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लंका थाना क्षेत्र के सुन्दरपुर का असुन्दर प्रकरण और तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – कत्ल भी हम ही हुवे, हमे ही सजा मिली

तारिक आज़मी

वाराणसी। लंका थाना क्षेत्र के सुन्दरपुर के असुंदर प्रकरण में प्रशासनिक कार्यवाही हो चुकी है। दरोगा, थाना प्रभारी सहित कई पुलिस वालो पर गाज आखिर गिर गई। खाकी पर खादी का वज़न आज भारी पड़ा। परसों यानी शुक्रवार को बीच सड़क पर पहले ज़लील होने के बाद खाकी को अदालत में भी दलील के सामने नतमस्तक हो जाना पड़ा। वही आज खादी के दबाव में बैठी जांच ने महज़ चंद घंटो में जाँच भी कर लिया। जाँच रिपोर्ट भी बना डाली और कार्यवाही भी हो गई। बेशक कप्तान साहब आपका शुक्रवार को जारी वीडियो बयान आज सच साबित हुआ कि ऐसी कार्यवाही होगी कि नजीर कायम हो। तो कार्यवाही तो ऐसे ही हुई कि नजीर कायम हो गई। एक खुबसूरत अशआर जैसे कार्यवाही कि कत्ल भी हम ही हुवे, और सजा भी हम ही मिली।

पुलिस कर्मियों पर आज गाज गिर पड़ी। शायद सत्ता पक्ष का ही दबाव था कि महज़ चंद घंटो में ही जाँच हुई और जाँच रिपोर्ट भी आ गई। वरना आम नागरिको के मामले में जांच को महीनो खीचते देखा है। सुबह सुबह जाँच अधिकारी लंका थाना परिसर तशरीफ़ लाये और सभी का बयान हुआ। बयान लंका एसओ, सुन्दरपुर के चौकी इंचार्ज सहित कई पुलिस कर्मियों का हुआ। इधर भाजपा लोबी के कुछ छुटभैया नेताओं ने रात से ही खुशिया मानना शुरू कर दिया था।

सुन्दरपुर में घटित इस असुंदर घटना में मानता हु कि पुलिस ने गुस्से में कुछ ज्यादा ही बढ़ा चढ़ा कर घटना को दिखाते हुवे मुकदमा दर्ज कर डाला। मगर मौके पर क्या हुआ था इसकी जानकारी क्या थाने पर बैठ कर बयान लेने के बाद पूरी हो चुकी थी। सवाल तो काफी बाकी है और रहते भी है। सत्ता का उपयोग अथवा दुरूपयोग क्या कहा जाए नही मालूम। शायद शब्दों की कमियों से लेख पूरा भरा नज़र आये, मगर क्या अराजकता और उसे बढ़ावा देना सिर्फ इसलिए माफ़ किया जाना चाहिए, क्योंकि लोगों का एक वर्ग प्रभावशाली होने के कारण किसी भी कार्रवाई से बाहर होना अपना अधिकार मानता है?

क्या कार्यवाही के लिए अराजकता को भी राजनैतिक पैमानों पर फिक्स करके देखा जाए अब। हम इस बात से कतई इनकार नहीं कर रहे है कि अपराध रोकने और कानून व्यवस्था संभालने के नाम पर पुलिस की मनमानी और लापरवाही होती रहती है। लेकिन इसका विरोध करने का सिलसिला कुछ ऐसी हद पार कर रहा है जहा पुलिस का इकबाल और वकार दोनों चुनौती पर है।

हालात ऐसी होती जा रही है कि पुलिस के लिए अपना रूटीन काम करना भी मुश्किल होता जा रहा है। अब हालात ऐसी होती जा रही है कि पुलिस ने कई मामलों में गैरकानूनी गतिविधियों की ओर ध्यान देना तक बंद करती जा रही है। क्योंकि किसी भी प्रकार की कार्रवाई करने पर अगले ही पल ऊपर से फ़ोन आने के साथ ही सियासत अपना परचम लहराने लगती है। आरोपी को छुड़वाने और कार्रवाई करने वाले पुलिसकर्मी को ही सज़ा दिलाने पुलिस थाने तक भीड़ ही पूरी पहुंच जाती है।

ये तो अक्सर का काम हो गया है कि एक चौराहे पर खड़ा सिपाही किसी को गलत करने से रोकता है तो उसको ही धमकी मिल जाती है। सत्ता पक्ष का नाम लेकर छोटी सी बात पर भी वर्दी उतरवा देने की धमकी अब रोजाना की घटनाओं में शामिल है। पुलिसवाले भी अब इन घटनाओं से इतना आजिज़ आ चुके हैं कि वे चालान भी तब ही करते हैं जब उन्हें अंदाज़ हो जाता है कि जिसे वे पकड़ रहे है वह दिखने में ही कमजोर और प्रभावहीन लग रहा है।

हकीकत तो ये है साहब कि पुलिस कर्मियों का मनोबल इतना गिर चुका है कि अपराधों को सुलझाने में उनकी कोई रूचि नहीं रह गई है। बड़ी साफ़ वजह है खुद की नौकरी जाने का उनके दिमाग में बैठता हुआ खतरा। उनके हत्थे कोई जरा सा भी प्रभावशाली व्यक्ति आया तो उसे लगभग तुरंत ही उन्हें छोड़ना पड़ता है। हालत तो ऐसी है कि बीच सड़क पर शराब के नशे में धुत होकर कोई पुलिस वाले को ही गालियों से नवाजे तो शायद कप्तान साहब भी पुलिस वाले की नही सुनेगे, मगर अगर उसी पुलिस वाले ने एक दो थप्पड़ लगा कर उसका नशा कमज़ोर कर डाला तो उसकी ज़रूर सुन लेंगे। ऐसा वाकई कई मामला हुआ है जिसके वीडियो तक सोशल मीडिया पर वायरल हो चुके है।

एक गीत के चंद बोल ने सिद्धार्थ को गौतम बुद्ध बना डाला। बोल थे “वीणा के तारो को इतना न कसो की वह टूट जाए, वीणा के तारो को इतना भी ढील न दो कि वो न बजे।” ठीक है कि पुलिस पर लगाम नही रहेगी तो वह निरंकुश हो जायेगी। मगर सख्ती शायद इतनी भी नही होनी चाहिये कि मनोबल टूट जाए। पुलिस कोई कार्यवाही करती है तो जाँच वाकई ज़रूरी है। मगर जाँच में पुलिस के पक्ष को भी सुन और समझ लेने में क्या हर्ज है। शायद दोनों पक्षों को सुना जाना ज़रूर चाहिए।

किसी भी पुलिस वाले के द्वारा किये गए कार्यवाही पर जाँच तत्काल बैठी है। रिकॉर्ड को अगर देखे तो कितने दरोगा ऐसे जाँच में लाइन हाज़िर हुवे है और कितने को सस्पेंशन झेलना पड़ा है। लंका थाना क्षेत्र में कुछ उपद्रवी छात्रो को नियंत्रित करना एक दरोगा को महंगा पड़ जाता है क्योकि शराब के नशे में धुत कुछ छात्रो को पुलिस थाने का मेहमान बना देती है। छात्र संगठन के दबाव में दरोगा को लाइन हाज़िर कर दिया जाता है। जबकि हकीकत ये थी कि दरोगा ने थोडा सख्ती दिखाई और मामले को हल्के में निपटा दिया था वरना स्थिति दो पक्षों में आपसी खुरेज़ी होने की थी। मौके पर मैं खुद मौजूद था। 20-25 शराब के नशे में धुत उपद्रवी छात्रो द्वारा एक छात्र को पीटा जा रहा था। घटना को रोकने के लिए मौके पर गए सिपाही को भी इन शराब के नशे में धुत उपद्रवी छात्रो का कोपभाजन होना पड़ा था और उसको ज़मीन पर गिरा कर छात्रो ने मारा था। कार्यवाही क्या हुई सर ? सबको मालूम है उस दरोगा जिसने वर्दी की लाज रखते हुवे उपद्रवियों को दौड़ा लिया था को लाइन हाज़िर होना पड़ा था। खुद उसकी जाँच हुई। जबकि हकीकत ये भी है कि वाराणसी पुलिस में क्राइम पर अच्छी और मजबूत पकड़ रखने वाला दरोगा फस्ट्रेशन का शिकार हो गया। उन उपद्रवी छात्रो द्वारा उसकी हुटिंग तक किया गया और आज भी ये हुटिंग जारी है।

ये कोई पहला केस नही है साहब, एक कुख्यात अपराधी की तलाश में पुलिस ने एक संदिग्ध कारोबारी को पूछताछ के लिए उठाया। पूछताछ मुकम्मल हुई और उसको बाइज्ज़त छोड़ दिया गया। वो भी चंद घंटो में ही। रिजल्ट क्या आया ? उसी संदिग्ध कारोबारी जिसकी अगर ढंग से जाँच हो जाए तो खुद कटघरे में खडा नज़र आएगा ने पुलिस पर ही बड़ा और झूठा आरोप लगा डाला। तत्कालीन लंका इस्पेक्टर के खिलाफ जाँच हुई। भले जाँच में उनको क्लीन चिट मिली हो मगर उसी दौरान उनका अन्य जनपद स्थानांतरण उस व्यवसाई को एक बल दे गया और आज इलाके में खुद की हनक बनाने के लिए कहता है कि निपटा दिया। इसी तरह चौक थाना क्षेत्र के एक चौकी इंचार्ज ने दो पक्षों के झगड़े में दोनों पक्षों के तहरीर के अनुसार कार्यवाही करना शुरू किया तो नाराज़ एक पक्ष दरोगा पर ही आरोप लगा बैठा है और जाँच हो रही है मामले की।

इसी सुन्दरपुर के असुन्दर प्रकरण को आप देख ले। जो पुलिस कर्मी सड़क पर मार खाते हुवे वीडियो में आये है। जिनका कालर ऐसे पकड़ा गया जैसे वो पुलिस नही चोर हो। क्या सर उठा कर अब इस शहर में नौकरी कर पायेगे ? और कार्यवाही भी उलटे उनके ऊपर ही हुई है। हुज्जत के बाद ही सही क्लीन चिट के साथ नेता जी और उनके साथी आराम से सडको पर टहलेगे। वहा आने वाले पुलिस वालो के दिमाग में इसका खौफ भी होगा और उनकी किसी बात पर पुलिस कभी विरोध नही कर पाएगी। शायद पुलिस के मनोबल को तोड़ कर समाज में अपराध पर नियंत्रण नही रह सकता है।

मेरा मकसद कही से भी पुलिस की खैरखाही करना नही है। जो हकीकत आम जनता देख रही है उसको ही अपने लफ्जों में बयान कर देना है। खुद देख ले कई ऐसे अपराध है जिसके खुलासे के लिए विवेचक को सख्त होना पड़ेगा, मगर उसके खुलासे केवल इसी वजह से नही हो रहे है क्योकि सख्त हो कौन ? आखिर लोड कौन ले ? किसको अपनी नौकरी प्यारी नही है। बेकार का कही सख्ती दिखाने के चक्कर में खुद के नौकरी के लाले न पड़ जाए। खुद देख ले। बीएचयु में एक गरीब चाय वाले की हत्या का खुलासा आज तक नही हो सका है। तहसील में बबलू सिंह हत्याकांड में पुलिस के हाथ आज तक खाली है। दीपक वर्मा, गिरधारी लोहार से लेकर अज़ीम तक आज भी फरार है। आखिर कौन लोड लेगा ?

कत्ल भी हम ही हुवे, और सजा भी हमे ही मिली या फिर ऐसे भी कहा जा सकता है कि कातिल की ये दलील मुंसफ ने मान ली, कि मकतुल खुद गिरा था खंजर के नोक पर।

(बड़े भाई समान अरशद आलम के वाल से चंद लफ्जों को साभार लिया गया है)

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