नहीं रहे उमराव जान फिल्म में जान डालने वाले खय्याम, जाने खय्याम के सम्बन्ध में रोचक तथ्य

तारिक आज़मी

फ़िल्म कभी-कभी, बाज़ार, उमराव जान, रज़िया सुल्तान जैसी फ़िल्मों में बेहतरीन संगीत देने वाले मशहूर संगीतकार खय्याम अब इस दुनिया में नहीं रहे, 1947 में फ़िल्मी सफ़र शुरू करने वाले खय्याम अपने फ़िल्मी करियर के पहले पाँच साल शर्मा जी के नाम से जाने जाते थे। संगीतकार मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम हाशमी का आज सोमवार रात साढ़े नौ बजे 93 साल की उम्र में निधन हो गया।

पिछले कुछ समय से सांस लेने में दिक़्क़त के कारण उनका मुंबई के जुहू में एक अस्पताल में इलाज चल रहा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत फ़िल्म, कला, राजनीति और अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोगों ने ख़य्याम के निधन पर शोक जताते हुए श्रद्धांजलि दी है। फ़िल्मी करियर के शुरुआत में ख़य्याम संगीतकार रहमान के साथ मिलकर संगीत देते थे और जोड़ी का नाम था शर्मा जी और वर्मा जी। वर्मा जी यानी रहमान पाकिस्तान चले गए।

बात 1952 की है। शर्मा जी कई फ़िल्मों का संगीत दे चुके थे और उन्हें ज़िया सरहदी की फ़िल्म फ़ुटपाथ का संगीत देने का मौक़ा मिला। दिलीप कुमार पर फ़िल्माया गया गाना था -शाम-ए-ग़म की क़सम आज ग़मगी हैं हम, आ भी जा, आ भी जा आज मेरे सनम।।। जिया सरहदी के काफी करीबी रहे ख्याम ने एक साक्षात्कार में खय्याम नामकरण के सम्बन्ध में बताया था कि एक दिन बातों का दौर चला तो ज़िया सरहदी ने पूछा कि आपका पूरा नाम क्या है। मैंने कहा मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम। तो उन्होंने कहा कि अरे तुम ख़य्याम नाम क्यों नहीं रखते। बस उस दिन से मैं ख़य्याम हो गया।

18 फ़रवरी 1927 को पंजाब में जन्मे ख़य्याम के परिवार का फ़िल्मों से दूर दर तक कोई नाता नहीं था। उनके परिवार में कोई इमाम था तो कोई मुअज़्ज़िन। धार्मिक पृष्ठभूमि वाले खय्याम अपने कुनबे में एकलौते फिल्मो में आने वाले शख्स थे। उस दौर के कई नौजवानों की तरह ख़य्याम पर केएल सहगल का नशा था। वो उन्हीं की तरह गायक और एक्टर बनना चाहते थे। इसी जुनून के चलते वे छोटी उम्र में घर से भागकर दिल्ली चचा के पास आ गए। खय्याम ने एक पुराने साक्षात्कार में बताया था कि घर में ख़ूब नाराज़गी हुई लेकिन फिर बात इस पर आकर टिकी कि मशहूर पंडित हुसनलाल-भगतराम की शागिर्दी में वो संगीत सीखेगें। कुछ समय सीखने के बाद वे लड़कपन के नशे में वो क़िस्मत आज़माने मुंबई चले गए लेकिन जल्द समझ में आया कि अभी सीखना बाक़ी है।

संगीत सीखने की चाह उन्हें दिल्ली से लाहौर बाबा चिश्ती (संगीतकार ग़ुलाम अहमद चिश्ती) के पास ले गई जिनके फ़िल्मी घरानों में ख़ूब ताल्लुक़ात थे। लाहौर तब फ़िल्मों का गढ़ हुआ करता था। बाबा चिश्ती के यहाँ ख़य्याम एक ट्रेनी की तरह उन्हीं के घर पर रहने लगे और संगीत सीखने लगे। खय्याम अक्सर ये क़िस्सा ज़रूर सुनाते थे कि  एक बार बीआर चोपड़ा बाबा चिश्ती के घर पर थे और चिश्ती साहब सबको तनख़्वाह बाँट रहे थे। लेकिन बीआर चोपड़ा ने देखा कि मुझे पैसे नहीं मिले। चोपड़ा साहब के पूछने पर बाबा चिश्ती ने बताया कि इस नौजवान के साथ तय हुआ है कि ये संगीत सीखेगा और मेरे घर पर रहेगा पर पैसे नहीं मिलेंगे। लेकिन बीआर चोपड़ा ने कहा कि मैंने देखा है कि सबसे ज़्यादा काम तो यही करता है। बस बीआर चोपड़ा ने उसी वक़्त मुझे 20 रुपए महीने की तनख़्वाह थमाई और उसी वक्त से चोपड़ा ख़ानदान के साथ रिश्ता बन गया।

ख़य्याम ने कई संगीतकारों की तुलना में कम काम किया लेकिन जितना भी किया उसको बेमिसाल माना जाता है। उनके गानों में एक अजब सा ठहराव, एक संजीदगी होती है। फ़िल्म बाज़ार का गाना- ‘देख लो आज हमको जी भरके’,  उमराव जान में ज़िंदगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है मुझे, ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें आज भी संगीत प्रमियो के दिलो में बसा हुआ है। उनकी सबसे बड़ी सफलता उनकी फिल्म 1982 की उमराव जान थी। ये एक उपन्यास उमराव जान अदा पर आधारित फ़िल्म थी जिसमें 19वीं सदी की एक तवायफ़ की कहानी है। बताया जाता है कि ख़य्याम ने इस फ़िल्म का संगीत देने के लिए न सिर्फ़ वो उपन्यास पूरा पढ़ा बल्कि दौर के बारे में बारीक से बारीक जानकारी हासिल की-

अतीत में चलकर ख़य्याम के फ़िल्मी सफ़र की बात करें तो उन्होंने 1947 में अपना सफ़र शुरु किया हीर रांझा से। रोमियो जूलियट जैसी फ़िल्मों में संगीत दिया और गाना भी गाया। 1950 में फ़िल्म बीवी के गाने ‘अकेले में वो घबराते तो होंगे’ से लोगों ने उन्हें जाना जो रफ़ी ने गाया था। 1953 में आई फ़ुटपाथ से ख़य्याम को पहचान मिलने लगी और उसके बाद तो ये सिलसिला चल निकला। 1958 में फ़िल्म ‘फिर सुबह होगी’ में मुकेश के साथ ‘वो सुबह कभी तो आएगी’ बनाया , 1961 में फ़िल्म ‘शोला और शबनम’ में रफ़ी के साथ ‘जाने क्या ढूँढती रहती हैं ये आँखें मुझमें रचा’। तो 1966 की फ़िल्म ‘आख़िरी ख़त’ में लता के साथ ‘बहारों मेरा जीवन भी सवारो’ लेकर आए।

दिलचस्प बात ये है कि राजकपूर के साथ उन्हें ‘फिर सुबह होगी’ मिलने की एक बड़ी वजह थी कि वो ही ऐसे संगीत निर्देशक थे जिन्होंने उपन्यास क्राइम एंड पनिशमेंट पढ़ी थी जिस पर वो फ़िल्म आधारित थी। ख़य्याम ने 70 और 80 के दशक में कभी-कभी, त्रिशूल, ख़ानदान, नूरी, थोड़ी सी बेवफ़ाई, दर्द, आहिस्ता आहिस्ता, दिल-ए-नादान, बाज़ार, रज़िया सुल्तान जैसी फ़िल्मों में एक से बढ़कर एक गाने दिए। ये उनके करियर का गोल्डन पीरियड था।

ख़य्याम के जीवन में उनकी पत्नी जगजीत कौर का बहुत बड़ा योगदान रहा जिसका ज़िक्र करना वो किसी मंच पर नहीं भूलते थे। जगजीत कौर ख़ुद भी बहुत उम्दा गायिका रही हैं। चुनिंदा हिंदी फ़िल्मों में उन्होंने बेहतरीन गाने गाए हैं अमीर सिख परिवार से आने वाली जगजीत कौर ने उस वक़्त ख़य्याम से शादी की जब वो संघर्ष कर रहे थे। मज़हब और पैसा कुछ भी दो प्रेमियों के बीच दीवार न बन सका। दोनों की मुलाक़ात तो संगीत के सिलसिले में हो चुकी थी लेकिन जब मुंबई की एक संगीत प्रतियोगिता में जगजीत कौर का चयन हुआ तो उन्हें ख़य्याम के साथ काम करने का मौक़ा मिला और वहीं से प्रेम कहानी शुरु हुई।

जगजीत कौर ख़ुद भले फ़िल्मों से दूर रहीं लेकिन ख़य्याम की फ़िल्मों में जगजीत कौर उनके साथ मिलकर संगीत पर काम किया करती थीं। दोनों के लिए वो बहुत मुश्किल दौर था जब 2013 में ख़य्याम के बेटे प्रदीप की मौत हो गई। लेकिन हर मुश्किल में जगजीत कौर ने ख़य्याम का साथ दिया। फिल्म जगत ने खय्याम को खोकर अपने आसमान का एक अनमोल सितारा खोया है।

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