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“पं० रामाश्रय झा ‘रामरंग’ समिति” द्वारा आयोजित सप्त दिवसीय कार्यशाला में बताई शास्त्रीय संगीत की बारीकियां

करिश्मा अग्रवाल

“पं० रामाश्रय झा ‘रामरंग’ समिति” द्वारा आयोजित सप्त दिवसीय कार्यशाला के तृतीय सत्र का शुभारंभ कार्यशाला के आयोजक डॉ० रामशंकर के संचालन उनके द्वारा तृतीय सत्र की गुरु प्रो० संगीता पंडित जी के स्वागत एवं परिचय से किया गया। प्रो० संगीता पंडित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के मंच कला संकाय, गायन विभाग में विभागाध्यक्षा के पद पर कार्यरत हैं। आप उपशास्त्रीय गायन विधा में पारंगत हैं तथा बनारस घराने के पं० सुरेंद्र मोहन मिश्रा के सानिध्य में विधिवत प्रशिक्षित है, साथ ही स्वर कोकिला, नारी शक्ति, सुरश्री जैसे विशेष सम्मानो से सम्मानित हैं।

तृतीय सत्र का आरम्भ प्रो० संगीत जी ने “गंगा तरंग रमणीय…” श्लोक के माध्यम से माँ गंगा एवं बाबा विश्वनाथ का स्मरण कर, अपने सभी गुरुजनों को नमन करते हुए किया। तत्पश्चात कार्यशाला के आयोजन हेतु , विदुषी शुभा मुद्गल जी एवं डॉ० राम शंकर का विशेष आभार व्यक्त किया। तृतीय सत्र में उप-शास्त्रीय गायन शैली को बहुत सुंदर ढंग से परिभाषित करते हुए- ” जिस प्रकार उप-ग्रह ग्रह के चारों ओर घूमते रहते हैं, ठीक उसी प्रकार उप-शास्त्रीय संगीत भी शास्त्रीय संगीत के इर्द-गिर्द घूमता रहता है।” उप-शास्त्रीय संगीत में भी शास्त्रीय संगीत के सभी तत्व विद्यमान है। केवल उनका प्रयोगविधि आवश्यकतानुसार अलग हो जाता है।

शिक्षण के आरंभ में सर्वप्रथम विद्यार्थियों को कुछ बेसिक अलंकार बताएं, जो शास्त्रीय या उप-शास्त्रीय हर साधक को करना चाहिए। रियाज़ के लिए विविध स्वरों का अभ्यास तथा मीड़, कणस्वर, खटका, गमक आदि का अभ्यास भी अवश्य करने के सुझाव दिए। उप-शास्त्रीय विधा में गले की तैयारी के लीये सर्वप्रथम प्रातःकाल के रियाज़ में ॐ को साधने के पश्चात मंद्र के स्वरों में- सा नी ध प म ग रे सा रे ग म प ध नि सा… सा नि ध प, ध नि सा, सा नि ध प, ध नि सा रे सा नी ध प, ध नी सा रे ग रे सा नि ध प, ध नि सा रे ग म ग रे …

इसी प्रकार एक – एक स्वरों को लेकर आगे बढ़ते हुए मंद्र पंचम से लेकर तार पंचम तक अभ्यास करने, साथ ही इन स्वरों को आकार में करने का सुझाव दिया। तत्पश्चात उप-शास्त्रीय गायन के लिए कुछ विशेष अलंकार भी बताएं, जैसे- सारे गग रेसा, रेग मम गरे, गम पप मग… प ध ध प, प ध नि नि ध प, प ध नि सा सा नि ध प, प ध नि सा रे रे सा नि ध प … सा रे ग रे सा रे ग रे, सारे गरे सारे गरे सारे गरे सारे गरे, सारेगरे सारेगरे…। इसके अतिरिक्त बनारस घराने के पंडित बड़े रामदास जी को स्मरण करते हुए उनके द्वारा रचित एक अलंकार से भी विद्यार्थियों को लाभान्वित किया, जो- रेरे सासा नीनी सासा, रेरे सासा रेरे सासा रेरे सासा निनि सासा…इसी प्रकार आगे भी एक – एक स्वर बढ़ते हुए अभ्यास करने की सलाह दी।

उप-शास्त्रीय गायन के लिए गले की तैयारी, तानकारी, तथा बहलावा के साथ-साथ भाव पक्ष को भी महत्वपूर्ण बताते हुए काव्य, नायक – नायिका भेद, काकू भेद आदि का ज्ञान भी आवश्यक बताया तथा प्रायोगिक के साथ – साथ शास्त्र पक्ष का चिंतन भी महत्वपूर्ण बताया, जिससे शब्दों के अर्थ समझकर भाव उत्पन्न कर रूह से गायन किया जा सके।
इसी क्रम में बनारस की उप-शास्त्रीय रचनाओं में ठुमरी, बंदिशी ठुमरी, होरी, चहटा, कजरी, चैती, चैता-गौरी, घाटो, शास्त्रीय कजरी आदि विभिन्न प्रकार की विधाओं से विद्यार्थियों को अवगत कराया तथा राग भैरवी में निबंध ठुमरी “ऐरी रतिया कहवां गवाई बलम हरजाई… तथा राग भैरवी में ही दादरा- “बिसरिहौं ना बालम हमार सुधिया…”  “जाओ तोसे ना ही बोलूं जिया की बात…” “जमुना जल भर लाई चलो जानिया…” तत्पश्चात अपनी एक प्रिय ठुमरी “तड़पे बिन बालम मोरा जिया…” चैता गौरी में-“सोवत निंदिया जगावे हो रामा भोर ही भोर…” घाटों में- “मृगनयनी तोरी अखियां…” तथा शास्त्रीय कजरी में- ” बैठी सोचे बृजभान…” आदि विभिन्न प्रकार की उप-शास्त्रीय शैलियों की प्रस्तुति देकर, इतने कम समय में इतने महत्वपूर्ण और विस्तृत जानकारी से विद्यार्थियों को लाभान्वित किया। आपके साथ विभाग के ही छात्र – छात्राओं, गायन एवं तानपुरे पर , डॉ० श्वेता, सुश्री कामाक्षी एवं हारमोनियम पर श्री पंकज शर्मा तथा तबले पर श्री अभिनव नारायण आचार्य जी ने संगत किया। इस प्रकार तृतीय सत्र में देश और विदेश से भी लगभग ४०० प्रतिभागियों ने ऑनलाइन उपस्थित होकर कार्यशाला को सफल बनाया।

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