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अडानी प्रकरण और विपक्ष का हंगामा: सेबी की ख़ामोशी और विपक्ष के निशाने पर उसकी कार्यशैली, सदन में हंगामा है जारी

तारिक आज़मी

अडानी ग्रुप से सबंधित कथित धोखाधड़ी और भ्रष्टचार का आरोप लगाती हुई हिडेन बर्ग की एक रिपोर्ट ने अडानी को अर्श से वापस ज़मींन के तरफ लाना शुरू कर दिया है। इस सबके बीच जिस वित्तीय संस्था पर सबसे ज्यादा सवाल उठ रहे है और आम लोग चर्चा कर रहे है वह है सेबी। SEBI यानी सेबी एक सरकारियो वित्तीय संता है जो जो भारतीय शेयर मार्केट में होने वाली घटनाओं पर निगरानी रखती है। लेकिन अडानी प्रकरण में सेबी की ख़ामोशी लोगो को सवाल उठाने के लिए मजबूर कर रही है।

बेशक ये सवाल आपके पसंदीदा चैनल को नहीं पसंद है और न ही आपके मनपसंद अख़बार के किसी कोने में दिखाई दे रहे है। सरकार संसद में हो रहे हंगामे का जवाब नही दे पा रही है। तो सेबी दूसरी तरफ महुआ मित्रा के सवालो से भले परेशान है मगर जवाब नही है और न सेबी कुछ बोल रही है। पिछले दिनों सेबी ने आरबीआई को लिखे अपने जवाब में अडानी ग्रुप का नाम लिए बिना अपना जवाब देते हुवे कहा है कि “विगत दिनों एक व्यावसायिक समूह के शेयरों में असामान्य गिरावट दर्ज किया गया है।” ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर सेबी सामने से नाम लेने में क्या हर्ज समझती है?

आम निवेशको के भविष्य और वर्त्तमान की योजनाओं पर टिके इस मामले में कही से भी आम जनता को अलग तो नही किया जा सकता है। तो बेशक सेबी की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह इन उठ रहे सवालो पर संतुष्टि भरा जवाब दे। हम नही कहते है कि हिडेनबर्ग की पूरी रिपोर्ट क्या है, क्या नहीं है? मगर ऐसी संस्थानों की रिपोर्ट्स ने विजय माल्या के सम्बन्ध में भी वर्ष 2012-13 में अवगत करवाया था। उस समय हमको विजय माल्या पर इतना विश्वास था कि विजय माल्या को बिना जाँच ही क्लीन चिट मिल चुकी थी। फिर नतीजा क्या हुआ?

सबको पता है कि विजय माल्या लाखो करोड़ लेकर देश छोड़ कर भाग गया। आखिर इस लाखो करोड़ का बोझ किसके ऊपर आकर टिका। चंद लाख लोगो पर या फिर पुरे 125 करोड़ आवाम पर ये आप भी जानते है। विजय माल्या आज भी सात समुन्दर पार ऐश की ज़िन्दगी बसर कर रहा है। उसको भारत लाने की कवायद में उलटे कितना खर्च हो चूका होगा यह सरकार और सरकारी संस्थाए बेहतर समझती है। मगर अगर वक्त पर ही विजय माल्या के ऊपर ध्यान दिया गया होता तो शायद ऐसी घटनाओं को रोका जा सकता था। आखिर गलती किसके कंधो पर डाली जाए इस बहस का अभी कोई मतलब नही बनता है।

ये कोई पहला केस नही है जिसके ऊपर हम आप मंथन कर रहे है। इसके पहले हर्षद मेहता केस ने भी देश को हिला दिया था। उसके बाद सबसे बड़ा घोटाला निकल कर सामने आया था वह था केतन पारेख केस। क्या आपको याद है केतन पारेख केश या फिर भूल चुके है। सेबी अगर वक्त पर ध्यान देता तो शायद ये भी इतना बड़ा स्कैम न होता। लाखो करोड़ का केतन पारेख केस हुआ था। इसका असर ये पड़ा कि अटल सरकार में आखिर सरकार विपक्ष के आगे झुकी और जेपीसी बनी। ऐसे मामलो में जेपीसी एक प्रकार से पोलिटिकल डेथ वारंट जैसी ही होती है। फिर अटल सरकार दस साल तक लगातार सत्ता के बाहर विपक्ष की भूमिका में आ जाती है जो सबको पता है।

आज फिर जेपीसी की मांग विपक्ष कर रहा है। अडानी मामले में विपक्ष भले ही किश्तों में खड़ा दिखाई दे रहा है और उसका विरोध केवल सदन में हंगामे की शक्ल में दिखाई दे रहा है। मगर अब राहुल गाँधी ने भी मुखर होकर अडानी मामले में सरकार के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया है। उत्तर प्रदेश सरकार से टेंडर निरस्त होने की जानकारी भी अडानी के लिए बुरी खबर है। सत्ता इस विचार में है कि आखिर सदन कैसे चलाया जाए क्योकि बजट के दुसरे ही दिन से बजट पर बहस नही हो पा रही है और सदना में हंगामा हो रहा है।

ऐसे मामलो में मीडिया की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण होती रही है। जो अब शायद स्ट्रीम मीडिया ने पूरी तरीके से भूमिका को बदल दिया है। इतने बड़े आरोपों के बाद भी आपके पसंदीदा चैनल पर कोई डिबेट आपको नही दिखाई दी होगी। बेशक अडानी के सीऍफ़ओ जब आकर चैनल पर जवाब देते है और इस मामले को भारत के खिलाफ साजिश बताते है तो आपका चैनल और पसंदीदा अख़बार उसको प्रमुखता से आपके सामने रहता है, बशर्ते अडानी के सीऍफ़ओ से सवाल नही करता है कि आरोप एक व्यावसायिक संस्था पर लगा है इसमें भारत की एक व्यावसायिक संस्था के ऊपर हमले के तौर पर देखा जा सकता है। फिर इसको भारत पर हमला जैसे शब्द क्यों लिए जा रहे है। आखिर क्यों तिरंगे के साथ ये बयान जारी किया। इसके पहले अपने सभी बयान तिरंगे के साथ ही देते थे क्या ?

मगर नही सवाल तो विपक्ष से पूछना है कि राहुल गांधी को ठण्ड नही लगती है क्या? अब हम ठहरे डिजिटल मीडिया वाले तो हमारी सुनता कौन है? ज्यादा बोले तो ट्रोलर आर्मी अपने गोली नुमा गाली के साथ पीछे पड़ जायेगी।, कल ही एक सज्जन ने पूछ डाला कि आप बताओ आखिर देश की बात क्यों नही करते हो। अब हम उनको क्या बताये कि भाई देश इतना तेरा है उतना मेरा भी है। एक दो नही बल्कि लाखो नागरिको के बतौर इन्वेस्टमेंट का है। उनको बताने का फायदा ही नही क्योकि सियासत का रंग अपने शबाब पर है और वह अभी उतरने वाला नही है। पक्के रंग की गारंटी है।

बहरहाल, इन सबके बीच सेबी की ख़ामोशी ने थोडा इन्वेस्टर्स को पेशोपेश में डाल रखा है। सरकारी संस्थाओ की कार्यशैली पर उठ रहे सवालो में सेबी कभी नही हुआ करती थी। आज आप सांसद संजय सिंह कहते है तो बात को बल भी मिलता दिखाई देता है कि सरकारी संस्थाए केवल विपक्ष के लिए बनी हुई है। विपक्ष का नाम इसमें शामिल होता तो अब तक ई’डी, सीबीआई और इनकम टैक्स सहित सेबी अपने काम पर लग चूका होता, मगर बात यहाँ अडानी की है तो अडानी पर सबकी ख़ामोशी है। संजय सिंह द्वारा केतन पारेख केस के तार में अडानी ग्रुप के प्रमुख गौतम अडानी के नाम लेने में भी गुरेज़ नही करते है और साफ़ साफ़ नाम लेते है। सबकी निगाहें सेबी पर अब टिकी है। फिलहाल सेबी के तरफ से कोई पहल दिखाई तो नही देती है।

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