हल्द्वानी इंद्रानगर प्रकरण पर तारिक़ आज़मी की मोरबतियाँ: स्कूल है, बैंक है, सड़के है, कालेज भी है, पत्रकारिता धर्म…….! अमा जाने भी दो यारो

तारिक़ आज़मी

हल्द्वानी अचानक सुर्खियों में आ गया। हल्द्वानी की यह चर्चा यहाँ की खूबसूरती और मौसम के खुशनुमा होने की दलील देने ने किये चर्चा में नही आया बल्कि हाई कोर्ट के आदेश पर खाली होने वाली कथित अवैध बस्ती को लेकर आया। ऐसी बस्ती जहा स्कूल भी है, सड़के भी है, कालेज भी है और बैंक तक है। यानी इंसानियत एक खुशनुमा माहोल में सांस ले रही है। मगर पुरे मामले को अगर ध्यान से देखे तो पत्रकारिता और पत्रकारिता धर्म कही नज़र नहीं आया। आखिर ऐसा क्यों ? सामाजिक मुद्दों पर मुखर होकर कलम जो लफ्ज़ बयान करती थी वह अलफ़ाज़ अचानक ख़ामोशी के दफ्तर में कैसे चले गए?

वर्ष 1940 से इस बस्ती की ज़मीने पट्टे पर दिए जाने का दावा करती सोशल मीडिया पोस्ट जिसको नज़रंदाज़ नही किया जा सकता है

दरअसल, पादुका पूजन बड़ी कला है। आदेश हाई कोर्ट का तो कोई सवाल उठाने का प्रश्न ही नही उठता है। मगर दूसरा पक्ष अगर कुछ कह रहा है तो बाते उसकी कितनी सही है इसको जानना भी ज़रूरी है। आपका पसंदीदा चैनल अथवा अख़बार आप उठा कर देख ले, कही किसी कोने में भी उन आवाजों को जगह नही मिल सकी जिनकी तायदाद सैकड़ो में नही बल्कि 50-60 हज़ार के करीब थी। क्या उनकी आवाज़े इतनी मद्धिम थी जो पहुच नही पाई या फिर हमारे कानो में कुछ और आवाज़े तेज़ आ रही थी। वो आवाज़े इतनी ही तेज़ थी जिनके आशियाँ उजड़ने वाले थे कि सुप्रीम कोर्ट ने भी सुना और उनके दर्द को समझा। मगर नही सुन पाए जो कान तो वह पड़ोस की गलियों अथवा सडको पर कलमनवीसी कर रहे लोगो के।

भवन बनवाने हेतु स्वीकृत नक्शा

बेशक जब मीडिया अपने स्वतंत्रता के सबसे कठिन दौर से गुज़र रही है तो उस दौर में एक डिजिटल मीडिया ही ऐसी है जो हकीकत से रूबरू आवाम को करवा रही है। वह आवाज़े डिजिटल मीडिया के कानो में पहुचती है। उनकी आवाज़े बुलंद होती है। अभिषार का एपिसोड आता है। अजीत अंजुम खुद मौके पर जाते है और इज्तेमाई दुआख्वानी में बैठे अवाम की आवाजो को सुनते है और समाज को सुनाते है। कई अन्य डिजिटल मीडिया प्लेटफार्म्स पर भी ऐसी ही बाते आना शुरू होती है। मगर मज़हब और धर्म के बीच तलवारे खीचने के लिए बेताब खड़ा आपका पसंदीदा चैनल और अख़बार खामोश रहता है। आदेश के तहत दिखाई जाने वाली बस्ती गफूर बस्ती रहती है। जहा झोपड़ियो को दिखाया और बताया जाता है। मगर इस दरमियान इन्द्रा नगर जैसी बस्ती का कही कोई नामलेवा नही रहता है कि इंद्रानगर की आवाम अपने हाथो में कागज़ लेकर बैठी है कि अगर ये ज़मीने रेलवे की है तो फिर आखिर उनको नगर निगम ने पट्टा कैसे अपनी नजूल बता कर किया।

वर्ष 1940 में किया गया ज़मीन का पट्टा

कही कोई इसका पुरसाहाल नही होता है कि अगर जिस ज़मीन पर रेलवे का दावा है तो उस ज़मींन को नजूल की बता कर नगर निगम पट्टा करता है। स्थानीय विकास प्राधिकरण नक्शा पास करता है। नगर निगम हाउस टैक्स और अन्य कर लेता, वहा सरकारी स्कूल और कालेज है। बैंक है। वाटर सप्लाई है, सड़के है, पक्के मकान है। दशको से बस्ती है। सिर्फ खुद का ही नही बल्कि भगवान का भी घर है। यानी मंदिर भी है और मस्जिद भी है। फिर आखिर इतना कुछ कैसे हो गया। क्या अभी तक दशको से नगर निगम दुसरे की संपत्ति पर आय अर्जित कर रहा था? क्या नगर निगम दुसरे की संपत्ति को पट्टे पर दे रहा था। सरकारी स्कूल क्या नगर निगम ने दुसरे की ज़मींन पर खोलवा दिया था?

वर्ष 1940 में किया गया ज़मींन का पट्टा

मगर ये सवाल पूछे कौन? क्या नही नगर निगम खुद एक पार्टी के तौर पर केस में शामिल होकर केस लड़ा। बस्ती बचाओ समिति आखिर कहा चुकी। कहा उसकी दलीले नही सुनी गई। मगर पत्रकारिता तो इसमें ही व्यस्त थी कि 10 जनवरी को प्रशासन ने क्या तैयारी किया है? कितनी फ़ोर्स मौके पर रहेगे? आईजी साहब की बाईट लेने में व्यस्त थे। उसको कहा फुर्सत कि इंसान और इंसानियत की जंग लड़ रहे लोगो की भी बातो को सुने। कितनी डिबेट आपके पसंदीदा चैनल पर इसको लेकर हुई जिसमे आमने सामने रेलवे के अधिकारी और नगर निगम के अधिकारियो से यह सवाल पूछा गया हो? कहा है फिर पत्रकारिता धर्म…….? पत्रकारिता धर्म……! अमा जाने भी दो यारो, पादुका पूजन और जयकारे से फुर्सत मिलेगी तो अगले बार इसका पालन कर लिया जायेगा।

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