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तारिक आज़मी की कलम से कड़वा सच – तुम गम-ए-हुसैन में नहीं बल्कि आज मगरूर दिख रहे थे….

तारिक आज़मी,

  • मगर तुम नही थमे. ऐसा नहीं की तुम्हारे में सब ऐसे ही थे. काफी थे ऐसे जो वाकई गम-ए-हुसैन में थे. मगर वो इसलिये नहीं दिखाई दे रहे थे कि तुम दिखाई दे रहे थे. जबकि यह हकीकत है की तुम्हारी तयादात बहुत ज्यादा नहीं है. गम-ए-हुसैन में जुलूस लेकर जाने वालो की तयादात ज्यादा थी मगर तुम इसलिये दिखाई दे रहे थे की उजड्ड हरकते ज़ाहिर ज्यादा होती है. तुम्हे पता है तुम्हारी इस हरकत से पूरी कौम को शर्मिंदगी उठानी पड़ती है.

रब्बुल आलमीन के प्यारे और हम सबके आका सरवरे कायनात के प्यारे नवासे इमाम हुसैन  ने इंसानियत के खातिर खुद की ही नहीं बल्कि अपने पुरे कुनबे की कुर्बानी दे डाली. आप सरकार इमाम हुसैन के एक इशारे पर राई भी पहाड़ बन सकती थी. कई दिनों तक आप और आपका कुनबा प्यासा रहा क्या पानी की प्यास थी. पानी तो हमारे इमाम हुसैन के कदमो की एक ठोकर पर चश्मे के तौर पर निकल पड़ता. सरकार इमाम हुसैन को अपने नाना की उम्मत की फिक्र थी, आपको फिक्र थी इंसानियत को. इंसानियत के खातिर सरकार ने अपने कुनबे को कुर्बान कर दिया, अपने मासूम साहबजादे जो सिर्फ चंद महीनो के थे आपने उनकी तक कुर्बानी दे डाली. इंसानियत के खातिर ही. इसी पर किसी शायर ने कहा है कि कत्ले हुसैन असल में मर्गे यजीद है, इस्लाम जिंदा होता है कर्बला के बाद

मगर शर्म आज तब आ जाती है जब इमाम हुसैन की याद में तुम खुद के काँधे पर ताजिया उठाये चलने वाले तुम हमारे नवजवान साथी ताजिये के आगे आगे खूब उछलते हुवे या हुसैन का नारा भरते हुवे सड़क को अपनी जागीर समझते हुवे मौज मस्ती और बाहुबल का झूठा परिचय देते हुवे निकलते हो. या हुसैन दिल से आवाज़ निकलनी चाहिए मगर जुबांन से गला फाड़ कर या हुसैन चिल्लाते हो और खूब उछलते कूदते हुवे चलते हो. तुम्हे शायद ये भी नहीं मालूम होता है कि जिस ताजिया के जुलूस में जा रहे है वह एक मय्यत के शक्ल में है. यार आपकी इस हरकत पर दिल करता है की आपसे पूछ डालू कि जब तुम्हारे बाप मरेगे तो ऐसे ही उछल कर कलमा पढ़ते हुवे चलोगे. मगर तुमसे पूछे कौन तुम तो झुण्ड में हो. जाते हुवे किसी गरीब बुज़ुर्ग इंसान का मजाक उड़ाते हो. मुह में पान घुला लेते हो और या हुसैन का नारा लगाते हो. इंसानियत तो तुम्हारे अन्दर कही ज़रा सा नाम की भी नहीं बची है. अगर इंसानियत होती तो जो तुम ये जुलूस में झुण्ड के साथ जो खूब तेज़ धक्के मारते चलते हो वह नही करते.

इंसानियत तुम्हारे अन्दर होती तो ताजिये को बीच रास्ते में रोक कर पानी पीने के बहाने एक घंटे खड़ा नहीं करते क्योकि तुम्हे पता होता की तुम्हारे पीछे काफी ताजिये सकरे रास्ते में फंसी है. जब तुम आगे बढोगे तो वह भी आगे बढ़ेगी. बड़े से पतीले में अपनी झूठी शान के खातिर खिचडा पकवा कर दोने में तबर्रुक की तरह तकसीम करते हुवे लोगो को एक एक दोना देते हुवे नहीं चलते बल्कि उस खिचड़ा से कई भूखो को पेट भर खाना खिला सकते थे. उसी खिचडे से उन गरीबो का पेट भर जाता और उनको लज्ज़त भी मिलती. तुम तो सिर्फ अपनी शान के खातिर खिचडे के पतीले अथवा देग को ट्राली पर रख कर एक एक चम्मच दोने में डाल कर लोगो को तबर्रुक की तरह तकसीम करते जा रहे होते हो. जबकि मालूम तुम्हे भी है और मुझको भी कि ये जो तुमने खिचड़ा बनवाया है उसके लिए मोहल्ले में चंदा करके बनवाया है. खुद के जेब का पैसा नहीं खर्च किया है.तुम्हे मालूम है एक देग खिचडे में कम से कम 100 लोगो का एक वक्त पूरा पेट भर सकता है. शायद नहीं मालूम होगा क्योकि तुम तो सिर्फ नाम के खातिर लेकर जा रहे हो न सबको एक एक चम्मच देते हुवे जो न उनका पेट भर रहा है और न वो पेट भरने के लिये आये है. वो तो सिर्फ मेला घुमने आये है.

और ये जो तुम अखाड़े लेकर अपने करतब दिखाते चलते हो ये बताओ इसका फायदा क्या है. सरकार इमाम हुसैन ने तो नाना की उम्मत और पुरे इंसानियत के भलाई के लिये सर कटाया था. वो एक शायर ने बहुत खुबसूरत अंदाज़ में इसको बयान किया है कि हुसैन यु ही नहीं सर कटा कर सोये है, ज़माना सोया था उसको जगा कर सोये है. सरकार इमाम हुसैन ने ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने की नसीहत दिया. तुम उठा रहे हो ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ क्या ? दिल पर हाथ रखो और बताओ, किसी मजलूम के साथ कोई कद्दावर ज़ुल्म करता है तो उसको रोकना तो दूर जब उस मजलूम को इन्साफ दिलाने के लिए पुलिस आगे आती है और उस ज़ुल्म को तुमने अपने आँखों से होते हुवे देखा था तुमसे कहती है आपने देखा तो क्या कहते हो ? तुम कहते हो नहीं साहब हम तो उस वक्त फलनवा जगह थे. हम तो यहाँ रहे ही नही हम नहीं देखा है. क्योकि तुम्हे डर होता है न कि जिसने ज़ुल्म किया उससे दुश्मनी हो जायेगी और फिर कौन पड़े पुलिस कचहरी के चक्कर में ? है न सही कह रहा हु न ? मगर करतब अपना बीच सड़क पर ज़रूर दिखाना क्योकि उससे ज़ाहिर होगा न कि तुम बहादुर हो. देखो अब हकीकत तो ये भी है कि तुम जान रहे हो कि मैं बात सही कह रहा हु मगर तुम हां नहीं कहोगे. ये बात मुझको मालूम है.

अब आज ही देखो कितनी तुम्हारी इंसानियत मर चुकी थी इसका एक नमूना मैं तुम्हे दिखाता हु. जगह थी वाराणसी के हनुमान फाटक चौराहे की. जिसको तुम अपनी शान का सवाल बना लेते हो न वही जिसको गोला कहते हो और कहते हो गोला पर से पहले हमारी ताजिया पास होगी. इतनी भयानक धक्का मुक्की तुम्हारी थी कि दो बच्चे तुम्हारे पैरो से कुचल गये होते. मेरे साथ मेरे दोस्त शाहिद भाई थे. उनकी कद काठी बड़ी मजबूत है. दोनों बच्चो को तुम्हारे ज़ालिम पैरो से बचाने के लिये वह इंसान खुद को चुठिहिल कर बैठा. बच्चे बहुत तेज़ डर से रो पड़े थे. दोनों बच्चे ऊपर चबूतरे पर खड़े थे और तुम्हारे धक्के से वो नीचे गिर पड़े. मगर तुम्हे इंसानियत की क़द्र कहा तुम तो अपने ज़ालिम पैरो से उनको कुचल दिये होते. माईक से तुम्हारे इलाके के पूर्व पार्षद रह चुके नईम चिल्लाते रह गए मगर तुम्हे उनकी आवाज़ नही सुनाई दे रही थी. क्यों सुनाई देगी तुम तो भीड़ के साथ मगरूर हो चुके थे न. आखिर में वह शख्स भी खामोश हो गया. बच्चे तो दोनों बच गये मगर मेरे शाहिद भाई को चोट आई. थोड़ी मुझको भी आई उन चचा को बचाने में जिनको तुम अपनी जवानी के जोर से दबा देना चाहते थे. तुम्हे मालूम है उनको बचाने में मेरी पसलियों में दर्द अभी भी है सोचो ये पूरी तुम्हारी चाप अगर चचा को पड़ जाती तो उनका क्या हश्र होता.

मगर तुम क्यों सोचोगे तुम तो मगरूर हो चुके थे न भीड़ के साथ. वो चचा किसी काम से निकले थे. टोपी और लुंगी पहने थे. बेचारे के हाथ से झोला गिर गया उनकी आँखे नम हो गई थी. मालूम है उस थैले में क्या था ? तुम कहा से देखोगे तुम तो अपनी जवानी के जोश में आँखों की रोशनी कही और लगा रहे थे न, उनके थैले में सब्जी थी. मैंने कई बार चचा से मिन्नत किया चचा मैं सब्जी और दिलवा देता हु आपको, मगर बहुत खुद्दार थे चचा उन्होंने न कहा तो कहा फिर कोई बात नहीं सुनी. वैसे भी वह तुम्हारी सुन कहा रहे थे और तुम कह कहा रहे थे तुम तो पुलिस वालो के सामने अपने हाथो में बेस बैट लेकर घूम रहे थे. दिखाना चाहते थे कि ठाड़े कन्ने चक्कू है कट्टो तो खून निकल आता है  है न, भले कल से तुम उसी चौराहे पर गाड़ी चेकिंग में कागज़ कम होने पर चालन चुप चाप कटवा रहे होगे क्योकि उस वक्त तुम्हारे साथ ये भीड़ तंत्र नहीं होगा न. मगर आज घर में सबसे बड़ा सब्जी काटने वाले चाकू को लेकर निकले थे. वैसे इसका करते क्या होगे तुम ?

तुम्हे मालूम है सरकार इमाम हुसैन की शहादत सिर्फ ज़ुल्म को रोकने के लिये हुई, सरकार के मुखालिफ वो ज़ालिम हुक्मरा था जो पूरी इंसानियत पर ज़ुल्म करता था. सरकार ने उसके ज़ुल्म पर बैयत नही किया और ऐसी नमाज़ पढ़ी की सजदे में सर दे दिया. आज उनकी याद में तुम जुमे की नमाज़ के बाद शेर बनकर निकले थे मगर झुण्ड में, रास्ते में असर की नमाज़ हुई तुम सडको पर उछल रहे थे, अज़ान का भी एहतेराम नही किया. मगरिब की अज़ान के वक्त दरिया का बहता हुआ पानी भी थम जाता है मगर तुम नही थमे. ऐसा नहीं की तुम्हारे में सब ऐसे ही थे. काफी थे ऐसे जो वाकई गम-ए-हुसैन में थे. मगर वो इसलिये नहीं दिखाई दे रहे थे कि तुम दिखाई दे रहे थे. जबकि यह हकीकत है की तुम्हारी तयादात बहुत ज्यादा नहीं है. गम-ए-हुसैन में जुलूस लेकर जाने वालो की तयादात ज्यादा थी मगर तुम इसलिये दिखाई दे रहे थे की उजड्ड हरकते ज़ाहिर ज्यादा होती है. तुम्हे पता है तुम्हारी इस हरकत से पूरी कौम को शर्मिंदगी उठानी पड़ती है.

ऐसी ही इंसानियत को मारने वाली हरकत तुमने आज सुल्तानपुर के कादीपुर में किया, तुम चाहते तो थोडा सा साइड होते और एम्बुलेंस निकल जाती. मगर तुम साइड नहीं हुवे, तुम्हे क्या फिक्र थी कोई जीता है या कोई मरे. तुम तो मगरूर थे न आज भीड़ के साथ. एम्बुलेंस किसके लिए आई थी ये पता है तुम्हे ? नहीं पता होगा, चलो बता देता हु.

वो एम्बुलेंस एक ऐसे मासूम के लिए आई थी जो ज़िन्दगी और मौत की जंग लड़ रहा था. बहुत छोटा सा है महीने भर का भी नहीं होगा. कादीपुर सीएचसी से उसको जिला अस्पताल लेकर जाना था आक्सीज़न के साथ. उसका बाप मैंनेपारा निवासी दीपक यादव है. उस मासूम की माँ पत्नी अंजली यादव है. आज उस मासूम की तबियत बहुत बिगड़ गई थी. डाक्टरों ने उसको जिला अस्पताल ने जाने की सलाह दिया था. उसके बाप दीपक ने एम्बुलेंस बुलवाया था जो बड़ी मुश्किल से कोतवाली तक पहुच पाई थी. बच्चे को आक्सीज़न की ज़रूरत थी और आक्सीजन के सहारे उसको लेकर जाना था. मगर तुम भीड़ के साथ मगरूर बने बीच सड़क पर डटे रहे. एम्बुलेंस हूटर देती रही मगर तुम्हारे कान तो बंद थे न आज. क्योकि तुम्हे आज अपनी कुवत दिखानी थी. उस मासूम का बाप गिदगिड़ा रहा था कि भैया एम्बुलेंस ले जाने दो मगर तुम तो ताशा बजा रहे थे. ढोल बजा रहे थे. लाठी पाठा खेल कर दिखा रहे थे कि हम बड़े बहादुर है. तुम आज मगरूर थे न तो कैसे तुम्हारे ऊपर असर पड़ता. मीडिया वालो ने तुमसे कहा तुमने नहीं सुना, पुलिस ने कहा तुमने नहीं सुना. आखिर मज़बूरी में उस मासूम के माँ बाप ने रिस्क उठाया और उस मासूम को बिना अक्सीज़न के सीएचसी से लेकर पैदल कोतवाली तक आये. मासूम पर इमाम हुसैन का करम था जो उसको कुछ हुआ नहीं और कोतवाली कादीपुर के एसआई शलेन्द्र सिंह ने आखिर दुसरे रास्ते से एम्बुलेंस को जिला अस्पताल भेज दिया.

अब सोचो न कितने मगरूर थे आज तुम. तुम्हे उस बिलखती माँ की आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी, उस तड़पते बाप का दर्द नहीं दिखाई दे रहा था. तुम्हारे मग्रुरियत तो उस मासूम के माँ की वह दौड़ भी नहीं देख पाई जब वह पागलो के तरह तुम्हारे पास दौड़ रही थी. लानत है तुम्हारी मगरुरियत पर, देखो अल्लाह का जवाब थोड़ी दूरी पर ही अपनी अपनी मग्रुरियत के बीच टकराव कर बैठे और आपस में जूते चलाने की नौबत आ गई थी.

अब तुम कहोगे कि अमा ई ससुरा तारिक आज़मी वहाबी होगा नहीं तो शिया होगा. यही कह रहे हो न, मुझको मालुम है तुम इतने जोर से दिल में जो सोच रहे हो तो आवाज़ बाहर आ रही होगी ही. तो बाबू मगरूर और बेअदब साहब मेरा पूरा नाम सैयद मोहम्मद तारिक आज़मी है. यानी मैं सुन्नी हु. हर जुमेरात को एक दरगाह जाता हु. यानी मैं सुन्नी वो वाला हु जिसको तुम टीटीएस कहते हो. अब बकिया तुम कहते रहो, मुझ पर फतवा लगाने की धमकी देते रहो. कोई फर्क नही पड़ता है. मैं सच बोल देता हु मैं सच लिख देता हु. मैं ज़ाहिदे कलम झूठा कोई मंज़र न लिखूंगा, शीशे की खता होगी तो पत्थर न लिखूंगा. बस इतनी सी बात है कि सच तो यही है कि आज तुम जैसे दिखाई दिए वैसा मैंने लिख दिया. अब बुरा लगा तो न पढो और आंख बंद कर लो.

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