वकील-पुलिस हिंसा पर तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – कौन सुनेगा….. किसको सुनाये…., आम जनता के लिए अदालतो में इन्साफ मांगने वाले क्या खुद के लिये इंसाफ सडको पर करेगे ?

तारिक आज़मी

आपने ऐसा शायद कभी नही देखा होगा। इसको भले लोग वकील वर्सेज़ पुलिस कहे मगर हकीकत में ये पुलिस वर्सेज़ पुलिस से अधिक कुछ नही था। मैंने तो कम से कम ऐसा अपने जीवनकाल में नहीं देखा कि मार खाती पुलिस अपने इकबाल की सलामती के लिए खुद विरोध प्रदर्शन पर उतर आये। ऐसा सिर्फ फिल्मो में हुआ था। वह भी फिल्म सिर्फ एक थी सिंघम। इसी फिल्म में सभी पुलिस वाले अपनी वर्दी उतार कर रख देते है। ये फ़िल्मी सीन रील लाइफ से रियल लाइफ में उतर आया और पुलिस कर्मियों के साथ उनके परिजनों ने आज दिल्ली में अपना विरोध दर्ज करवाया और अपनी मांग पर टिके रहे। लगभग 12 घंटे तक अधिकारियो के पसीने छुट पड़े। अभी तक बीसीआई ने इसकी गंभीरता को नही समझा था मगर वकालत पर उठ रहे सवालात और अचानक बदले हालात ने सोचने पर मजबूर कर दिया। यहाँ तक कि बीसीआई ने सभी बार को पत्र लिखा जिसमे यहाँ तक लिख दिया कि ऐसी घटनाओ से अवाम के नजर में हम अपनी सहानुभूति खोते जा रहे है।

मैं कभी पुलिस का हितैषी नही रहा हु। मगर दिल्ली प्रकरण में मैं कम से कम उस मार खाने वाले पुलिस कर्मी के लिए खड़ा हु जो साकेत कोर्ट शायद किसी इन्साफ के लिए गया था। मगर उसको चंद वकीलों ने सड़क पर बेवजह पीट दिया। केवल उनकी खाकी के लिए नफरत रही होगी तभी तो उन्होंने एक ऐसे बेगुनाह सिपाही की पिटाई कर दिया जो किसी केस के सिलसिले में साकेत कोर्ट के बाहर गया था। आपको तस्वीरे देख कर और वीडियो देख कर इस वकील की हरकत पर ताज्जुब हो जायेगा। एक वकील पुलिसकर्मी को मार रहा है। और मारता ही जा रहा है। पुलिस के जवान का हेल्मेट ले लेता है। जवान बाइक से जब वह से निकलता है तो वकील उसका हेल्मेट बाइक फेक कर मारता है। फिर जवान के कंधे पर मारता है।

ये तस्वीर और वीडियो आप सिर्फ ये सोच कर देखे कि मार खाने वाला एक सिपाही है। ये सिर्फ क्या दिल्ली पुलिस के सिपाही के इकबाल की कमी है। शायद नही ये पुरे मुल्क के हर नवजवान हर सिपाही का अपमान है। ये घटना बताती है कि कही न कही पुरे सिस्टम में कमी है। हम सिस्टम ही खोते जा रहे है। या फिर ये कह सकते है कि सिस्टम ही ध्वस्त हो रहा है। आज हम ऐसे सिस्टम को बनाते जा रहे है जहा भीड़ राज कर रही है। मैं गृहमंत्री अथवा प्रधानमंत्री से सवाल नही कर रहा हु, मगर ये सवाल पुरे सिस्टम से कर रहा हु जहा भीड़तंत्र बनता जा रहा है।

आज प्रदर्शन के दौरान दिल्ली में किरण बेदी को याद किया गया। एक दौर था जब किरण बेदी ने वकीलों से इसी प्रकार से विवाद पर लाठीचार्ज का आदेश दे दिया था। ये वह वक्त था जब दिल्ली में पुलिस के इकबाल को चुनौती देने पर किरण बेदी ने पुलिस का इकबाल बचाया था। हकीकत में उसी तरह इस घटना के बाद दिल्ली पुलिस के कमिश्नर पटनायक साहब को अपने सिपाही के साथ खड़े होना चाहिए था। एक बार साकेत कोर्ट जाना चाहिए। अगर ऐसा होता तो सिपाहियों का मनोबल बढ़ता। मगर ऐसा कुछ हुआ नही और सिपाही का मनोबल टुटा। हकीकत में मुल्क में मार खाती पुलिस का इक़बाल ख़त्म हो जाएगा।

ऐसा नही है कि सिर्फ दिल्ली पुलिस के जवान इस स्थिति में है। उनको ही सिर्फ दर्द है। देश में लगभग कमोबेस हर जगह ऐसी ही स्थिति है। मैं उन पुलिस वालो के अकेलेपन को समझ सकता हु जब वह वकीलों के हाथो मार भी खाते है और कार्यवाही भी उनके ऊपर ही होती है। मैं उस स्थिति को समझ सकता हु जब पुलिस कर्मी वकीलों के हाथो मार खाने के बाद अपने विभाग के तरफ एक उम्मीद की नज़र से देखते है मगर उनकी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है जब विभाग उनका खुद का साथ नही देता है। ऐसे अकेलेपन में मैं उनके साथ हु।

साकेत में जो कुछ हुआ उसमे वकीलों का क्या पक्ष था मुझको नही पता, मगर जिस तरीके से हिंसा हुई वह गलत है। पुलिस अगर यही कार्य किसी आम नागरिक अथवा किसी अधिवक्ता के साथ करती तो मैं उस आम नागरिक अथवा अधिवक्ता के साथ रहता। मैं स्पष्ट कहना चाहता हु कि अधिवक्ता वर्ग के पास क्षमता है। वह सक्षम है। इस लड़ाई को कानूनी तरीके से वह और भी बेहतर लड़ सकते थे। मगर दूसरो को इन्साफ दिलाने की बात करने वाले अगर कोर्ट के बाहर ही फैसला करने को आतुर दिखाई दे तो फिर उस भीड़ में और उनमे क्या फर्क है जो उन्मादी होती है। आप दुसरे को इन्साफ दिलाने के लिए कोर्ट में लड़े और खुद के इन्साफ की बात हो तो कोर्ट के बाहर ही इन्साफ खुद अपने हाथो करे ये कहा तक सही है इसको शिक्षित अधिवक्ता वर्ग समझ सकता है।

मैं ये नही कहता कि सभी अधिवक्ता इस हिंसक घटना को अपनाते है। यह एक कडवी सच्चाई है कि ऐसे इन्साफ करने वाले अधिवक्ताओ की संख्या मात्र 15-20 फ़ीसदी है। मगर ये बकिया के 80-85 प्रतिशत पर भारी है। बाकि के 80 प्रतिशत तो सिर्फ अपनी इज्ज़त बचाने को खामोश रह जाते है। वह न ऐसे कार्यो का समर्थन करते है और न ही अपनी इज्ज़त की खातिर उसका विरोध कर पाते है।

मैं समझ सकता हु इस घटना में काफी ऐसे लोग भी होंगे जो इसको पहले हो चुकी घटनाओ से जोड़ कर देख रहे है। एक बंधी बंधाई धारण जो काफी पहले से हमारे दिमाग में है उसके तहत हम सोच रहे है। मगर पुराने सोचो से थोडा ऊपर उठकर सोचना होगा कि आखिर क्या ऐसी बाते बीसीआई को दिखाई दी है जो उसने सभी बार के लिए पत्र लिखा है। हमको पुराने सोच से ऊपर उठकर सडको पर होते इन्साफ के लिए न कहना ही होगा। वरना देश में प्रजातंत्र यानि लोकशाही के जगह भीड़तंत्र अथवा लाठीशाही का वक्त सामने है। यहाँ केवल सवाल है सिस्टम का और आप बखूबी जानते है सिस्टम धीरे धीरे करके खत्म होता जा रहा है। इसको बनने की ज़िम्मेदारी हमारी और आपकी है। आइये एक ऐसा सिस्टम बनाये जिसमे फैसले अदालत को ही करने दे। हम खुद सडको पर इन्साफ करना बंद करे।

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