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अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष: सावित्री बाई फुले का ज़िक्र तो इतिहास ने किया, मगर तवारीख के पन्नो में ग़ुम है फातिमा शेख का समाज के लिए किया गया संघर्ष और योगदान

मुख्तार खान 

समाज के विकास और उत्थान में महिलाओं और पुरुषो का समान योगदान रहा है। अक्सर पुरुषो के योगदान की चर्चा रहती होती रहती है। लेकिन महिलाओं द्वारा किये गए सामाजिक कार्यो की उतनी चर्चा कभी नही की जाती है जितने की वह हकदार होती है। पूरी दुनिया कल महिला दिवस की तैयारी कर रही है। समाज का वह वर्ग भी महिलाओं के सम्मान और उनके योगदान की बाते कल करता हुआ दिखाई देगा जो महिलाओं पर आधारित सभी गालियाँ तक बना कर बैठा है।

हम दो ऐसे शख्सियत के बारे में बयान आपको करेगे जिन्होंने महिलाओं के सम्मान और उत्थान के लिए अपने जीवन के एक एक लम्हों को लगा दिया। ये दो महिलाओं में एक थी फातिमा शेख और दूसरी थी सावित्री बाई फुले। हम आपको आज इन दो महान नारियो के जीवन और उनके द्वारा समाज के उत्थान हेतु किये गए कार्यो की चर्चा आपके साथ करेगे। सावित्री बाई फुले की चर्चा तो आपने अक्सर ही सुना होगा और पढ़ा भी होगा। मगर फातिमा शेख के मुताल्लिक तवारीख ने भी काफी नाइंसाफी किया है। इतिहास की किताबों का कोई भी पन्ना तलाशने पर शायद ही फातिमा शेख के योगदान का ज़िक्र करता हुआ आपको दिखाई दे जाए।

जबकि हकीकत ये है कि पौने दो सौ वर्ष पहले सावित्री बाई फुले ने जहा दलितों के उत्थान हेतु कार्य किया वही फातिमा शेख ने समाज सुधारक के तौर पर मुस्लिम महिलाओं के शिक्षा पर काफी काम किया और समाज को प्रगति दिलवाई। सावित्री बाई फुले के पत्रों का अध्यन करे तो उनके खत-ओ-किताबत में फातिमा शेख का ज़िक्र मिल जायेगा। सावित्री बाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के सतारा जिले में नायगांव में हुआ था। वर्ष 1840 में महज़ 9 वर्ष की आयु में न्योतिबा फुले के साथ हुआ था। ज्योतिबा फुले अपनी मौसेरी अभन सगुना बाई के साथ रहते थे। विवाह के बाद भी जोतिबा फुले ने सावित्री बाई फुले हो पढाया और वह मराठी तथा अंग्रेजी पढना लिखा सीख लिया। जिसके बाद उन्होंने स्कूल की परीक्षा पास किया जिसके साथ ही उन्हें शिक्षा का महाम्त्व समझ में आ गया।

ज्योतिबा और सावित्री बाई ने अपने मन में लडकियों की शिक्षा के लिए विद्यालय खोलने का प्रण लिया और इसमें सहयोग करने के लिए महिला शिक्षिका की आवश्यकता और महत्व को समझते हुवे सावित्री बाई ने मिशनरी कालेज से टीचर की ट्रेनिंग शुरू किया। और उन्होंने 1848 में यह प्रशिक्षण मुकम्मल कर लिया। जिसके बाद ज्योताबाई फुले और सावित्री बाई फुले ने महिला महाविद्यालय की नीव रखा तथा संघर्ष के दौर की शुरुआत होती है जिसके तहत अब छात्राओ को इस विद्यालय में लाने का एक बड़ा कार्य था क्योकि यह वह समय था जब लोग अपनी बच्चियों को शिक्षा से वंचित रखते थे। ऐसे समय में लोगो को समझाना काफी मुश्किल काम था क्योकि उस समय ऐसी अवधारणा थी कि लडकियों को पधने से 7 पीढ़ी नरक भोगती है।

ऐसे समय में सावित्री बाई फुले ने हिम्मत नही हारी और लोगो के घर घर जाकर उनको समझाना शुरू किया। उनका साथ देने के लिए फातिमा शेख आगे आई जिससे सावित्री बाई फुले की हिम्मत दुगनी हो गई। फातिमा शेख भी एक साहसी महिला थी और शिक्षिका थी। उनका जन्म 9 जनवरी 1831 में एक संपन्न मुस्लिम परिवार में हुआ था। फातिमा शेख के बड़े भाई का नाम उस्मान शेख था। वह अपने पुरे बिरादरी में एकलौती पढ़ी लिखी महिला थी। फातिमा शेख के साथ जुड़ जाने से लडकियों के स्कूल में जान आ गयी। अब लडकियों के स्कूल का काम बड़े उत्साह से चलने लगा।

इस कर्मक्रम में रोज़मर्रा का काम होता था कि फातिमा शेख और सावित्री फुले दोनों सुबह जल्दी उठ कर अपने घर की जिम्मेदारियों को पूरा करती और उसके बाद पूरा समय अपने स्कूल को देती। इसमें उनका सहयोग ज्योतिबा और उस्मान शेख का सहयोग भी मिलता रहता था। शरुआत में विद्यालय में केवल 6 लडकिया थी, मगर धीरे धीरे इस ताय्दात में इजाफा होता गया। जो शहर के कथित ठेकेदारों को नागवार गुज़रा। उन्हें संभ्रांत लोग के घरो की लडकियों का ऐसे पढना लिखना अच्छा नही लगा। लोगो ने इस कार्य को शास्त्र विरोधी बताना शुरू कर दिया। लोगो ने फुले परिवार का ही विरोध करना शुरू कर दिया। विरोध करने वालो का दबाव ज्योताबाई के पिता गोविदराव पर भी दबाव बनाया गया। उनको समाज से बहिष्कार करने की धमकी भी देना शुरू कर दिया गया। मगर ज्योताबाई और सावित्री बाई इनकी एक भी धमकियों के सामने नही झुके और उनकी फिक्र किये बगैर ही अपने मिशन में लगे रहे। आखिर में पिता ने उनको बात न मानने पर उनको अपने घर से निकाल लिया।

समाज के ठेकेदारों ने आखिर ज्योताबाई और सावित्री बाई के परिवार का सामजिक बहिष्कार करने का एलान कर दिया। जिसके बाद कोई भी उनके सहयोग को तैयार नही था। ऐसी संकट के घडी में महात्मा फ़ले के बचपन के मित्र उस्मान शेख ने उनका साथ दिया और सहारा ही नही दिया बल्कि अपने आवास का एक हिस्सा स्कूल चलाने के लिए दिया। इस तरीके से यह महिलाओं का विद्यालय अब फातिमा शेख के घर पर चलने लगा। एक तरफ जहा फुले परिवार का सामाजिक बहिष्कार हो रहा था, वही दूसरी तरफ फातिमा शेख और उस्मान शेख पर भी उनके समाज का दबाव पड़ने लगा। सावित्री बाई की तरह फातिमा शेख को भी काफी बुरा भला लोग कहने लगे। उन पर ताने कसे जाते, गालिया दिया जाता। मगर हिम्मत की चट्टान फातिमा शेख अपने मकसद से डोली नही।

दोनों ही हिम्मती महिलाओं ने हार नही मानी और बड़ी ही निडरता के साथ दोनों ही अपने मकसद में आगे बढती रही। दोनों ने मिलकर पुणे शहर में ही कुल 18 स्कूल खोले और फिर आखिर 1850 में ‘द नेटिव फीमेल स्कूल, पुणे’ नाम की एक संस्था खोली। महिलाओं के साथ साथ दलित बच्चियों के शिक्षा की कोई व्यवस्था न देख कर उन्होंने ‘सोसाइटी फार द प्रमोटिंग एजुकेशन आफ म्हार एंड मांग’ नाम की एक संस्था स्थापित किया जो समाज के वंचित बच्चो की शिक्षा हेतु कार्य करता था और ऐसा एक विद्यालय भी खोला। फातिमा शेख ऐसी पहली मुस्लिम महिला बनी जिसने मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा के साथ साथ बहुजन समाज की शिक्षा के लिए भी काम किया। फातिमा शेख के बारे में बहुत कम जानकारी प्राप्त है। सावित्री बाई के पत्रों से हमें उनकी जानकारी मिलती है।

हम समझ सकते हैं, आज से दो सौ वर्ष पूर्व किसी मुस्लिम महिला का इस तरह घर की चार दीवारी से बाहर आकर समाज कार्य करना, कितने साहस का काम रहा होगा? फातिमा शेख ने सावित्री बाई के मिशन को आगे ही नहीं बढ़ाया ब्लकि संकट की घड़ी में सदा उनके साथ खड़ी रही। सावित्री बाई की अनुपस्थिति में स्कूल प्रशासन की सारी जिम्मेदारी फातिमा शेख ही संभाला करती थी। विद्यालय में छात्राओं की संख्या बढ़ने लगी। शिक्षा ग्रहण करने के बाद उनकी छात्राएँ भी अध्यापिका की भूमिका निभाने लगी। आगे चलकर सावित्री बाई ने अपने सामाजिक कार्य को और विस्तार दिया। उन दिनों समाज में बाल विवाह प्रथा का चलन आम था। बहुत सी लड़कियां छोटी उम्र में ही विधवा हो जाया करती। इसके अतिरिक्त ऐसी अविवाहित माताएँ जिन्हें समाज पूरी तरह से बहिष्कृत कर देता, ऐसी पीड़ित महिलाओं के सामने सिवाय आत्महत्या के कोई और मार्ग नहीं रहता। महात्मा फुले और सावित्री बाई ने ऐसी पीडित महिलाओं के लिये 28 जनवरी 1853 को ‘बाल हत्या प्रतिबंधक गृह’ नाम से एक आश्रम खोला। देश में महिलाओं के लिए इस तरह का यह पहला आश्रम था। इस आश्रम में महिलाओं को छोटे-मोटे काम सिखाए जाते, उनके बच्चों की देख भाल की जाती। बड़े होने पर उन्हें स्कूल में दाखिल कराया जाता।

एक दिन आश्रम में काशीबाई नाम की एक अविवाहित गर्भवती महिला आई। सावित्री बाई ने उसे सहारा दिया, आगे चलकर उस महिला के पुत्र को ही उन्होंने गोद लिया। यह बालक बड़ा हो कर डॉ। यशवंत कहलाया। सावित्री बाई ने यशवंत को पढ़ा लिखा कर एक सफल डॉक्टर बनाया। 1896 की बात है मुंबई, पुणे में उन दिनों प्लेग फैला हुआ था। सावित्री बाई लोगों की सेवा में जुटी रहती। इसी दौरान वे भी प्लेग की चपेट में आ गयीं। और 10 मार्च 1897 को इस महान समाज सेविका ने अपने प्राण त्याग दिए। सावत्री बाई और फातिमा शेख ने सैकड़ों महिलाओं के जीवन में शिक्षा और ज्ञान की ज्योत जलाई। शिक्षा के द्वारा शूद्रों, स्त्रियों को स्वाभिमान के साथ जीने का रास्ता दिखाया। आज महिलाएं प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हैं, पहले से अधिक स्वतंत्र हैं। महिलाओं के उत्थान में महत्मा फुले, सावित्री बाई और फातिमा शेख जैसी महान विभूतियों का संघर्ष और त्याग छिपा है। 8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर सावित्री बाई और फातिमा शेख जैसी महान नारियों के योगदान को याद करना हम सब के लिये गर्व की बात है।

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