अकबर इलाहाबादी की 100वी पुण्य तिथि पर बोल शाहीन के लब आज़ाद है तेरे : मिरी मज़ार पर गुल है न सब्ज़ चादर है, चराग भी है तो वो भी जले जलाये हुवे

शाहीन बनारसी संग तारिक़ खान

आज अकबर इलाहाबादी को इस दुनिया-ए-फानी से रुखसत हुवे पुरे 100 बरस गुज़र चुके है। अकबर के समकालीन अब कोई भी इस दुनिया में नही होगा। अकबर इलाहाबादी को जानने की हमारी तलब आज सुबह सुबह हमको इलाहाबाद लेकर चली गई। जहा हमारा सहयोग करने के लिए स्थानीय हमारे ब्यूरो चीफ तारिक़ साहब मौजूद थे और अपने बेशकीमती वक्त में से हमको आधा दिन ही उन्होंने दे डाला। हम अकबर की यादो का अहसास जुटाने के लये आज इलाहबाद आये है। अकबर के इस पुण्यतिथि पर हम देखना चाहते थे कि अकबर के नाम को समझने वाले क्या लोग अभी भी इलाहाबाद में है। हम समझना चाहते थे कि अकबर की अज़मत को समझने वाले क्या इलाहाबाद में आज भी है ?

अकबर इलाहाबादी का जन्म 16 नवंबर 1846 को इलाहाबाद में हुआ था। अकबर अदालत में एक छोटे मुलाजिम थे, मगर उन्होंने अपने ज़िन्दगी के जद्दोजेहद का सफ़र रोका नहीं बल्कि तालीम हासिल करते हुवे कानून का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया और बाद में वह सेशन जज बने और इसी पद से रिटायर हुए। अकबर एक शानदार, तर्कशील, मिलनसार आदमी थे। और उनकी कविता हास्य की एक उल्लेखनीय भावना के साथ कविता की पहचान थी। वो चाहे गजल, नजम, रुबाई या क़ित हो उनका अपना ही एक अलग अन्दाज़ था। वह एक समाज सुधारक थे और उनके सुधारवादी उत्साह बुद्धि और हास्य के माध्यम से काम किया था। शायद ही जीवन का कोई पहलू है जो उन्के व्यंग्य की निगाहों से बच गया था।

हकीकत के रूबरू देखा जाए तो क्या खूब कहा था अकबर इलाहबादी ने कि “कुछ इलाहाबाद में सामां नहीं बहबूद के, यां धरा क्या है ब-जुज़ अकबर के और अमरूद के” कहने वाले नामवर शायर अकबर इलाहाबादी को क्या मालूम था कि जो शहर कभी उनके नाम से जाना जाता था, जिसकी चिट्ठियों में पते की जगह सिर्फ अकबर इलाहाबादी लिखा होता था, उसके इस दुनिया से रुखसत होने के बाद कोई निशानी बाकी नहीं रहेगी। आज उनके इस दुनिया-ए-फानी से रुखसत हुवे पुरे 100 बरस गुज़र गए है। निशाँ के तौर पर सिर्फ अगर कुछ बचा है तो सिर्फ अकबर की एक कब्र जिसके शब्-ए-बारात पर कब्रिस्तान कमेटी वाले रंग-ओ-रोगन करवा देते है और आने वाले कुछ जायरीन उस शब एक चराग रोशन कर देते है, या फिर उनकी वो हवेली जहा अब एक स्कूल है और बच्चे तालीम हासिल करते है। किसी अजनबी शायर का एक कलाम हमको अकबर इलाहाबादी की कब्र को देख कर याद आया कि “मेरी मजार पर गुल है, न सब्ज़ चादर है, चराग भी है तो वो भी जले जलाए हुवे।”

तकरीबन 75 बरस की उम्र में इलाहाबाद में ही 9 सितंबर, 1921 को उन्होंने इस फानी दुनिया को अलविदा कह दिया था। आज उन्हें दुनिया से रुखसत हुए पूरे सौ बरस बीत गए लेकिन उनकी शायरी और शख्सियत आज भी उसी तरह बुलंद है। वैसे तो अकबर से रिश्ता जोड़ने वाले जाने कितने हैं लेकिन खूनी रिश्ते से वारिसों का कोई नामोनिशां न होने से अकबर इलाहाबादी अपने ही शहर में तकरीबन बेगाने से  गए हैं। मोतीलाल नेहरू के अज़ीज़ दोस्तों में एक अकबर इलाहाबादी के कलाम सुनकर भले लोग झूम जाते है, मगर आज हमको उनकी काला डांडा कब्रिस्तान स्थित कब्र पर कुर’आन ख्वानी होती नही दिखी। मैं अपने कल के इलाहाबाद और आज के प्रयागराज से सहयोगी तारिक़ खान साहब के साथ अकबर साहब की कब्र के दीदार करने गई थी। हमने आज जुमेरात होने के वजह से पास मिल रहे फुल में चंद गुल अकबर साहब की कब्र पर रखा तो ऐसा अहसास हुआ जैसे अकबर साहब ने एक प्यारी सी मुस्कराहट के साथ हमको शुक्रिया कहा हो इस तोहफे के लिए।

आपका सवाल लाज़िम है कि इलाहाबाद की शान अकबर के नहीं रहने पर उनसे जुड़ी चीजें कहा गम हो गई, हमने भी इस सवाल की तलाश करना चाहा, मगर हमको जवाब एक बुज़ुर्ग ने दो लफ्जों में सिर्फ दे दिया कि “जिसके हाथो जो लगा वो लेकर चला गया बेटी, यहां तक कि लोग चिट्ठियां तक साथ ले गए। शहर में सिर्फ अकबर की यादों को छोड़ दिया है, जो हमारे आपके दिलो में महफूज़ है तभी तो आप अकबर को तलाशते हुवे बनारस से 125 किलोमीटर का सफ़र तय करके यहाँ तक आ गई है। बाकियां निशानियो से सिर्फ दो चीज़े है जिसमे एक अपनी यादो को सजाये हुवे उनकी हवेली इशरत मंजिल जो रानी मंडी में है, और वहा अब यादगार-ए-हुसैन इंटर कॉलेज है। दूसरी वो कब्र जहा सुकून की नींद अकबर सो रहे है।” दादा जी की आँखों में नमी थी। शायद वह भी अकबर मियाँ से मुलकात करने आये थे। एक ज़ईफ़ मगर खुद के कदमो से छड़ी के सहारे चलने वाले पढ़े लिखे दिखे दादा जी हमारे सर अपनी दुआओं का हाथ रखते हुवे अकबर की आरामगाह की तरफ कदम बढ़ा चुके थे। हम उनके लफ्जों के बीच ही खोये रह गए थे और ख़ामोशी के साथ अपनी गाडी की तरफ बढ़ गए। बेशक ये मिटटी है साहब जो सबको एक बराबर कर देती है। अकबर जो इस दुनिया-ए-फानी को अब से 100 बरस पहले रुखसत कर चुके है उनके कौल आज भी हयात में है।

हालांकि ऐसा नहीं कि अकबर लावल्द थे और उनको कोई औलाद नही थी। अकबर की पहली पत्नी के गुजरने के बाद अकबर ने दूसरी शादी अपने दो मासूम बच्चो की खातिर किया था। उनकी पहली पत्नी से दो संतान थी और दूसरी से भी दो संतान थी। उनके जीवित रहते ही एक बेटे का निधन हो गया था जबकि बाकी बेटे पढ़ने के लिए विदेश चले गए और वहीं के होकर रह गए। देश के बंटवारे के वक्त बेटी के ससुराली पाकिस्तान जा बसे, तो बिटिया भी उनके साथ पाकिस्तान की हो गई। जाने से पहले उन्होंने किसी करीबी रिश्तेदार को कोठी में बसा दिया था। वक्त के साथ कई बार करवट लेती हुई यह कोठी आज तालीम का मरकज़ बनी हुई है। वक्त के साथ अकबर की कोठी में कई तरह की तब्दीलियां हो चुकी हैं। बुजुर्ग बताते हैं, कभी जीटी रोड स्थित अफसर लिफाफा सेंटर के बगल से कोठी का रास्ता था, जो वक्त के साथ बदल गया और अब मुख्य दरवाजा रानीमंडी की ओर खुलता है। अकबर के नहीं रहने पर उनके तमाम चाहने वालों ने अकबर मेमोरियल सोसाइटी का गठन करके इसी कोठी में वर्ष 1948 में पुस्तकालय की स्थापना किया था, लेकिन माहौल अच्छा न होने से पुस्तकालय खुलता, बंद होता रहा।

एक इलाके के बुज़ुर्ग ने बताया कि रानीमंडी में नवाब नन्हें खां की कोठी में इमामिया जूनियर हाईस्कूल चलता था। हजरत इमाम हुसैन की 1300वीं पुण्यतिथि पर वर्ष 1942 में यहां भी शिया इंटर कॉलेज खोलने का प्रस्ताव पारित किया गया। वर्ष 1949 में इमामिया को हाईस्कूल की मान्यता मिली। तब मौलाना कल्बे अब्बास कमेटी के अध्यक्ष थे, जिनकी सरपरस्ती में कक्षा आठ के छात्र हाशिम रजा आब्दी के नेतृत्व में बस्ता लेकर छात्र 1949 में आनंद भवन में नेहरू जी से मिले और गुहार लगाई, कि चाचा जी स्कूल चाहिए। मांग की गई कि अकबर मेमोरियल लाइब्रेरी स्कूल के नाम कर दी जाए। पंडित नेहरू ने यह प्रस्ताव तत्कालीन शिक्षा मंत्री अबुल कलाम आजाद को दिया। उन्होंने शिक्षा सचिव प्रो0 हुमांयू कबीर को इसकी जांच की जिम्मेदारी सौंपी। प्रो0 हुमांयू ने रिपोर्ट में कहा, सोसाइटी अप्रभावी है और बच्चों को स्कूल की जरूरत है। फिर भवन का मूल्यांकन करके इसकी कीमत 52 हजार रुपये तय की गई, जिसे एक वर्ष के भीतर चार समान किस्तों में अदा करना था। लेकिन, यह रकम उस जमाने में बहुत ज्यादा थी। लोगो ने चंदे इकठ्ठा करना शुरू किया और बाद नमाज़-ए-जुमा चंदे इकठ्ठा होने लगे। चंदे के लिए लोग घर-घर जाकर भी रकम जुटा रहे थे और आखिर वो वक्त आया जब रकम अदा कर दी गई। तब इशरत मंजिल, यादगारे सोसाइटी के नाम से हस्तांरित कर दी गई। वर्ष 1953 में यह स्कूल में तब्दील हो गया।

क्या है इशरत मंजिल के मायने और कैसे पड़ा आनंद भवन का नाम

अकबर इलाहाबादी और मोतीलाल नेहरू बहुत अच्छे दोस्त थे। अपने इलाहाबाद रिहाईश के दरमियान मोतीलाल नेहरू का ज्यादा वक्त अकबर मियाँ के साथ बीतता था। इस दरमियान मोतीलाल नेहरू ने वह संपत्ति खरीदा जहा आज आनन्द भवन है। इस भवन के नाम के लिए मोतीलाल नेहरू ने इशरत मंजिल जैसा नाम रखने के लिए अकबर इलाहबादी से कहा कि ऐसा नाम बताये जो इशरत मंजिल के मायने हो। इशरत उर्दू लफ्ज़ है और इसका मायने ख़ुशी से होता है। हिंदी में लफ्ज़ आनन्द कहा जाता है। मंजिल का मायने यहाँ भवन से होगा, तब अकबर ने कहा था, मेरी इशरत मंजिल का तर्जुमा कर दें, जिसका अर्थ होगा, ऐसा भवन जहां आनंद हो, और मोती लाल नेहरू को नाम मिल गया, आनंद भवन।

लेखिका शाहीन बनारसी एक युवा पत्रकार है

अकबर इलाहाबादी की कई गजले उनके गुज़रने के बाद फिल्मो में नाम और शोहरत कमा बैठी है। इसमें एक मशहूर ग़ज़ल “हंगामा है क्यू बरपा, थोड़ी सी जो पी ली है, डाका तो नही डाला, चोरी तो नही की है।” इस ग़ज़ल को काफी गायकों ने अपने आवाज़ में गया और इस ग़ज़ल की खूबसूरती ही है कि सभी ने शोहरत हासिल किया भले वो बड़े गुलाम साहब हो या छोटे, या फिर नुसरत मिया हो। मौसिकी की ऊँचे पायदान की इस ग़ज़ल ने सभी को शोहरत दिया।

अकबर ने अपनी एक ग़ज़ल में अर्ज़ किया है “कोई हँस रहा है कोई रो रहा है, कोई पा रहा है,कोई खो रहा है, कोई ताक में है, किसी को है गफ़लत, कोई जागता है कोई सो रहा है, कहीँ नाउम्मीदी ने बिजली गिराई, कोई बीज उम्मीद के बो रहा है, इसी सोच में मैं तो रहता हूँ ‘अकबर’, यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है।”

वो कलाम जिसने अकबर के लफ्जों को कर दिया अमर

हैं गश में शेख देख के हुस्ने-मिस-फिरंग
बच भी गये तो होश उन्हें आएगा देर में

दिल मेरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला,
बुत के बंदे तो मिले अल्लाह का बंदा न मिला।
बज़्म-ए-याराँ से फिरी बाद-ए-बहारी मायूस,
एक सर भी उसे आमादा-ए-सौदा न मिला,

सय्यद उठे तो गज़ट ले के तो लाखों लाए,
शेख़ क़ुरान दिखाता फिरा पैसा न मिला।

दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ,
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ।

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी,
हर चंद कि हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ।

इस ख़ाना-ए-हस्त से गुज़र जाऊँगा बेलौस,
साया हूँ फ़क़्त, नक़्श बेदीवार नहीं हूँ।

अफ़सुर्दा हूँ इबारत से, दवा की नहीं हाजित,
गम़ का मुझे ये जो’फ़ है, बीमार नहीं हूँ।

वो गुल हूँ ख़िज़ां ने जिसे बरबाद किया है,
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ।

यारब मुझे महफ़ूज़ रख उस बुत के सितम से,
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ।

अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ की कुछ हद नहीं “अकबर”,
क़ाफ़िर के मुक़ाबिल में भी दींदार नहीं हूँ।

समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का,
‘अकबर’ ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का।

गर शैख़-ओ-बहरमन सुनें अफ़साना किसी का,
माबद न रहे काबा-ओ-बुतख़ाना किसी का।

अल्लाह ने दी है जो तुम्हे चाँद-सी सूरत,
रौशन भी करो जाके सियहख़ाना किसी का।

अश्क आँखों में आ जाएँ एवज़ नींद के साहब
ऐसा भी किसी शब सुनो अफ़साना किसी का

इशरत जो नहीं आती मेरे दिल में, न आए
हसरत ही से आबाद है वीराना किसी का

करने जो नहीं देते बयां हालत-ए-दिल को
सुनिएगा लब-ए-ग़ौर से अफ़साना किसी का

कोई न हुआ रूह का साथी दम-ए-आख़िर
काम आया न इस वक़्त में याराना किसी का

हम जान से बेज़ार रहा करते हैं ‘अकबर’
जब से दिल-ए-बेताब है दीवाना किसी का

आँखें मुझे तल्वों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते

ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते

किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते

परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते

हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते

दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते

गर्मी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माने
पंखा नफ़स-ए-सर्द का झलने नहीं देते

उन्हें शौक़-ए-इबादत भी है और गाने की आदत भी
निकलती हैं दुआऐं उनके मुंह से ठुमरियाँ होकर

तअल्लुक़ आशिक़-ओ-माशूक़ का तो लुत्फ़ रखता था
मज़े अब वो कहाँ बाक़ी रहे बीबी मियाँ होकर

एक बूढ़ा नहीफ़-ओ-खस्ता दराज़
इक ज़रूरत से जाता था बाज़ार
ज़ोफ-ए-पीरी से खम हुई थी कमर
राह बेचारा चलता था रुक कर

अंग्रेजो की सरकार पर क्या खूब अकबर इलाहाबादी ने तंज़ क्या था और लिखा था

मुंशी कि क्लर्क या ज़मींदार
लाज़िम है कलेक्टरी का दीदार

हंगामा ये वोट का फ़क़त है
मतलूब हरेक से दस्तख़त है

हर सिम्त मची हुई है हलचल
हर दर पे शोर है कि चल-चल

टमटम हों कि गाड़ियां कि मोटर
जिस पर देको, लदे हैं वोटर

शाही वो है या पयंबरी है
आखिर क्या शै ये मेंबरी है

नेटिव है नमूद ही का मुहताज
कौंसिल तो उनकी हि जिनका है राज

कहते जाते हैं, या इलाही
सोशल हालत की है तबाही

हम लोग जो इसमें फंस रहे हैं
अगियार भी दिल में हंस रहे हैं

दरअसल न दीन है न दुनिया
पिंजरे में फुदक रही है मुनिया

स्कीम का झूलना वो झूलें
लेकिन ये क्यों अपनी राह भूलें

क़ौम के दिल में खोट है पैदा
अच्छे अच्छे हैं वोट के शैदा

क्यो नहीं पड़ता अक्ल का साया
इसको समझें फ़र्जे-किफ़ाया

भाई-भाई में हाथापाई
सेल्फ़ गवर्नमेंट आगे आई

पाँव का होश अब फ़िक्र न सर की
वोट की धुन में बन गए फिरकी

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