अपने भाइयो को गले भी न लगा सकु, फिर कैसे कह दू ईद मुबारक – सैयद इरशाद अहमद (उपाध्यक्ष दालमंडी व्यापार मंडल)

अहमद शेख

वाराणसी। कोरोना काल में वीरान मस्जिदों के बीच ईद-उल-अजहा आज मनाई गई। हम मुस्लिम बाहुल्य इलाको में इस ईद के मौके पर हालात के जायजे लेने निकल पड़े। खुद के व्यापार हेतु पूर्वांचल की मशहूर मार्किट दालमंडी में सन्नाटा पसरा हुआ था। कुछ लम्हों के अंतराल पर लोग धीरे से घरो के बाहर एक दो निकलते जिनके हाथो में छोटे झोले होते और किसी अन्य घर में चले जाते अथवा दरवाज़े से ही इन झोलों से कुर्बानी का गोश्त देकर वापस हो जा रहे थे। हमेशा गुलज़ार रहने वाली यह बाज़ार आज सन्नाटे में थी। सरकारी नियमो और कोरोना महामारी के बीच मने इस त्यौहार पर ज़रा सी भी रौनक और खुशिया नहीं दिखाई दे रही थी।

हम टहलते हुवे पास में निवास करने वाले दालमंडी व्यापार मंडल के उपाध्यक्ष इरशाद भाई से मुलाकात की गरज से उनके पास चले गए। घर के नीचे खुद के बैठक में बैठे इरशाद भाई ने हमारा इस्तकबाल किया। सलाम दुआ के बाद अमूमन आज के दिन बोला जाने वाला लफ्ज़ अदा हो ही गया और हमने कह दिया “ईद मुबारक।” इसके बाद इरशाद भाई ने एक गहरी साँस लिया और बोले जी साहब ईद आपको भी मुबारक हो, मगर अपने भाइयो को गले लगा न सके फिर कैसे कहे ईद मुबारक ये भी सोच रहे है।

लफ्ज़ खुशनुमा माहोल को खामोश कर देने के लिए काफी था। उन्होंने डिटेल के साथ बताना शुरू किया। कहा आप खुद देखे, हम लोग तीन मीटर से सोशल डिस्टेंस पर बैठे है। आज के दिन सभी से गले मिलकर गिले शिकवे दूर करते हुवे मुहब्बत का पैगाम दिया जाता है। मगर गले मिलना तो छोड़े साहब, हम लोग एक दुसरे के करीब भी नही बैठा पा रहे है। अल्लाह इस वबा से हम सबको महफूज़ रखे। अपने होश में मैंने ईद की नमाज़ पहली बार इस साल घर में अदा किया है। अब आप सोचे मस्जिदे वीरान पड़ी है। कैसी लग रही है ईद।

हमने बातो का सिलसिला जारी रखा। इरशाद भाई भी बड़े मूड में हमारे बातो को सुनते। उन्होंने कहा, लॉकडाउन कुछ इस तरह से असर किया कि गरीब भुखमरी के कगार पर पहुच गया है। दुकाने अब खुल भी रही है और भीड़ हो भी रही है। मगर खरीदार नही है। दूकान के किराया जितनी भी अक्सर बिक्री नही हो रही है। हमको इस बात को सोचना चाहिये कि आखिर कौन सी ऐसी गुनाह हम सबसे हुई है कि अल्लाह ने अपने घर नही बुला रहा है। ऐसा नही कि सिर्फ एक मज़हब को सोचना चाहिये बल्कि सभी को सोचना चाहिये कि आखिर कैसी हमसे खता हो गई है। उन्होंने कहा कि खूब आपस में नाइत्तिफाकियो ने जन्म लिया था। आखिर वो रब नाराज़ हुआ और सभी को अपने घर में आने से रोक दिया। मंदिर मस्जिद सब कुछ बंद है। ईद की खुशिया कहा साहब अब।

उन्होंने बातचीत में बताया कि ईद-उल-अजहा को बकरीद कहा जाता है। कई इलाको में इसको नमकीन ईद कहा जाता है। नमकीन इस वजह से कहते है कि इस त्यौहार में पकवान काफी होते है। सिवई को छोड़ कर सभी कुछ नमकीन भी होता है। ये त्यौहार त्याग की एक निशानी है। कुर्बानी का मतलब ही त्याग होता है। घर के बडो को ये त्यौहार त्याग करने की नसीहत देता है। गरीबो को उनका हक देने की नसीहत देता है। गरीबो की मदद सभी का फ़र्ज़ है। हमारी इनकम में उनका भी एक हिस्सा है। हमको उनको देना चाहिये। यहाँ तक की कुर्बानी के गोश्त में भी उनका एक तिहाई हिस्सा होता है।

कुर्बानियों को लेकर चल रही अजीबो गरीब बहस के मुताल्लिक हमसे बात करते हुवे इरशाद भाई ने कहा कि देखिये मुद्दों से भटका कर दुसरे बेमतलब के मुद्दों पर बहस अब मीडिया की आदत में शुमार हो चूका है। जीवो के प्रति दया इस्लाम सिखाता है। ज़रा सोचिये उन पशुपालको को जो एक साल इस त्यौहार का इंतज़ार करते है कि बकरीद पर उनका जानवर अच्छे दामो में बिकेगा जिससे वह अपने परिवार का आने वाला कल सुधारेगे। खुद के बच्चो का मुस्तकबिल सही तरीके से सवारेगे। उनका क्या होगा कभी किसी ने सोचा है। क्या किसी ने सोचा और इस पर बहस किया कि जो छुट्टा पशु सडको पर टहल रहे है आखिर उनका मालिक कौन होगा जिसने उनको सडको पर भूख प्यास से मरने के लिए छोड़ दिया है। बहस इस मुद्दे पर होनी चाहिये। मगर बहस होती है कि कुर्बानी को कैसे रोके। क्या कुर्बानी करना सही है। ऐसे बहस से सिर्फ भावनाये ही घायल होती है।

उन्होंने बताया कि देश में कामख्या मंदिर से लेकर काफी ऐसे मंदिर है जहा बलि दिया जाता है। ये प्रथा किस कारण बनी उसको कभी किसी ने नहीं सोचा। मगर बहस का मुद्दा केवल यही होता है कि बलि अथवा कुर्बानी होनी चाहिए या फिर नही। मंदिरों में दी जाने वाली बलि भी भावनाओं के साथ है। उनके ऊपर भी सवाल नही उठाया जा सकता है। क्योकि वो प्रथा भी कही न कही से मानवता के भलाई के लिए ही है। क्या कभी किसी ने इसके ऊपर विचार किया है कि वहा बलि प्रथा बंद होती है तो कितने लोग बेरोजगार हो जायेगे। मगर बहस का मुद्दा ज़रूर बन जायेगा। आखिर मीडिया देश में पाँव पसार रही बेरोज़गारी पर बहस क्यों नही करता है। ख़राब हो रही व्यवस्थाओ और अर्थव्यवस्था के सम्बन्ध में क्यों नही बहस करता है। मगर बहस सिर्फ बेमतलब के मुद्दों पर होती रहती है। देश का हर एक नागरिक अमन-ओ-सुकून चाहता है। उनका जो पैगाम है वो अहल-ए-सियासत जाने, हमारा तो पैगाम-ए-मुहब्बत है जहा तक पहुचे।

इस बातचीत के दरमियान सिवई आ जाती है। हम प्याले में चंद चम्मच सिवई की मिठास में रहते है मगर दिमाग में इरशाद भाई के दमदार सवालातो ने अपनी जगह बना रखी थी। उन्होंने कहा कि कारोबार सबके ठप पड़े है। कारोबार को उठाने के लिए भी कवायद होनी चाहिए। दिन पर दिन कोरोना अपना पाँव फैला रहा है। उसके रोकथाम के लिए हमको घरो में तो रहना चाहिए मगर घरो में कैसे रोटी चले इसका भी गौर-ओ-फिक्र होना ज़रूरी है। दुष्यंत का बड़ा प्यारा सा शेर है कि अपने रहनुमाओं की अदा पर फ़िदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को सम्भालो यारो। कभी इस शेर की बारीकी समझे और मुल्क के मुस्ताल्बिल के बारे में सोचे। धर्म, मज़हब और आस्था पर सवालात हम फिर कभी कर लेंगे।

हमारी सिवई खत्म हो चुकी थी। हम अपने सफ़र में आगे बढ़ गए थे। मगर हमारे कानो में इरशाद भाई के ज्वलंत मुद्दों पर उठाये गए सवाल अभी भी गूंज रहे थे। सन्नाटी गलियों और मुहल्लों से होकर हम आगे बढ़ रहे थे। गाड़ी की आवाज़ हमारी पैदल जा रहे एक्का दुक्का लोगो को चिहुका दे रहे थी। वास्तव में ऐसी ईद हमने भी अपने होश में पहले कभी नही देखा था।

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