शाहीन बनारसी
देश के पहले कानून मंत्री और संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर को भला कौन नहीं जानता! बचपन से ही भेदभाव झेलने वाले आंबेडकर के जीवन में कम चुनौतियां नहीं आईं, लेकिन उन्होंने हर चुनौती का सामना करते हुए खुद को साबित किया। डॉ भीमराव आंबेडकर ने दबे-पिछले समाज के उद्धार के लिए इतना कुछ किया कि उन्हें बाबासाहब की उपाधि दी गई। इसके पीछे हर कदम पर साथ देने वाली उनकी पत्नी रमाबाई आंबेडकर का भी अहम योगदान रहा। आज रमाबाई की पुण्यतिथि है।
महज 15 वर्ष की उम्र में ही भीमराव आंबेडकर की शादी हो गई थी। अपनी किताब “थॉट्स ऑन पाकिस्तान” को डॉ आंबेडकर ने रमाबाई को समर्पित करते हुए लिखा है कि उन्हें मामूली व्यक्ति से बाबासाहेब अंबेडकर बनाने का श्रेय रमाबाई को ही जाता है, जो हर हालात में उनके साथ रहीं। उनकी ही वजह से आंबेडकर बाहर जाकर अपनी पढ़ाई पूरी कर पाए। रमाबाई को लोगों के खूब तानें सुनने को मिलते थे। वह हर छोटा-बड़ा काम कर आजीविका चलाती रहीं और घर को संभाले रखा। शादी के तुरंत बाद रमाबाई समझ चुकी थीं कि दलित-पिछड़ों का उद्धार शिक्षा से ही संभव है। वह जानती थीं कि डॉ भीमराव शिक्षित होंगे तभी पूरे समाज को भी शिक्षा के प्रति जागरूक कर पाएंगे। इसलिए डॉ आंबेडकर की पढ़ाई का खर्च जुटाने में भी उन्होंने मदद की।
7 फरवरी 1898 को जन्मी रमाबाई के माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था। घर के माली हालात ठीक नहीं थे। ऐसे में उनके मामा के यहां उनकी परवरिश हुई और मामा ने ही भीमराव आंबेडकर से उनकी शादी करवाई। भीमराव पत्नी रमाबाई को प्यार से ‘रामू’ कहकरक पुकारते थे। वहीं रमाबाई भी उन्हें प्यार से साहेब बुलाती थीं। दलितों के उत्थान के लिए बाबासाहेब के संघर्ष में रमाबाई ने अपनी आखिरी सांस तक उनका साथ दिया। एक अन्य घटना का विवरण वर्ष 1991 में प्रकाशित पुस्तक पुस्तक वंसत मून के पृष्ठ 25 पर लिखा है कि ‘ऐसे दौर उनके जीवन में कई बार आए।
पहली बार तब जब आंबेडकर 1920 में दूसरी बार अध्ययन के लिए इंग्लैंड गए। जाने के पहले उन्होंने रमाबाई को घर खर्च चलाने के लिए जो रकम दी थी, वह बहुत कम थी और बहुत ही जल्दी खर्च हो गई। उसके बाद उनका घर खर्च रमाबाई के भाई-बहन की मजदूरी से चला। रमाबाई के भाई शंकरराव और छोटी-बहन मीराबाई-दोनों छोटी-मोटी मजूरी कर तक़रीबन आठ-दस आने (50-60 पैसे) रोज कमा पाते थे। उसी में रमाबाई बाजार से किराना सामान खरीद कर लातीं और रसोई पकाकर सबका पेट पालती थीं। इस तरह मुसीबत के ये दिन उन्होंने बड़ी तंगी में बिताए। कभी-कभी उनके परिवार के सदस्य आधे पेट खाकर ही सोते, तो कभी भूखे पेट ही।‘
करीब 3 दशक तक डॉ भीमराव का साथ निभाने वाली रमाबाई का लंबी बीमारी के चलते निधन हो गया। 27 मई 1935 को उन्होंने आखिरी सांस ली। कई लेखकों ने रमाबाई को ‘त्यागवंती रमाई’ का नाम दिया। रमाबाई पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं, जबकि उनके जीवन पर नाटक और फिल्में भी बन चुकी हैं।
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