फैशन की तरह होते जा रहे मीडिया को गाली देने पर तारिक़ आज़मी की मोरबतियाँ – ज़रा सोचे क्या अधिकार है ऐसे गालियाँ देने का, खोल ले खुद का मीडिया हाउस….!

तारिक़ आज़मी

कल मुख़्तार अंसारी को पंजाब के रोपड़ जेल से उत्तर प्रदेश की बांदा जेल में शिफ्ट किया जा रहा था। शिफ्टिंग का काफिला तडके 4:30 के लगभग बांदा पंहुचा। शायद मुख़्तार और उसके साथ चल रहे पुलिस बल को इतनी थकान नही आई होगी जितनी थकान कल मीडिया को आई थी। ख़ास तौर पर खुद का मीडिया हाउस चलाने वाले छोटे और मझोले लोगो को जो खबरों को ब्रेक करने का जज्बा लिए खुद नज़रे गडाये बैठे थे। मुख़्तार अंसारी के सम्बन्ध में मिली जानकारी के अनुसार मुख़्तार तो 4:58 मिनट के लगभग अपने लिए अरक्षित बैरेक नम्बर 15 में जाकर सो गया होगा, मगर मीडिया सुबह 6 बजे के बाद ही सोने की सोच सकती थी।

फोटो साभार google image

बहरहाल, अमूमन इतने व्यस्तता के बाद मुझ जैसे छोटे मीडिया हाउस के संचालको के लिए भी सुबह 6 बजे के बाद आने वाली नींद बेहद थकान भरी तो थी ही। सोकर जब 10 बजे के लगभग उठा तो रोज़मर्रा मामूर के हिसाब से खुद का सोशल मीडिया अकाउंट चेक किया। मैं ऐसा इस लिए करता हु कि सुबह के बाद फिर देर रात ही चेक कर पाता हु। थोडा दोस्तों के व्हाट्सएप स्टेटस को देख कर मनोरंजन भी हो जाता है। कोई इश्क के गम का मारा टूटे दिल का गाना लगाये रहता है, तो कोई बेहतरीन मोटिवेशनल पोस्ट लगाये रहता है।

व्हाट्सएप स्टेटस खोलते के साथ ही सामने मेरे एक नम्बर आया। ये नम्बर एक खुद को सोशल एक्टिविस्ट कहने वाले सज्जन का था। कुछ खबरों के मुताल्लिक उनका नम्बर सेव कर रखा था। स्टेटस पर उनके मुख़्तार अंसारी की तारीफों के पुल बंधे थे। कही उनको शेर बताया जा रहा था तो कही उनको किंगकोंग जैसा बलशाली बताया जा रहा था। एक तो ऐसी पोस्ट थी कि जैसे लग रहा था कि मुख़्तार अंसारी बाहुबली विधायक और अर्धशतक के करीब विचाराधीन अपराधिक मामले में आरोपी नही बल्कि कोई रोबिन हुड है। इनको पढ़कर आपको सिर्फ एक कुटिल मुस्कान ही आएगी क्योकि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी सबको है। आप जिसको चाहे पसंद कर ले। जिसको चाहे नापसंद कर ले। कोई रोक टोक तो है नही। अब इसी देश में चार्ल्स शोभराज को की भी दिलो में चाहत रखने वाले लोग है। उनको क्या आप मना कर सकते है।

बहरहाल, इसमें एक पोस्ट मीडिया को पेट भर के गरियाते हुवे थे। उनका पोस्ट के माध्यम से सवाल था कि आखिर मीडिया मुख़्तार का पल पल की जानकारी क्यों रख रही थी। क्यों भाई आपको अभिव्यक्ति की आज़ादी है तो क्या हमको काम करने की आजादी नही है। पोस्ट पढ़ कर गुस्सा आया। मगर तभी हमारी नज़र एक और मेरे मित्र के पोस्ट पर पड़ी जिसमे वो भी मीडिया को निष्पक्ष न होने पर गरिया रहे थे। ये लोकतंत्र की थोडा 100 ग्राम अधिक आज़ादी थी। ऐसे लोगो को पढ़कर सुबह सुबह मूड ख़राब हो गया और तुरंत एक बार फिर एक घंटे सोने का प्लान बना ही रहा था कि काका टपक पड़े नींद के दरोगा बनकर।

काका ने आते ही कहा कि “का बबुआ बड़ी जल्दी उठ गए। हम तो सोचा रहा कि 12 बजे के पहले न उठिहो।” हमने कहा यार काका, घर ले लो, दूकान लेलो, ज़मीन ले लो, मकान ले लो, मगर भी पकाओ मत काका। बहुत मूड आफ है। बस फिर का रहा काका सनक गए, बोले “अरे पत्रकार होईबे केहू और के खातिर हमरे बदे हमरा लड़का हो तुम। का भया हमके भी बता न।” तो हमने काका को वो सभी पोस्ट दिखा दिया जिसमे सीधे मीडिया को गाली दिया जा रहा था। काका बोले तो इम्मे तुम्हारा नामा है का, तो मैंने कहा कि पुरे मीडिया को गली पड़ी तो मैं क्या स्पेशल रजा के आया हु क्या ? काका बोले अरे बबुआ, गेहू के साथै घुन भी पिसा जाला तनिक ई त सोच।

काका ने थोडा हमको समझाया तो हम भी थोडा आई गई के चक्कर में पड़ गये। छोडो, मगर सवाल ये उठता है कि बेशक पत्रकारिता अपनी ज़मीन खो रही है। एक पक्षीय समाचारों के माध्यम से मीडिया आलोचनाओं के निशाने पर है। मगर इसके लिए आप या फिर कोई भी सभी को दोषी तो नही ठहरा सकते है। फिर सबको एक साथ बोलने का मतलब क्या होता है ? माना कि लोकतंत्र के इस चौथे कथित स्तम्भ में घुन लगी ईंटे भी है। मगर इसकी नेह बहुत मजबूत है। हमने कथित चौथे स्तम्भ शब्द का प्रयोग इस कारण किया कि संविधान में कही इस चौथे स्तम्भ की बात नही किया गया है। तीन स्तम्भ कार्यपालिका, नयायपालिका और विधायिका का ज़िक्र संविधान में है।

वैसे हमको इसका कोई फर्क पड़ता भी नही है क्योकि संविधान के प्रस्तावना का पहला शब्द “हम भारत के लोग” सभी को अपने दमन में समेट लेता है। खैर, हम मुद्दे पर ही रहते है। हमने माना कि पत्रकारिता अपने विश्वास को खो रही है। चंद मुट्ठी भर लोगो के कारण ये समाज को आइना दिखाने वाला वर्ग हाशिये पर आता जा रहा है। मीडिया को गाली देना फैशन बनता जा रहा है। मगर हमने भी काका को कह दिया कि काका मीडिया हाउस के लिए शब्द प्रयोग में हो तो समझ में आ जायेगा, मगर ये शब्द अगर मीडिया पर प्रयोग होता है तो वो समझ के परे है।

भाई एक पत्रकार को उसके मीडिया हाउस का मालिक किसी राजनैतिक पार्टी की कवरेज करने को कहता है जबकि वही एक अन्य तरफ एक सामाजिक संस्था कुछ लोगो भला कर रही होती है तो पत्रकार की नज़र केवल उसको सहेजे हुवे काम पर ही रहती है। अब रही बात पत्रकार उस खबर को क्यों नही उठा रहा है। तो भाई उस पत्रकार का भी घर परिवार है। उसके भी बाल बच्चे है। कहा से पल रहे है कभी सोचा है। उसके मीडिया हाउस से मिल रही तनख्वाह पर अथवा कमीशन पर। तो जो मालिक तनख्वाह देता है उसके बताये अनुसार काम करेगा कि आपके बताये अनुसार काम करे।

अब रही मीडिया हाउस की बात तो गुरु, एक काम करो, एक मीडिया हाउस के मालिक से जाकर पूछो कि कैसे चल रहा है मीडिया हाउस। कैसे लोगो की तनख्वाह निकल रही है। कैसे समाचारों का प्रकाशन हो रहा है। फिर उसका दर्द समझो कि बिना फंडिंग के मीडिया हाउस चलाना कितना मुश्किल होता है। आपको क्या है आप ज्ञान दे बैठेगे। तो एक काम करो न, मीडिया को गाली देने का इतना ही शौक है तो खुद का एक मीडिया हाउस खोल लो। फिर अपने अनुसार क्रांति लाओ और फिर गाली दो। बड़े शौक से गाली दे साहब कौन रोकेगा फिर आपको।

अब आप कहेगे कि पत्रकरिता एक मिशन है तो भाई बात तो ये भी सही है कि पत्रकारिता कोई पेशा नही बल्कि मिशन है। मगर मिशन पर निकले हुवे शख्स का भी परिवार है। उसके भी खर्चे है। उसकी भी ज़रूरते है। वो क्या मिशन खाकर जियेगा। क्या वो बनिया की दूकान पर जाकर कहेगा कि 20 किलो मिशन का आटा दे देना और 10 किलो मिशन का चावल दे देना। सबसे बड़ी बात अगर आप मिशन की बात करते हो तो एक काम करो न खुद इस मिशन को ज्वाइन कर लो न भाई। फिर क्रांति लाओ।

काका हमारी बात सुनकर भक्का होकर हमको निहार रहे थे। बोले अरे बबुआ बतिया तो तू ठीके कह रहा है। तनी मनी डिफ़रेंस हो सकता है। मगर बात में तो दम है बेटवा तोहार। हमने देखा काका को और फिर टपाक से 2 डायलाग और धर दिया। हमने कहा काका लोग से कहो जब तो कहते है कि हम दुसरे काम में व्यस्त है। तो भाई जब दुसरे काम में व्यस्त हो तो रहो न, अपना काम करो न, दुसरे के काम को न समझाओ कि उसको क्या करना है क्या नहीं करना है। काका क्रांतिकारी सबको चाहिए होता है अपने मोहल्ले में। एक भगत सिंह, एक सुभाष चन्द्र बोस, एक अशफाकुल्लाह खान मगर इनमे से कोई क्रन्तिकारी अपने घर में नही चाहिए होता है। सब पडोसी के घर में रहे मगर मोहल्ले में क्रांति लाये।

काका हमारा मूड समझ गए थे। चाय काका की खत्म हो गई थी और काका धीरे से सरक लिए कि कही दो चार और भी नाना स्टाइल का डायलाग न मार दे कि क्रांति लाने के लिए केवल कोरा ज्ञान देना और पिछवाड़े पर बैठ कर बात करना ही काफी नही है। उसके लिए खुद नेतृत्व करना होता है। अब बात हमारी किसी को बुरी लगी हो तो भाई मत पढो न, कोई जोर ज़बरदस्ती तो है नही कि पढो ही मोरबतियाँ। मगर मीडिया को गाली देना फैशन न बनाओ बल्कि ढेर शौक है क्रांति लाओ और खुद का एक मीडिया हाउस खोल लो। वरना तब तक शांति के साथ बैठो और पढो तारिक आज़मी की मोरबतियाँ। कहते है कहा अक्सर आज भी कि “बतिया है कर्तुतिया नाही।” अब ठीक है गुड नाईट।

नोट – यह लेख लोकतंत्र की अभिव्यक्ति के आधार पर लिखा गया गया है। जिस प्रकार लोकतंत्र की अभिव्यक्ति की आज़ादी को आधार मान कर आप मीडिया को गाली देते है वैसे ही हम उस अभिव्यक्ति के आधार पर आपके सोच पर अपनी बात रख रहे है। हम इस लेख में उस पत्रकारिता का भी विरोध करते है जो किसी प्रदेश में होने वाले 8 चरणों के चुनाव में केवल 3 चरण के मतदान के बाद किसी एक दल को हारा और दुसरे अपने पसंदीदा दल को जीता घोषित कर दे रहा है। क्योकि ऐसी ही पत्रकारिता आज निष्पक्ष पत्रकारों को भी चंद शब्द कडवे सुनने को मजबूर कर देती है।

हमारी निष्पक्ष पत्रकारिता को कॉर्पोरेट के दबाव से मुक्त रखने के लिए आप आर्थिक सहयोग यदि करना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें


Welcome to the emerging digital Banaras First : Omni Chanel-E Commerce Sale पापा हैं तो होइए जायेगा..

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *