साहब………!, मोक्ष की नगरी काशी में बेमौत मर गई बेचारी

तारिक़ आज़मी

वाराणसी में कोरोना संक्रमण रुकने का नाम ही नही ले रहा है। हर रोज़ ब रोज़ संक्रमितो की ताय्दात ने शहर को दहशत में ले रखा है। एक अनजाने खौफ की तरह कोरोना हमारे आसपास है। मालूम नही कौन कोरोना संक्रमित है और कौन संक्रमित नही। मास्क ज़रूरी है ये सभी जानते तो है मगर समझने में अभी वक्त लग रहा है। शमशान पर लाशो की लाइन के साथ वेटिंग चल रही है तो कब्रस्तान का भी कुछ कम बुरा हाल नही है। इन सबके बीच अस्पताल कोरोना संक्रमितो के लिए एक सुनहरा सपना जैसा ही नज़र आ रहा है। बेशक वाराणसी के जिलाधिकारी और स्वास्थ्य कर्मी जमकर पसीने बहा रहे है। मगर सिमित संसाधनों के साथ कैसे पूरी सुविधा प्रदान किया जा सकता है आप खुद सोचे।

हम इस मेहनत को समझते है। जब मेरे व्हाट्सअप सन्देश को प्रभारी मुख्य चिकित्साधिकारी ए के सिंह सुबह 4:30 पर देख लेते है और मेरी उनसे फोन पर बात रात 10:30 पर एक खबर के मुताल्लिक हुई थी। आप उस मेहनत को समझ सकते है कि महज़ तीन चार घंटे की नींद से ही काम चला रहे ये अधिकारी कितने फिक्रमंद है। मगर जनता की असली फिक्र है कोरोना संक्रमण का बढ़ता मामला और शमशान तथा कब्रस्तान पर लगी लाइन।

हम नही कहते है कि शमशान और कब्रस्तान तक अपने आखरी सफ़र में आये सभी लोग कोरोना संक्रमित थे। मगर इससे भी इनकार कैसे किया जा सकता है कि उनमे कोरोना संक्रमित लोग नहीं थे। शव जो शमशान पहुच रहे है अथवा जो मय्यत कब्रस्तान पहुच रही है उनमे सभी कोरोना से मरे ऐसा नही है। मगर इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि कोरोना से उनमे कोई नही मरे। क्योकि मौत तो घरो में भी हो रही है। सर्दी, खासी ज़ुकाम से दो तीन दिन परेशान लोग झोला छाप डाक्टरों के शरण में पहचते है और झोला छाप 50 रुपया की दवा थमा कर उनको ठीक करने का दावा करते है और महज़ एक दो दिनों में अचानक सांस फूलने की दिक्कत से लोगो का देहांत हो गया ऐसी खबरे लगभग रोज़ और हर एक मोहल्ले से एक दो आ जा रही है।

बड़े निजी चिकित्सालय और चिकित्सक बिना कोरोना जाँच की निगेटिव रिपोर्ट के मरीज़ देखने को तैयार नही है। मरीज़ को देखना तो दूर वो मिलते ही नही है। अब किसी को अचानक चिकित्सीय सहायता की आवश्यकता पड़ जाती है तो उसको चिकित्सक की सहायता तुरंत नही मिलेगी बल्कि तीन से चार दिन वो कोरोना टेस्ट रिपोर्ट का इंतज़ार करे फिर मिलेगी। वरना तब तक स्वर्ग का रास्ता खुला हुआ है। आपको उसके लिए किसी वाहन की ज़रूरत नहीं है।

आज ऐसी ही एक घटना घटी। वाराणसी के नदेसर इलाके में रहने वाली एक महिला को दो दिनों से सर्दी खासी की शिकायत थी, आज सुबह अचानक उनको साँस लेने में दिक्कत होने लगी। परिजनों ने पहले तो एम्बुलेंस का इंतज़ाम करने की जुगत लगाईं जब नही मिल पाई तो खुद की गाडी से लेकर इस अस्पताल से उस अस्पताल का चक्कर काटते रहे। उस महिला की बहन सोशल मीडिया पर लोगो से मदद की भीख मांगती रही। कोई अस्पताल पेशेंट को एडमिट करने की बात तो दूर रही देखने तक को तैयार नही था। बनारस के नामचीन अस्पतालो का उन परिजनों ने चक्कर काट लिया था। घड़ी दोपहर का 11 बजा चुकी थी। सुबह 9 बजे के बाद से लेकर दो घंटे तक परिजन महिला को लेकर परेशान थे। उसकी बहन मदद की गुहार सोशल मीडिया में व्हाट्सएप के एक ग्रुप में लगा रही थी। मगर कोई मदद नही मिली। हमको जब तक जानकारी होती तब तक महिला ने इस दुनिया को रुखसत कह दिया।

बड़े नामो का अमानवीय चेहरा आया सामने

एक महिला मदद के लिए सोशल साईट पर भीख मांग रही थी। इत्तिफाक की बात है कि मैं सुबह 9 बजे तक जाग रहा था और उसके बाद मुझको नींद आ गई थी। उस समूह का हिस्सा मैं भी हु। मेरे एक शिष्य ने मुझको काल करके घटना की जानकारी दिया। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मगर इस पुरे घटना में खुद को समाजसेवक कहने वालो के अमानवीय चेहरे सामने आ गए। उस समूह में शहर के कई नामचीन पत्रकार है तो वही कई बड़े नाम समाजसेवा के भी जुड़े थे। एक बड़े सियासी घराने के लोग भी थे और एक विधायक के प्रतिनिधि भी थे। सब मिला कर समूह में लगभग 100 लोग ऐसे थे जिनका एक फोन किसी की मदद के लिए काफी होता। इत्तेफाक से मैसेज ये सभी नामचीन सियासत के घरानों से लेकर समाजसेवक और गौरक्षक तक पढ़ रहे थे। मगर कोई उनकी मदद को सामने नहीं आया। किसी ने एक फोन तक हिलाने की ज़हमत नही उठाई। शायद वह इंसान को आकड़ो में तब्दील होते देना चाहते थे।

पत्रकार तो खैर इस सिस्टम का एक हिस्सा मात्र है, मगर जो हमारे सेवा का दम्भ भरते है वो भी खामोश थे। हमने पहले भी कहा है कि हम मात्र एक संख्या है। जब तक जीवित है एक वोट है और जब मर जाते है तो एक आकड़ा है। कम से कम इस बात को समझने का वक्त तो आ चूका है। मगर हम है कि समझने को तैयार ही नहीं है। हम कभी किसी के समर्थन में अपना जी जान लगा देते है कभी किसी के। शायद ऐसे ही माहोल के लिए दुष्यंत ने एक बहुत प्यारा सा शेर अर्ज़ किया है कि “अपने रहनुमाओं की अदा पर फ़िदा है दुनिया, इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो।” हम जानते है सत्ता पक्ष इसपर खामोश रहेगा और विपक्ष इस पर सवालिया निशान सत्ता और प्रशासन पर उठाएगा।

मगर आप हकीकत देखे। उससे रूबरू हो। हकीकत ये है कि प्रशासन एक एक गली में और एक एक फोन पर नही उपलब्ध हो सकता है। उसको स्टाफ की कमी भी है। पंचायत चुनाव सत्ता नही करवा रही है। अदालत के आदेश पर हो रहा है। शायद वो भी ज़रूरी है। अब उस चुनाव को सकुशल संपन्न करवाने के लिए स्टाफ भी ज़रूरी होता है। स्टाफ वहा भी लगा हुआ है। कर्मचारियों की कमी भी है। रोज़ दो हज़ार के करीब संक्रमित मिल रहे है। प्रशासन उनके कांटेक्ट ट्रेसिंग में जूझ रही है। फिर आखिर हम क्या एक दुसरे की मदद नही कर सकते है। आखिर कब तक हम आसरे पर रहेगे। सोचियेगा आखिर ज़िम्मेदारी किसकी होगी ?

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