राधारमण चित्रांशी – पत्रकारिता के सुनहरे 50 वर्ष

तारिक आज़मी

वाराणसी निवासी हिंदी पत्रकारिता के भीष्म पितामह हो चुके राधा रमण चित्रांशी के पत्रकारिता के पुरे 50 वर्ष हो चुके है। हिंदी पत्रकारिता के इन 5 दशको में बहुत कुछ बदला मगर नहीं बदला तो सिर्फ एक नाम और उसकी पहचान, “राधा रमण चित्रांशी।” पहचान भी वही पुरानी सर पर कैप, आँखों पर चश्मा, सदरी, और फार्मल पेंट के साथ सिंपल शर्ट।

डॉ बी पी श्रीवास्तव को इश्वर ने कुल 4 अनमोल रत्न पुत्र पुत्रियों के रूप में प्रदान किये। चिकित्सक परिवार से होने के कारण अमूमन इंजिनियर का बेटा इंजिनियर ही बनेगा के तर्ज पर ही डॉ श्रीवास्तव के दोनों बेटे चिकित्सक की डिग्री हासिल करके चिकित्सक के रूप में स्थापित हो चुके थे। जवानी की दहलीज़ पर आकर बड़े बेटे राधारमण चित्रांशी और छोटे बेटे डॉ मुरली रमण चित्रांशी ने चिकित्सक के तौर पर समाज की सेवा करना शुरू कर दिया था।

मगर माँ सरस्वती के आशीर्वाद और आराधना ने राधा रमण चित्रांशी के हाथो में कलम दे डाली थी। वो कहते है कि पूत के पाँव पालने में ही दिखते है तो वह हुआ भी था। स्कूल के समय से ही समसामयिक विषयों पर अपने विचारों को अपने बेबाक अंदाज़ में रखना, कुछ लिखना और कुछ पढना, ये शैली छात्रो की भीड़ से राधा रमण चित्रांशी को हमेशा अलग खड़ा करती थी। अलग ही पहचान एक क्रांतिकारी सोच वाले नवजवान के तौर पर राधा रमण चित्रांशी की रही।

चिकत्सक के तौर पर सब कुछ स्थापित होने के बावजूद राधा रमण चित्रांशी का मन तो कही और रहा करता था। समाजसेवा और क्रांतिकारी विचारधारा ने कुछ मुश्किलें भी खडी किया। इसके बाद वर्ष 1970 में उन्होंने वाराणसी से प्रकाशित संध्या कालीन दैनिक “गाण्डीव” को ज्वाइन कर लिया। परिवार में सभी सन्न से रह गए। अच्छी खासी चलती प्रैक्टिस के दरमियान पत्रकारिता करने के इस चुनाव ने डॉ बी पी श्रीवास्तव को थोडा सोच में डाल दिया। आखिर सबसे बड़ा बेटा ऐसे प्रोफेशन के जगह एक जद्दोजहद वाली ज़िन्दगी चुनता है तो हर पिता थोडा चिंतित ज़रूर होगा।

ये समय डॉ राधा रमण चित्रांशी के लिए थोडा कठिन था। समाज में पत्रकारों को तो भले बड़े सम्मान से देखा जाता रहा मगर आमदनी हमेशा से दाल रोटी ही खिला सकती थी। आखिर वो समय आया जब डॉ चित्रांशी को अपने चिंतित पिता से बैठ कर बाते करनी ही पड़ी। बड़े ही सहज भाव से हाथ बाँध कर एक आज्ञाकारी पुत्र की तरह राधा रमण चित्रांशी ने अपने पिता के सामने खड़े होकर उनको बताया कि कैसे उनका दिल पत्रकारिता में लगा हुआ है। उन्होंने पिता को समाज के हालात और अपने दायित्वों को बताते हुवे कहा कि “पिता जी भले गाडी नही रहेगी, बंगला नही रहेगा, वो शानो शौकत जो आमूमन चिकित्सक कमा लेते है नहीं होगी, मगर मानसिक शांति और समाज के लिए खुद के दायित्वों का निर्वहन तो होगा।”

पिता ने भी बेटे की इच्छा समझी और आखिर बेटे के सर पर हाथ रखकर इस ज़िन्दगी की जंग में “विजयी भवः” का आशीर्वाद दे डाला। पिता का आशीर्वाद और माँ की दुआओं के कारण जल्द ही डॉ राधा रमण चित्रांशी पत्रकारिता के फलक पर एक जगमगाते सितारे के तरह चमकने लगे। आग उगलती कलम से जेपी आन्दोलन का एक हिस्सा बने राधा रमण चित्रांशी को आपातकाल में मुश्किलें भी झेलनी पड़ी। मगर कलम थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। स्थानीय प्रशासन जहा नोटिस देते देते थका जा रहा था, वही चित्रांशी जी की कलम ने कहर ढाया हुआ था। समय बीतता गया।

इस बीतते हुवे समय के साथ राधा रमण चित्रांशी ने “गाण्डीव” को एक नई उंचाइयो तक पहुचाया। ऊँचाइया भी ऐसी कि नए नए आयाम स्थापित कर रही थी। दशक पर दशक बीतते जा रहे थे। मगर चमक फीकी पड़ने का नाम नही ले रही थी। पुरानी शताब्दी बीत गई। नई शताब्दी का भी पहला दशक गुजरने को था। सब कुछ बदल रहा था। अखबार में भी अजीब प्रतिस्पर्धा थी। मगर चित्रांशी जी ने इस प्रतिस्पर्धा से खुद को दूर रख कर माँ सरस्वती की आराधना जारी रखी। ये वो समय था जब कलम टूट जा रही थी वरना बिक रही थी। बड़ी बड़ी बोलियों के दौर से अपनी कलम को इस भीड़ से दूर रखते हुवे राधा रमण चित्रांशी ने अपनी कलम को महफूज़ रखा दौलत के शिकंजे से।

आखिर वक्त बदला और अखबार ने भी इस दौड़ में खुद को शामिल कर डाला। सच की आग उगलती चित्रांशी जी की कलम को दिक्कतों का सामना करना पड़ा। आखिर उन्होंने 2010 में 40 वर्ष लगातार एक ही अखबार को अपनी सेवाए देने के पश्चात खुद को अलग कर लिया। प्रशंसक मायूस थे तो वही आलोचकों ने सोचा कि चलो एक बोलती कलम खामोश कर दिया गया। चार दशक अथक बिना किसी आराम के चलने वाले राधा रमण चित्रांशी को भी थोडा आराम की आवश्यकता थी। साथ ही साथ उम्र का तकाजा भी सामने था। दिल ने भी परेशान कर रखा था। वही उच्च रक्तचाप ने भी अपनी रवानगी तेज़ कर रखा था। राधा रमण चित्रांशी वापस डॉ राधा रमण चित्रांशी के रूप में रिवाल्विंग चेयर पर झूलते हुवे नई पहचान बना सकते थे।

मगर एक बड़ा प्यारा सा जनाब राहत इन्दौरी का शेर है, “हवाए बाज़ कहा आती है शरारत से, सरो पर हाथ न रखो तो पगड़िया उड़ जाए।” आखिर हुआ भी कुछ ऐसा ही कि जब ज़माना सोच रहा था कि राधा रमण चित्रांशी के पत्रकारिता का सूर्य अस्त हो चूका है, तब उस मार्तंड ने उदय लिया और “पूर्वांचल आज कल” का प्रकाशन शुरू हो गया। डिजिटल मीडिया के उदय के दरमियान एक साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन और सञ्चालन बड़ी हिम्मत की बात थी। कुछ मौका परस्तो को ये उदय समझ नहीं आया। एक षड़यंत्र के तहत उनके खिलाफ खड़े होने की कोशिश कर रहे लोगो को जवाब भी माकूल मिला।

खुले ख़त का प्रचालन आपने आज देखा होगा। कभी कोई किसी को खुला ख़त लिखता है तो कभी कोई। मगर इसकी शुरुआत पूर्वांचल की सरज़मीन पर करने वाले का नाम डॉ राधा रमण चित्रांशी थे। उन्होंने एक ऐसा खुला खत लिया कि एक भूचाल आ गया। उनके ख़त का मज्मुन पढ़कर खुद को शूरवीर समझने वाले भी शर्म के समंदर में गोता लगाने की तैयारी करने लगे। “अन्दर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए, कितने शरीफ लोग थे सब खुल के आ गए, सूरज से जंग जीतने निकले थे बेवक़ूफ़, सारे सिपाही मोम के थे, घुल के आ गये।” उस खुले खत के लिए मशहूर शायर राहत इन्दौरी का ये कलाम एकदम सटीक है। उसके बाद से आलोचकों के मुह पर बड़ा सा ताला लगा और आज एक दशक और पूरा हो चूका है राधा रमण चित्रांशी की पत्रकारिता को।

पांच दशको की अथक नाबाद पारी खेल कर डॉ राधा रमण चित्रांशी आज भी नाबाद है। आज भी उनकी कलम लफ्जों के अंगारे निकाल रही है। ये वो अंगारे है जिससे उनके आलोचक दिन प्रतिदिन जल कर ख़ाक हुवे जा रहे है मगर स्थिति ऐसी है कि उनके होठो पर एक मद्धिम मुस्कान ज़रूर है। शायद यही अंदाज़ ज़माने को उनका खलता है, कि वो चराग हवाओं के खिलाफ जलता है। राधा रमण चित्रांशी ने आज हिंदी पत्रकारिता में नाबाद पचास वर्षो की पारी खेल लिया है। आज भी 20-22 साल के नवजवान सरीखी उर्जा के साथ अगले तीन दशको तक और भी पत्रकारिता करने का जज्बा उनके अन्दर है। हम बधाई देते है उनको ही नहीं बल्कि उनके पुरे परिवार को जो ऐसे अनमोल रत्न को अपने अन्दर समाहित रखे हुवे है।

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