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दिल्ली हिंसा पर तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई से आखिर कैसे बन बैठे दंगाई-कसाई ?

तारिक आज़मी

दिल्ली की हिंसा ने देश के लगभग हर अमन पसंद नागरिक को अन्दर तक झकझोर कर रख दिया है। इस हिंसा की जितनी भी निंदा किया जाए वह कम है। दंगाईयो ने अमन की नगरी, बेहद खुबसूरत शहर, सुनहरी और दिल वालो की दिल्ली को जला कर ख़ाक करने का पूरा मंसूबा तैयार कर लिया और काफी हद तक इस मनसूबे में वह कामयाब भी हो गए। सडको पर हिंसा का नंगा नाच हुआ। घरो को जलाया गया और नफरतो की चिनगारियो को शोलो में तब्दील कर डाला और इंसानियत का जमकर क़त्ल हुआ।

दिल्ली के दंगा ग्रस्त इलाको में कोई भी शायद ऐसी गली नही होगी जहा पर इंसानियत ने अपने दम नही तोड़े होंगे। मस्जिद पर चढ़कर तिरंगा लगा दिया, भगवा फहरा दिया, आज एक रिपोर्ट एक न्यूज़ चैनल की देख रहा था कि उस मस्जिद को दंगाईयो से बचाने के लिए वहा के हिन्दुओ ने काफी कोशिशे किया, मगर दंगाईयो ने उनकी भी नहीं सुनी। एक प्रत्यक्षदर्शी ने तो यहाँ तक कहा था कि अगर हम खुद वहा से नहीं भागे होते तो दंगाई हमको भी मार देते।

दिल्ली पुलिस पर काफी उंगलिया उठ रही है। उठाना भी वाजिब है। आखिर शाहरुख जब गोली चला रहा था तब पुलिस उसको देख कर पीछे क्यों हट रही थी। वही शाहरुख़ जिसने लाल टी-शर्ट पहन रखा था। भले ही शरीर से वह पुलिस कर्मियों से मजबूत रहा होगा मगर जिस तरीके की ट्रेनिंग लेकर पुलिसकर्मी सेवा में आते है वैसी ट्रेनिंग का एक हिस्सा भी उस दंगाई को नहीं रही होगी। एक पुलिस वाला भी उसके सामने खुद को पुलिस होने का अहसास करके नहीं खडा हुआ। शायद एक भी अगर खड़ा होता तो उस शाहरुख़ की हिम्मत नही हो पाती कि वह आसपास खड़ा भी रह पाता।

बहरहाल, हाई कोर्ट के सख्त टिप्पणी के बाद पुलिस मामले में जाँच कर रही है और हमारा किसी तरह का ट्रायल करने की मंशा भी नहीं है। इसको लिखे जाने तक शाहरुख़ पुलिस के गिरफ्त से बाहर है। अकेले शाहरुख़ ही क्यों शायद फोटो से चिन्हित ज़्यादातर लोग पकड़ से बाहर है। दंगे किसने भड़काए इसकी जाँच के लिए एसआईटी बन चुकी है और खूब जमकर ऍफ़आईआर हुई है। मगर इसके बावजूद क्या मरने वाले और खुद की तबाही को आँखों से देखने वाले सब्र का दामन थाम सकते है। शायद नही।

दिल्ली ऐसे ही जली थी 1984 में हुवे सिख विरोधी दंगो में। इस बार फिर दिल्ली जल उठी है। भड़काऊ बयान, अफवाहों की पोस्ट ने दिल्ली के इंसानियत का खुला क़त्ल कर डाला है। नफरतो के बीच खुद की सियासी रोटियों वाले भी इस सियासत को समझ रहे है मगर अब स्थिति ऐसी है कि लोग नफरतो को समझ रहे है मगर आवाज़ नहीं निकल सकती है। शायद उस वक्त जो खुद को संभ्रांत नागरिक कहते है वह स्थिति को नियंतिर्ट कर दंगे को रोकने में महती भूमिका निभा सकते थे। मगर किसी ने भी उठी हुई अफवाह को रोकने का काम नही किया। सियासत ने तो खैर आग में घी का काम किया और शोले भड़का दिए।

हकीकी ज़िन्दगी से अगर रुबरु हो तो हमको दिखाई देगा कि भीड़ के साथ खड़े सभी एक आवाज़ में कहते है कि ‘हिन्दू मुस्लिम भाई भाई’ फिर आखिर समझ नहीं आता कि जब भाई भाई है तो फिर आखिर कैसे दंगाई और कसाई बन बैठे। आखिर क्या थी वजह कि इतनी नफरत दिमागों में बैठी थी कि एक दुसरे से बात तो दूर शायद शक्ल देखना भी पसंद नही कर रहे थे। कोई आये चंद लोगो को लेकर और आपको भड़काना शुरू कर डाले। आप पढ़े लिखे है। एक सभ्य समाज के हिस्सा है। मगर हमारी समझ ऐसे अफवाहों एक कारण शायद आराम गाहो में जाकर आराम तलब करने लगती है।

किसी ने अफवाह फैला दिया कि प्रोटेस्ट कर रही महिलाओं पर पुलिस ने गोलियां चलाई है। बस आपने कौवा कान ले गया के तर्ज पर उसके पीछे दौड़ पड़े आपको कुछ पता तो करना नहीं था। भाई आपके हाथो में 20 हज़ार का जो एक झुनझुना रहता है उसको मोबाइल कहते है। आप किसी से तस्दीक कर लेते। सीधे दौड़ लगा डाला। वही दूसरी तरफ तो नफरत दिमाग में कूट कूट कर भर दिया गया था। अब नफरतो की खेती हो गई है तो फिर आप कहा उसकी फसल को रोकने वाले थे। बस बन गए भाई भाई से कसाई और दंगाई।

ज़रा सा भी नही सोचा कि “इंसान टूट जाता है एक आशियाँ बनाने में, और तुम्हे शर्म नही आई बस्तियां जलाने में।” नाम में मज़हब तलाशते हुवे चुन चुन कर दुकानों में आग लगाने से पहले सोचा होता कि इस दूकान के वजह से हो सकता है दस लोगो का पेट भरता हो। मगर तुम सोचते कहा हो। भीड़ में तब्दील हो चुके थे। जला डाला सब कुछ। देखो तुम्हारे दिमाग की नफरते किस मुकाम पर आकर खडी है। सिसक रही है सुनहरी दिल्ली खुद को झुलसा देख कर। दंगाईयो का अब सोशल मीडिया पर वायरल होता वीडियो देख कर उसमे भी नफरत का बीज तलाश रहे हो। कपड़ो से मज़हब की तलाश, नाम में मज़हब की तलाश, लफ्जों में मज़हब की तलाश। कहा गई सब के बीच इंसानियत।

खुद के बच्चो से आज कैसे नज़र मिला सकते होगे। खुद के कदमो के नीचे की मिटटी उठाओ और बताओ इस मिटटी को आज़ाद करवाने के लिए बहे खुन में किस मज़हब का खून था। तुम्हारे वालदैन या माँ बाप ने तो ये परवरिश नही दिया। उन्होंने खुद की खुशियों को तुम्हारी परवरिश पर निछावर कर डाला और खुद की रहनुमाई तलाशते हुवे आज देखो खुद को तुम्हे इंसान बनाने की चाहत रखते वाले उन बुज़ुर्ग चेहरों को आज कैसे मायूस होंगे। कैसे परेशान होंगे। दुष्यंत का एक शेर याद आ रहा है। “अपने रहनुमाओं की अदा पर फ़िदा है दुनिया, इस भटकती हुई दुनिया को संभालो यारो।” सोचो कहा आ गए हो। भाई भाई ।।। दंगाई-कसाई। लफ्ज़ कडवे है मगर खुद के बच्चो से नज़रे मिला सकते हो क्या ? सोच कर बताना।

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