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BHU हिंसा पर तारिक आज़मी की मोरबतिया – सच बात मान लीजिये चेहरे पर धुल है…

तारिक आज़मी.

वैसे मोरबतिया की शुरुआत तो जैसे होती थी आज वैसे बतियाने का मन नहीं कर रहा है. हकीकत तो यह है कि इसी महामना की बगिया के एक छोटे से फुल हम भी है. अक्सर इस बगिया में होने वाले तोड़ फोड़ उधम चौकड़ी को जानकर मन विचलित होता रहता था मगर आज मन कुछ अधिक ही विचलित है. इसी बगिया में हम भी विचरण करते थे. ऐसा नहीं है कि हमारे वक्त में आज से लगभग दो दशक पहले वहा बवाल नहीं होते थे, मारपीट नहीं होती थी,या फिर विवाद नहीं होता था, हकीकत में यह सब कुछ होते थे मगर इस तरह से तो नहीं होता था.

आज विश्वविद्यालय प्रशासन के लिये एक शायर का शेर याद आ रहा है. वह शेर कुछ इस तरह से है कि “सच बात मान लीजिये चेहरे पर धुल है, इलज़ाम आईनों पर लगाना फ़िज़ूल है” हकीकत भी कुछ इसी तरह से है कि आपसी विवाद को इतना बड़ा तुल देने की वजह कभी शायद विश्वविद्यालय प्रशासन समझ ही नहीं पाया है. हकीकत के आइनों को देखा जाये तो विश्वविद्यालय में सबसे पहले हिंसा जिसमे असलहो अथवा बम का प्रयोग हुआ था वह 1995-96 के सत्र में हुआ था. यह पहला बड़ा विवाद था. जिसमे असलहो  प्रयोग हुआ था. इसके पहले भी साहब  विश्वविद्यालय में बम चले मगर आप उसको बौद्धिक बम अथवा लोला बम कह सकते है. जिसमे a[ने ज्ञान के आधार पर सामने वाले की हार करवाया जाता था और बहस मुद्दों पर होती थी. कभी कोई अगर परिसर में आवाज़ भी आती तो वह किसी पटाखे की आवाज़ होती थी. 

प्रोफ़ेसर हरि प्रसाद गौतम का वह शासनकाल हुआ करता था और सख्त कदम उठाने के लिए वह मशहूर थे. कडी व्यवस्था के बीच परीक्षा करवाया, हिंसा प्रकरण में जाँच का आदेश हुआ और जांच हुई थी. स्मृतियों पर जोर दे तो उस हिंसा में भी विश्वविद्यालय प्रशासन को बाहरी तत्वों का हस्तक्षेप मिला था. इसके बाद प्रोफ़ेसर हरी प्रसाद गौतम के द्वारा उठाये गये सख्त कदम के वजह से महामना की बगिया में बाहरी लोगो का हस्तक्षेप लगभग बंद सा हो गया था. लम्बे समय था परिसर में हिंसा और अन्य अराजक कार्यो को पनाह नहीं मिली.

इसके बाद 2014-15 से एक बार फिर परिसर अराजकता का शिकार होना शुरू हो गया. कभी कुछ तो कभी कुछ कभी किसी बात पर विवाद तो कभी किसी बात पर विवादों से परिसर का नाता जुड़ता रहा. अब तो स्थिति यह हो गई है कि परिसर में जिस माह कोई बड़ा विवाद नहीं होता तो कुछ खाली खाली सा शायद समझ में आता है. मगर परिस्थितियों पर गौर करे तो भले विश्वविद्यालय प्रशासन कहता रहे कि विश्वविद्यालय में बाहरी लोगो का हस्तक्षेप नहीं है मगर हकीकत कुछ इससे इतर है और बाहरी लोग अपनी राजनैतिक ज़मींन की तलाश में परिसर के अन्दर पाँव पसारने का प्रयास लगातार करते रहते है. यदि आँखों से देखा सच होता है तो कानो का सुना भी सच होता है.अभी कुछ दिन पहले छात्रों के दो गुट में इसी प्रकार से आपसी कहा सुनी होने के बाद मारपीट हुई थी. प्राक्टर साहिबा ने आकर मामले में मध्यस्ता करते हुवे दोनों गुटों में समझौता करवा दिया था. इस समझौते के बाद दोनों ही गुट थाने पर अपनी अपनी दिली हुई शिकायत वापस लेने पहुचे थे मगर इनका नेतृत्वकर्ता परिसर का न होकर बाहरी व्यक्ति ही था. मैं इस नेतृत्व कर रहे व्यक्ति की सज्जनता पर किसी प्रकार का कोई प्रश्न चिन्ह नही लगा रहा क्योकि उनका प्रयास पुरे समय केवल दोनों गुटों को समझाना था और अच्छी बाते ही सज्जन समझा रहे थे, मगर सवाल जो बड़ा था वह यह था कि आखिर छात्रो को आपसी समझौते के लिए किसी अन्य की आवश्यकता पड़ी ही क्यों ?

आज के विवाद में प्राप्त सीसीटीवी फुटेज अगर ध्यान से देखा जाये तो इसमें मारपीट करने जा रहे छात्रो में कुछ ने अपना चेहरा भगवा रंग के गमछे से ढका हुआ था. जो इस शंका को बलवती करता है कि इस विवाद की प्लानिंग कुछ लोगो की पहले से रही होगी. क्योकि अगर 50 के झुण्ड में कुछ लोग चेहरा ढके है तो उसका मतलब तो यह बनता ही है कि उस चेहरे की अपनी कोई शिनाख्त ज़रूर होगी और वह नही चाहता होगा कि मुझको पहचाना जाये. जिस प्रकार से परिसर में तोड़ फोड़ हुई जिस प्रकार से पेट्रोल बम चले वह वाकई चिंतनीय विषय है. क्योकि एक विश्वविद्यालय में पढने वाला छात्र अगर पेट्रोल बम बना सकता है तो कही न कही से समाज खतरे में तो है.

खैर जो भी हो मगर विश्वविद्यालय प्रशासन को इस सम्बन्ध में अब ठोस कार्यवाही ज़रूर करना चाहिए और विश्वविद्यालय के अन्दर शांति की स्थापना के साथ पठान पाठन का माहोल तैयार करना चाहिये. अब देखना है कि विश्वविद्यालय प्रशासन अपनी कमियों को छुपा कर दुसरे को आइना दिखाना कब बंद करता है. क्योकि जानते तो सभी है कि सच बात मान लीजिये चेहेरे पर धुल है, इलज़ाम आईनों पर लगाना फ़िज़ूल है.

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