले ने रईस का दामन थाम लिया.  ये ज़िन्दगी एक उडती पतंग है का डायलोग लेकर अपराध जगत में नाम कमाने की चाह में निकला शाहिद आलम और मुर्गा कारोबारी और सपा नेता को शहर छोड़ देने का फरमान रईस ने जारी कर दिया. वर्त्तमान सूचनाओ को आधार माने तो मुर्गा कारोबारी उन्नाव में रहकर अपने को सुरक्षित महसूस करने की कोशिश कर रहा है. इसमें सबसे निम्न स्तर पर शाहिद आलम है जो अब दिल्ली में रिक्शा चला रहा है. वही उन्नाव के हमारे सूत्र बताते है कि रईस की हत्या वाले दिन इस पूर्व मुर्गा कारोबारी के घर काफी देर तक पटाखे छूटे थे.

रईस के नाम का सिक्का धीरे धीरे नहीं बहुत तेज़ी से कानपुर में जम चूका था. रईस के नाम पर वसूली शुरू हो गई थी. कानपुर में वसूली को पर्ची काटना और वसूली मागने को पर्ची थामना कहा जाता है. सूत्रों की माने तो रईस ने बजरिया थाने के एक कद्दावर मास कारोबारी को पांच लाख की पर्ची थमा दिया. कारोबारी ऊँची पकड़ वाला है वही अपराध जगत में भी उसकी अच्छी पैठ है. उसने बहुतेरे प्रयास किये मगर आखिर में उनसे माफ़ी मांग कर रईस की पर्ची काट ही डाली. यहाँ से रंगदारी में रईस का नाम चलने लगा. चर्चाओ के अनुसार रईस ने कानपुर के एक कद्दावर कुरैशी से वसूली कर रंगदारी बढाई वही दुसरे बांसमंडी के रहने वाले एक कुरैशी जो बिल्डर का काम करता है से हाथ मिला कर बिल्डिंग लाइन का काम शुरू कर दिया.बिल्डर का काम विवादित जगहों को खरीदना होता था तो रईस बनारसी का काम उसको खाली करवाना होता था. रईस का हिस्सा जगह खाली होने के बाद उसको मिल जात था. वही कोई और अडंगा आने पर उसको रईस का फोन अथवा उसके गुर्गे डफाली गुट संभाल लेते थे.

दालमंडी के बिल्डरो से भी था गहरा नाता

रईस इधर अपने गृह जनपद में भी अपने पाँव फैलाने लगा था, रईस ने दालमंडी और पाण्डेयहवेली बंगाली टोला आदि इलाको में अपने तगड़े पाँव जमा लिये थे. रईस ने दालमंडी में कई भवनों में हस्तक्षेप करके अच्छा पैसा कमाया था. दालमंडी के कई निर्माण में रईस का नाम सामने आया मगर पुलिस को कोई शिकायत नहीं मिलने के कारण रईस के खिलाफ कुछ ठोस कागज़ी कार्यवाही नहीं कर पा रही थी.

परदेसी नाम से पुकारते थे उसके गुर्गे कानपुर में रईस बनारसी को

रईस बनारसी को कानपुर में उसके गुर्गे परदेसी नाम से पुकारते थे. परदेसी नाम से उससे बात करते थे. रईस लगातार कानपुर आता जाता रहता था. सूत्रों की माने तो कानपुर से वापस आने पर अपनी सुरक्षा हेतु कानपुर के अपने गुर्गो के साथ रईस वापस आता था. देखने वालो ने दौरान ए चर्चा यह तक बताया की लगभग 15-20 दिन पहले रईस कानपूर गया था जहा से वह उरई गया था. उसके बाद वह वापसी में कानपुर रुक कर बनारस आया है.

अगले अंक में हम आपको बतायेगे की आखिर किस प्रकार विवादित संपत्ति पर बने इस वक्त के ठेकेदार जो अचानक अमीर हो गये.  जुड़े रहे हमारे साथ

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