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शेर-ए-मैसूर टीपू सुल्तान की शहादत दिवस पर विशेष: जिसकी ज़िन्दगी ने साबित किया कि बुजदिली के 100 साल की जिंदगी से बेहतर है, बहादुरी के चन्द घंटो की जिंदगी

अनुराग पाण्डेय

आज यानी 4 मई 1799 को शेरे मैसूर टीपू सुल्तान की शहादत श्रीरंगापट्टनम के किले में अंग्रेज और निज़ाम की संयुक्त सेना से लडते हुए हुई थी। आज टीपू सुल्तान का शहादत दिवस है। भले इतिहास टीपू सुल्तान को बुलने के कगार पर है। मगर हकीकत ये है कि टीपू सुल्तान ने अंग्रजो के खिलाफ जो बिगुल फूंका था वह 15 अगस्त 1947 को अंजाम पाया और मुल्क आज़ाद हुआ।

बीस नवम्बर 1750 को देवनहल्ली (वर्तमान में कर्नाटक का कोलर जिला) में जन्मे टीपू सुल्तान के पिता का नाम हैदर अली था। हैदर अली महाराजा मैसूर कृष्ण राज वडयार की सेना में एक सिपाही की हैसियत से भर्ती हुए और अपनी बहादुरी के बलबूते सेना के सिपाहसालार बने। बाद में महाराजा मैसूर सिर्फ अपने राजमहल तक ही सीमित रहते थे और हैदर अली रियासत-ए-मैसूर के सुल्तान बन गए। हालांकि इसके बाद भी महाराजा की शानो-शौकत में कोई कमी उन्होंने आने नहीं दिया। महाराजा मैसूर कृष्णराज वड्यार वैसे ही शान-ओ-शौकत से ज़िन्दगी गुजारते रहे। जबकि खुद हैदर अली सल्तनत पर होने के बावजूद भी ज़िन्दगी भर संघर्ष करते रहे।

संघर्ष के कारण हैदर अली तालीम से हासिल नही कर पाए थे। लेकिन अपने बेटे फतेह अली ‘टीपू’ को आला दर्जे की तालीम का इंतज़ाम करके दिया। इसके अलावा फौजी ट्रेनिंग भी साथ साथ चली।  सुल्तान टीपू बहादुर हर हुनर के साथ साथ इल्म भी हासिल करके बड़े आलिमो में शुमार होने लगे थे। सुल्तान टीपू ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने कभी घुटने नही टेके थे और ईस्ट इंडिया कंपनी उनको घुटनों के बल लाना चाहती थी। जिसके बाद टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया। मैसूर की दूसरी लड़ाई में अंग्रेजों को शिकस्त देने में उन्होंने अपने पिता हैदर अली की काफी मदद किया। जिससे खुश होकर हैदर अली ने उनको शेर-ए-मैसूर का खिताब दिया और उन्हें मैसूर की गद्दी पर बैठाला। ये जंग अँगरेज़ निजामों के साथ मिल कर लड़ रहे थे। हार से बौखलाए हैदराबाद के निजाम ने टीपू से गद्दारी की और अंग्रेजों से मिल गया।

जिसके बाद मैसूर की तीसरी लड़ाई में जब अंग्रेज टीपू को नहीं हरा पाए तो उन्होंने टीपू के साथ मेंगलूर संधि की लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजों ने उन्हें धोखा दिया, टीपू सुल्तान ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए बहुत बड़ी दीवार साबित हो रहे थे, ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदराबाद के निजाम से मिलकर टीपू की सफों में गद्दार पैदा किए और चौथी बार टीपू पर ज़ोरदार हमला कर दिया और आखिरकार चार मई 1799 को श्रीरंगपट्टनम की हिफ़ाज़त करते हुए मैसूर का यह शेर शहीद हो गया।

टीपू सुल्तान को ठिकाने लगाने के बाद मराठा सरदार, राजपूत, निजाम हैदराबाद, अवध और पंजाब की रियासत, सब को खत्म कर दिया गया चालबाज़ी और मक्कारी से, बंगाल तो पहले ही उनके कब्ज़े में आ चुका था, सुल्तान टीपू ने कई बार कोशिश की थी कि निज़ाम और मराठों के साथ मैसूर को मिलाकर अंग्रेज़ों के खिलाफ एकजुटता दिखाए। लेकिन शेर ए मैसूर की बात किसी को समझ में नहीं आई कि अंग्रेज हमसे चाहते क्या हैं? बाद में अंग्रेज़ों के सारे साथी निजाज़ और मराठे अंग्रेजो के धोखे का शिकार हुवे और भारत में ब्रिटिश साम्राज्य कायम हो गया।

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