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उर्दू अदब के अज़ीम-ओ-शान शायर जॉन एलिया की बरसी (पुण्यतिथि) पर : वो शायर दर्द बयान करता था, लोग शायरी समझते थे

तारिक़ आज़मी

उर्दू के शायरों में अगर सुपर स्टार का खिताब किसी को दिया जाता होता तो वह नाम बेशक जॉन एलिया होता। जॉन एलिया की बरसी को गुज़रे तीन दिन हो चुके है। 8 नवम्बर 2002 को जॉन इस दुनिया-ए-फानी से रुखसत हो लिए थे। पिछले तीन दिनों से जॉन साहब की याद में चंद कलिमात लिखने की कोशिश कर रहा हूँ। मगर उर्दू अदब के इस अज़ीम शख्सियत के लिए अलफ़ाज़ हमारे बौने साबित हो रहे है। मैं लिखता रहा हु और मिटाता रहा हु। बेशक जॉन एलिया मेरे पसंदीदा शायर है। 20वी सदी के मध्य में जॉन एलिया के बराबरी का उर्दू अदब में कोई शायर नही गुज़रा। मशहूर शायर मजरुह सुल्तान पुरी ने अपने एक खिताब में कहा था कि “जॉन शायरों का शायर है।” शायद ये लफ्ज़ जॉन एलिया की शख्सियत को बयान  करने के लिए काफी है।

जॉन एलिया का जन्म 14 दिसंबर 1931 में अमरोहा के एक आलिम घराने में हुआ था। जॉन एलिया अपने भाई बहनों में सबसे छोटे थे। उनके वालिद अल्लामा शफीक हसन एलिया एक जाने माने आलिम और खगोलशास्त्री थे। जॉन की परवरिश आलिम घराने में होने के वजह से उर्दू अदब जॉन के रगों में बसा हुआ था। जॉन ने अपनी पहली नज़्म 8 बरस की उम्र में पढ़ी थी। 1947 में भारत पकिस्तान बटवारे के जॉन सख्त मुखालिफ थे। वह चाहते थे कि मुल्को की सरहदे न खीचे। हालात के मद्देनज़र जॉन एलिया 1957 में आखिर पाकिस्तान चले गए और वहा के करांची शहर में आबाद हो गये।

जॉन करांची जाने के बाद एक रिसाले के लिए काम करने लगे। जहाँ उनकी मुलकात हिना जाहिद से हुई। हिना भी उर्दू अदब की बेहतरीन लेखिका थी। बाद में जॉन एलिया और हिना ने शादी कर लिया। इस दरमियान उनके तीन बच्चे भी हुए। 2 बेटी और एक बेटा। 1980 के दशक में जॉन एलिया और उनकी शरीक-ए-हयात में अलगाव हो गया। जिसके बाद जॉन ने खुद की ज़िन्दगी को गुमनामी के अँधेरे में ढकेल दिया। जॉन ने इस दरमियान शराब पीना शुरू कर दिया और खुद को बर्बादी के तरफ लेकर चले गए। एक मुशायरे में जॉन ने खुद अपनी जुबां से इस बात को तस्लीम किया था कि 1985 तक वह तबाह हो चुके थे। एक भी मिसरा उन्होंने नही लिखा था। जिसके बाद उनके सबसे करीबी दोस्त सलीम जाफरी उनके पास आते है और उनको दुबारा मुशायरो में शिरकत करने और दुबारा लिखने की सलाह देते है।

जॉन ने उस मुशायरे में बताया था कि सलीम जाफरी ने दो साल तक उनका पीछा नही छोड़ा और उन्हें आखिर दुबारा लिखने को मना ही लिया। जॉन ने इसी मुशायरे में अपना कलाम पढ़ा था कि “बेदिली क्या यु ही दिन गुज़र जायेगे ? सिर्फ जिंदा रहे हम तो मर जायेगे।”

जॉन उठता है यूं कहो या’नी’
‘मीर’-ओ-‘गालिब’ का यार उठता है…।

जॉन एलिया एक ऐसे शायर थे जो इश्क-मोहब्बत की उरूज़-ओ-ज़वाल से होकर गुजरे थे। जॉन की आशिक-माशूक वाली शायरी में बेचारगी के बजाय एक किस्म की बेफिक्री दिखती है, जो इश्क की इबादत करने वाले आशिकों को खूब भाती है। कहा जाता है कि जॉन दर्द पढ़ते थे, लेकिन लोग शायरी समझते थे। जॉन मंच पर लोगो को काफी हंसाते भी थे। एक बेफिक्र और अल्हड मस्ती से भरी ज़िन्दगी गुज़ारने वाले जॉन एलिया हर बार जब वह रोते थे, तो लोग हंसते थे। जॉन एलिया सिगरेट का कश लेते हुवे जो शेर कहते समझो वह कलाम अमर हो जाता। वह ऐसे कलाकारों में शामिल हैं, जिन्होंने मंच पर पेश होने वाले तहजीबो के पुराने ढर्रों को तोड़ डाला था। ऐसा शायर जो अपनी शायरी में खो जाता। शायरी में जॉन का उरूज़ एक फित्ने का उरूज़ था।

लोग कहते हैं कि जॉन को अदब घर से मिला और बेअदबी जमाने से। उनके इस अल्फाजो से उनके दिलो के जज़्बात को समझा जा सकता है कि “मैं फकीरी का शायर हूं, मैं बौना शायर हूं। मैं जो म़ुल्क छोड़कर आया हूं, वहां बहादुर बहुत हैं और बहादुरों के लिए पढ़ना कतई जरूरी नहीं। सलीम जाफरी, जॉन के अजीज दोस्त थे। सलीम की मौत के बाद मानों जॉन पागल ही हो गए। एक मुशायरे में जॉन कहते हैं, मैं सलीम के खिलाफ अर्जियां करता रहा। शराब पीता रहा, धुत रहा। क्यूं? मैं हार चुका हूं। मैं बौना शायर हूं। मेरी बीवी, मेरे बच्चे सब मर गए। मैं तबाह होकर आया हूं और ये मेरा आखिरी मुशायरा है, इसके बाद मैं तबाह होने वाला हूं। तबियत बहुत खराब है, सलीम की आदत पड़ गई थी, जॉन को, लेकिन आज वो नहीं है।

दरअसल, जॉन के तेवर को बगावती तेवर कहा जा सकता है। ऐसा शायर जो शासन के खिलाफ ग़ज़लें कहता, जिसने विभाजन के दर्द को बयां किया। जॉन नास्तिक थे, और साम्यवाद में विश्वास करते थे। वह भारत-पाकिस्तान विभाजन के सख्त खिलाफ थे। उनका मानना था कि अगर इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान बनता तो कम से कम साम्यवादी पार्टी कभी उस मांग का समर्थन नहीं करती। जॉन को उम्मीद थी कि पाकिस्तान एक कम्युनिस्ट क्रांति का गवाह बनेगा, जो एक समतावादी समाज को जन्म देगा। जहां सबके लिए समान अवसर मौजूद होंगे, और लोग औपनिवेशिक शासन काल की पूंजीवादी बेड़ियों से मुक्त होंगे। वामपंथ लाल या सुर्ख रंग को क्रांति का रंग मानता है। जॉन ने भी इस रंग का इस्तेमाल किया, बगावत की बातें कहीं। जॉन ने पाकिस्तान के लिए अर्ज किया कि, “खुश बदन, पैरहन हो सुर्ख तेरा, दिलबरा, बांकपन हो सुर्ख तेरा।” जॉन ने मजदूरों की जिंदगियों के अहम हिस्से का इस्तेमाल इंसान के लिए एक इस्तियारे की तरह किया और ग़ज़ल लिखी-

हार आई है कोई आस मशीन शाम से है
बहुत उदास मशीन यही रिश्तों का कारखाना है
इक मशीन और उसके पास मशीन
एक पुर्जा था वो भी टूट गया,
अब रखा क्या है तेरे पास मशीन

एक खास बात यह भी कि जॉन एलिया ने जब कभी मजदूरों की बात की, तो उन्हें बेचारा नहीं दिखाया, बल्कि मजदूरों को वैसा ही दिखाया जैसे वे हैं, ताकि आवाम को उस हालात का अहसास कराया जा सके। मजदूर, जिनका किसी भी तहज़ीब को स्थापित करने में सबसे बड़ा हाथ है, उनके बारे में जॉन ने दो आवाज‌ नज़्म लिखीं।

हमारे सरकार कह रहे थे ये लोग पागल नहीं तो क्या हैं,
के फर्क ए अफलास ओ जर मिटा कर निजाम ए फितरत से लड़ रहे हैं
निजाम ए दौलत खुदा की नेमत खुदा की नेमत से लड़ रहे हैं
हर इक रिवायत से लड़ रहे हैं, हर इक सदाकत से
मशीयत ए हक से हो के गाफिल खुद अपनी किस्मत से लड़ रहे हैं
हमारे सरकार कह रहे थे अगर सभी मालदार होते
तो फिर जलील ओ हकीर पेशे हर एक को नागवार होते

जॉन एक ऐसे शायर थे जिन्होंने खून थूकने को रोमांचित किया। एक वो बदनाम शायर जिसने मोहब्बत/शरारत में ख़ून थूका। किसी ने उस खून थूकने वाली के बारे में जानना चाहा तो जॉन ने इस तरह एक किस्सा पेश किया- कि “मेरी एक भतीजी की शादी थी, मेरे एक दोस्त के साथ। मेरे एक और दोस्त हैं कमर अजीज, कमाल स्टूडियोज के मैनेजर हैं। तो शादी में, मैं और वो स्टेज पर ही बैठे थे उनके बराबर में। तो ख़्वातीन भी हमें देख रही थीं तो एक लड़की जो स्टूडेंट थी इस्लामिया कॉलेज की, उसने मुझे देखा। मुझे क्या मालूम? फिर उसने मुझे ख़त लिखने शुरू किए, बहुत, बेशुमार शिद्दते चाव से। जैसे पहले जमाने में पूजा जाता था न, जैसे टैगोर को पूजा गया, मीर को या मजाज को, इस तरह से पूजती थी वो। अच्छा किस्सा क्या है? मोहब्बत कोई जबरी शै तो है नहीं। वो आई, मैंने देखा कि वो आई। ख़त तो पहले ही लिख चुकी थी, फोन वगैरह भी। पर मेरे लिए उसके दिल में मुहब्बत नहीं थी। पर चूंकि वो मुझसे मोहब्बत करती थी तो मैंने अख़लाकी तौर पे मोहब्बत की अदाकारी की, कि इसका दिल न टूट जाए। ये जाहिर न हो कि मैं मोहब्बत नहीं करता।

उन्होंने बताया कि “गोया मैं एक्टिंग करता रहा। उसे किसी तरह से इसका अंदाजा हो गया। मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी कि सच्चाई लगे। जो कुछ भी हो, ये मेरे लिए इंसानी मामला था कि यार ये इतना चाहती है मुझे, कहीं इसे ये महसूस न हो कि इसे इसकी मोहब्बत का जवाब नहीं मिला। मैंने मोहब्बत का जवाब मुहब्बत से ही दिया, लेकिन बहरहाल असली मोहब्बत, ड्रामे की मोहब्बत में तो फर्क होता है। जहीन लड़की थी, समझ गई और बीमार रहने लगी। टीबी हो गई। वो जो लिखा है खून थूकती है, मज़ाक थोड़े ही है। मुझे भी टीबी हुई थी। वो फिर ख़त्म हो गई। अब किस किस तरह मैंने खून थूका‌। उसके बाद जितना उसका असर अब तक मेरी रूह में है, उनका असर नहीं है जिनसे वाकई मैंने मुहब्बत की है। मुझे अहसास-ए-जुर्म है। अच्छा आप मोहब्बत ज़बरदस्ती तो कर नहीं सकते। मैं एक काम कर सकता था। मैं ये जाहिर कर सकता था मैं शदीद मोहब्बत करता हूं। मैंने ये जाहिर किया। आप कहते हैं मैंने गलती की। उसने नज़्म भी कही थी, पर मैंने महफूज नहीं रखी वो। कुछ यूं थी-

जॉन तुम्हें ये दौर मुबारक, दूर गम ओ आलाम से हो,
एक लड़की के दिल को दुखाकर अब तो बड़े आराम से हो
एक महकती अंगड़ाई के मुस्तकबिल का खून किया,
तुमने उसका दिल रखा या उसके दिल का खून किया।

एक बार अनवर शूर ने कहा था कि हमें याद नहीं है कि हमने जॉन को कभी किसी चीज के लिए खुश देखा हो।‌‌ शायद, खुशी वास्तव में उनकी चाय का प्याला नहीं थी। जॉन एलिया शायद मुखौटा थे, असली नहीं। उन्होंने जो कुछ भी किया या कहा, वह सिर्फ एक व्यक्तित्व था। वह जानते थे कि लोग दुखवादी होते हैं और वे दूसरे लोगों को पीड़ित देखकर आनंदित होते हैं। तभी अर्ज किया-

क्या तकल्लुफ करें ये कहने में
जो भी खुश है हम उससे जलते हैं।।।

मलिक जादा मंसूर ने जॉन एलिया के बारे में एक बार कहा भी था- “अनुभव की वादियों में इंसान जब तक सीने के बल न चल लें, वो जॉन एलिया नहीं हो सकता” जॉन एलिया का ज़िन्दगी बहुत उलझी हुई और उदास था, शायद वो चाहते भी यही थे। वह अपने अन्दर के खयालो और उदास हालात में इतना शामिल थे कि वह प्रकृति को अल्लाह की रचना को देखने या अल्लाह के अस्तित्व को खोजने के बजाय दुख व्यक्त करने में अधिक समय व्यतीत करते। जॉन ने अर्ज किया –

यूं जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या?

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