Morbatiyan

तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – उनके नशे में चलते रहे….., लडखडाये और धनिया 300 रुपईया किलो हो गई…….!

तारिक आज़मी

आज सुबह सुबह काका की कर्कश आवाज़ से आँख खुली। वैसे अमूमन जब काका के सोकर उठने का वक्त होता है तो गालिब की रात होने वाली होती है। वैसे यहाँ ग़ालिब का मतलब मिया मिर्ज़ा ग़ालिब ने न समझ लीजियेगा। ये अमूमन वाला तकिया कलाम है। तो हम कह रहे थे कि अमूमन काका के उठने का समय हमको बिस्तर पर जाने का वक्त होता है। काका भी हमारे आराम का ख्याल पूरा रखते है कि बचवा उनका सो रहे थोडा देर। मगर घडी अभी 9 बजाने वाली थी कि काका की कर्कश आवाज़ ने आँखे खोल डाला। आँखे खोल कर देखा तो काका पुरे मुसल्लम खोपडिया पर खड़े रहे और हाथ में एक कप चाय भी थी।

तारिक आज़मी
प्रधान सम्पादक

वैसे तो ये ड्यूटी परिवार में गृह मंत्रालय को होती है। मगर आज काका का विकराल रूप सामने आने की पूरी संभावना थी। काका ने चाय का कप मेरे आगे बढाते हुवे खुद कुर्सी खीच लिया और धम्म से विराजमान हो गए। हमने ख़ामोशी से चाय की घूंट पानी पीने के बाद लेना शुरू कर दिया। वैसे काका की शक्ल बता रही थी कि आज कुछ तो गड़बड़ हुआ है। लग रहा था कि कोई बात पर काकी आज हऊक दिहिन होगा। चाय खत्म हो चुकी थी, मगर अपनी शामत को थोडा और टालने के लिए मैं कप को मुह से हटाना नही चाह रहा था। बस मन में सोच रहा था कि मेरी किस खुराफात से काका का आज पारा सातवे आसमान पर था। मगर पिछले एक हफ्ते से कोई ऐसी खुराफात काका के लिए किया नही था। दिमाग काम नही कर रहा था तो सोच रहा था कि काका नमक इस वबा से कैसे निजात अभी मिले।

तब तक काका की कर्कश दूसरी आवाज़ ने मेरी तन्द्रा को चकनाचूर कर डाला। काका ने कहा “अबे का अब कप खा जायेगा का।” हम भी हडबडा गए। बोले वो “नही काका आज देर से सोया था तो नींद लगता है पूरी नही हुई। थोडा और सो लू,” सोचा इसी बहाने काका नाम की इस वबा से थोडा देर को छुटकारा मिल जायेगा। तब तक सोच लूँगा कि आखिर हुआ क्या है जो काका ने आज सुनामी का रूप धारण कर रखा है। मगर काका थे कि ऐसा कमरा में आये जैसे ज़िन्दगी में बुढ़ापा। टलने को तैयार ही नही। तुरंते बोल पड़े “उठ जा नाटक न कर। अब हमारे सवाल का जवाब दे ख़ामोशी से….! पूछे ….?” मैं खामोश रहा तो काका ने धर दिया खोपडिया पर एक, कहा बोल काहे नही रहा है। तो हम बोले “अमा काका तुमही तो कहे रहे कि ख़ामोशी से जवाब दे, तो ख़ामोशी से जवाब दिया कि हाँ पूछो। अब तुम हमार ख़ामोशी न समझो तो का करे हम…?” लगता है हमारी आवाज़ काकी तक पहुच गई थी. उन्होंने उधर से तुरंत कहा…… हाँ बेटवा सुबहिये से जो सब्जी लेने आज गए थे तो वही से सनके है। तुमही कुच्छो समझाओ।

अब मामला मुझको थोडा सीरियस लगने लगा था। काका हमारी जान प्राण है। उनके बिना तो मोरबतियाँ सोच भी नही सकता हु। हमने तुरंत सावधान की मुद्रा में कहा काका का हुआ ? केहू कुछो बोला का काका, हमका बताओ। काका बड़े गुस्से से बोले “अरे वही सब्जी वाला कल्लनवा है, ससुरा दिमाग ख़राब कर डाला है। सुबह सुबह सोचा ताज़ी सब्जी ले लू, तो लेने चला गया। कुल सब्जी लेने के बाद उससे कहा तनिक पांच रुपईया का धनिया डाल दो। तो ससुरा बड़ा बुरा सा मुह बना कर देखने लगा अऊर बोला तुम आज काका धनिया न ले पाओगे। जाओ बिना धनिया का चटनी बनवा लो। ससुरा धनिया दिया नही, कारण पूछा तो बोला, “का दे काका धनिया, पांच रुपईया का धनिया में का धुनी देहो ? दुई पत्ती आवेगी। दाम 300 रुपईया किलो हो है है धनिया।“

काका का टेप चालु रहा। बोले – बबुआ हम तो बस समझ लो दाम सुन कर हार्ट फेल नही किये। बड़ी मुश्किल से संभाले और दस रुपईया का एक छटांक भर धनिया लेकर आये। तुम्हार काकी को पूरी बात बताया और कहा कि देखो धनिया थोडा सम्भाल के इस्तेमाल करना, मगर उहो हमरा मजाक बनावे लगी और कहिन कि “का खाली सूंघ के रख दे।’ ई कहे के बाद हँसे लगी। एक तो सुबह सुबह कल्लनवा अनलिमिटेड बेइज्जती करने पर उतारू रहा किसी तरह ऊहा संभाला, घर आये तो तुम्हार काकी कर दिहिन। हम उसके बाद नहाए चले गए। वईसे तुम जाने ही हो कि हम मूड फ्रेश करे के लिए तनिक गुनगुना लेते है नाहते समय। तो हम गाना गा रहे थे कि “उनके नशे में चलते रहे,” तब तक तुम्हार काकी बहरे से कहिन कि “लड़खडाये अऊर धनिया 300 रुपईया किलो हो गई।“ बताओ ई कोई बात हुई।

वैसे काका और काकी की जोड़ी टॉम एंड जेरी की जोड़ी जैसी है। दोनों एक दुसरे की टांग खीचने का कोई अवसर छोड़ते नही है। अब काकी की भी गलती है कि जब काका गाना गा रहे थे कि “उनके नशे में चलते रहे” तो काहे काकी कहिन कि “लड़खडाये और धनिया 300 रुपया किलो हो गई।” काका की बात पर हमको हंसी छूटने वाली थी, बड़ी मुश्किल से मैंने अपनी हंसी को अपने मन में दबा कर रखा और कहा “यार काका बड़ी मुश्किल है। एक पर एक फ्री की कहानी तो बहुत सुना रहा, मगर आपकी इन्सल्ट एक पर दो फ्री हो गई आज। काकी की गलती है कि जले पर नमक नही छिड़कना था।

इतना सुनना था कि काका हत्थे से उखड गए और बिना कुछ बोले अपना नौ मन का पैर ज़मीन पर पटकते हुवे कमरे से चले गए। हम काका की मनोस्थिति समझ सकते है। मगर कर कुछ नही सकते है। वैसे कल धनिया हम खुद 300 रुपया किलो के भाव से खरीदा है। बिना धनिया के खाने का स्वाद नही आता है और धनिया खरीदने में जेब का स्वाद बिगड़ जा रहा है। सिर्फ धनिया ही क्यों ? बैगन भी तो 40 के भाव मुह चिढा रहा है कि और कहो बेटा हमको बेगुन। अब खरीद के दिखाओ। काका नामक वबा तो दो तीन घंटे के लिए टल चुकी थी, मगर हमको बुरा बहुत लग रहा था कि काका को आज अपने जवाब से संतुष्ट नही कर पाया। अभी ये सोच ही रहा था कि देखा काका हाथ में कुछ गमले और कुदाल लेकर वापस ज़ीना चढ़ने लगे। पूछा काका ई का है। तो बड़े गुस्से से बोले, “तुम सूत जाओ दुबारा, हम जा रहे है धनिया की खेती करने और अब हम धनिया उगा कर उसको 100 रुपया किलो बेच कर कल्लनवा का दुकानदारी ख़राब कर डालेगे।“

उफ़….! हमारे काका और उनकी मासूमियत। उनके नशे में चलते रहे, लडखडाये और धनिया 300 रुपया किलो हो गई।

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