तारिक़ आज़मी की मोरबतियाँ: बलिया में चल रहा “सच बोलना है मना, लब खोलना है मना,” बलिया डीएम साहब, पेपर लीक प्रकरण में प्रशासनिक नाकामयाबी का दंड बेक़सूर पत्रकारों को मिल रहा है
तारिक़ आज़मी
बलिया में पेपर लीक प्रकरण में तीन बेक़सूर पत्रकार जेल में है। पुरे मुल्क के पत्रकारों में रोष है। सियासत ख़ामोशी तो नही ओढ़ सकती थी तो विपक्ष ने भी विरोध किया है। कहा जाता है कि “कलम के नोक पर नुख्ता है कोई, जो सच हो वो भला छुपता है कोई।” मगर बलिया के डीएम साहब आपने तो कलम के नोख पर पहरा ही लगाने की कोशिश कर डाली। चलिए कम से कम इससे एक फायदा तो हुआ कि बलिया के पत्रकारों में ज़बरदस्त एकता आ गई। सबके समझ में आ गया कि नम्बर तो उनका भी आयेगा।
कुछ ख़ामोशी के दफ्तर में थाने की सेटिंग में आज भी भले लगे हो। मगर पत्रकारिता तो उबाल पर आ ही गई है। इसमें सबसे समझने वाली बात ये है कि ज़मीनी स्तर की खबरनवीसी उबाल पर है। भले लोग काफी ऊपर के स्तर पर जाकर कुछ भी करे मगर मुकाम पत्रकारिता को ज़मीनी स्तर पर ही मिलता है। ज़मीनी स्तर की पत्रकारिता उबाल पर आ गई। “करे कोई, भरे कोई” के तर्ज पर इसके पहले भी पत्रकारों को बलिया में फंसाने का काम हुआ है। इसके पहले भी पेपर लीक मामले में दर्ज हुवे मुक़दमे में तत्कालीन जिलाधिकारी बलिया ने वरिष्ठ पत्रकार मधुसुदन से बात करके वायरल हो रहे पेपर को माँगा था। उन्होंने दिया भी और मुक़दमे में पत्रकार मधुसुदन नामज़द हो गए थे। ये तत्कालीन बलिया डीएम की सुझबुझ थी कि बाद में दौरान विवेचना पत्रकारों के एक बड़े प्रयास के बाद मधुसुदन का नाम मुक़दमे में से निकला था।
मगर बात तो तब भी यही थी कि “सच बोलना है मना, लब खोलना है मना”। न मधुसुदन ने सच बोला होता और न ही परेशान हुवे होते। हमने मधुसुदन जो हमसे उम्र में काफी बड़े है से बात किया तो उन्होंने उन दिनों को याद करते हुवे बताया कि वह ऐसा समय था कि गिरफ़्तारी की तलवार लटकी हुई थी। कई दौर की वार्ता के बाद हमारा नाम उस मुक़दमे में से निकला था। सिर्फ मैं ही नही बल्कि मेरा पूरा परिवार इस दहशत में था कि कही रात-बिरात मेरी गिरफ़्तारी न हो जाए। जो भी मित्र सम्बन्धी थे सबसे अपनी व्यथा को बताया। पत्रकारों के साथ कई दौर वार्ता के बाद मुझको राहत मिली थी।
मगर गिरफ्तार तीन पत्रकारों को तो इसका भी मौका नही मिला। अजीत ओझा अपने गिरफ़्तारी के पहले हमसे बता रहे थे कि किस प्रकार से जिलाधिकारी ने उनसे फोन पर बात किया और उनसे वायरल हुआ प्रश्न पत्र माँगा। अब इसको अजीत ओझा के कम अनुभव कहे अथवा उनका अति उत्साह कहे कि उन्होंने जिलाधिकारी को वायरल हुवे प्रश्नपत्र फारवर्ड कर दिए। यहाँ से उनकी गिरफ़्तारी की पठकथा तैयार हुई। अजीत के करीबियों की माने तो पुलिस ने उनके कार्यालय में जाकर उनको ऐसे गिरफ्तार किया जैसे “ओसामा बिन लादेन” मिल गया हो। एक निरीह, डरा हुआ पत्रकार सलाखों के पीछे पहुच गया। नौकरशाही अपनी पीठ खुद थपथपा कर खुद को शाबाशी दे सकती है। मगर कहा जाता है कि सच की चमक चेहरे पर दिखाई देती है। दिग्विजय सिंह की गिरफ़्तारी के बाद जब अदालत में पेश करने के लिए पुलिस लेकर उनको कचहरी परिसर पहुचती है तो भारी पुलिस फ़ोर्स साथ रहती है।
यहाँ सच का चमकता हुआ चेहरा दिखाई देता है। जेल जाने के लिए खड़े दिग्विजय सिंह ने जमकर जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक के खिलाफ नारे लगाये थे। जमकर वीडियो वायरल हुआ था। देश के लिए एक अजनबी सा चेहरा हिम्मत का सुपरस्टार बन गया। मगर डीएम साहब, आप इस पूरी फिल्म के किस जगह खुद को फिट मानते है खुद सोचे। पत्रकारिता के लिए एक बुरा समय चल रहा है। आपके पास कुर्सी की ताकत है हुजुर आप उस कुर्सी की ताकत का इस्तेमाल पत्रकारिता की आज़ादी को नियंत्रित होने के लिए कर सकते अहि। मगर ध्यान दे कि हम पत्रकार समाज का आइना है। समाज को हम आईना दिखाते है। आप सोचिये सिर्फ कि आप अपनी बच्चो को कौन से समाज उपहार में देना चाहते है ? आप उस समाज का निर्माण कर रहे है जहा सच पर पहरा हो। कोई बोल न सके। बोले मगर आवाज़ न निकले। कान खुले रहे मगर सुनाई कुछ न दे। आँखे बंद न करे मगर देखे कुछ न। ऐसा समाज आप अपने बच्चों को देना चाहते है क्या ? डीएम साहब आपके भी बच्चे आज नही कल बड़े होंगे। फिर वो आपसे सवाल पूछेगे कि “पापा कौन से समाज को दिया आपने? तो क्या जवाब आपका होगा।”
डीएम साहब, आपने सच को कुचलने की कोशिश किया। सच का गला दबाने की कोशिश किया। फिर भी देखे, गांधी को गोडसे की तीन गोलियां मार नही सकी और गांधी की आंधी आज भी है। कल मंगलवार को सभी तीनो पत्रकारो अजीत ओझा, मनोज गुप्ता और दिग्विजय सिंह की अदालत में पेशी हुई। बेशक जेल की सलाखे हिम्मत तोडती है। मगर गाँधी के सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़े पत्रकारों के चेहरे पर कोई भी खौफ नही था। उनकी हिम्मत नही टूटी थी। बस थोडा परेशान अपने परिवार के लिए दिखाई दिए। इन्साफ अदालत से मिलेगा इसका सभी पत्रकारों को अटूट विश्वास है। प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी हुई। सच कहू आपके भी खिलाफ नारे लगे। आप तक बात तो पहुची होगी ज़रूर। पत्रकारों की गिरफ्तारी को लेकर पत्रकार, राजनीतिक दल, व्यपारी संगठन, पटरी दुकानदार, अधिवक्ता, कर्मचारी आदि सभी लामबंद हैं। निर्दोष पत्रकारों को रिहा करने, जिलाधिकारी और एसपी को निलंबित करने तक आंदोलन को जारी रखने का एलान कर चुके है।
हकीकत बता रहा हु कि ये उपलब्धी है दिग्विजय सिंह की इतने सालो में, ये उपलब्धि अजीत ओझा की है और ये उपलब्धि मनोज गुप्ता की है। सभी जानते है कि सच पर पहरा आपने लगाने की कोशिश किया है। मगर सच है साहब दिखाई देता है। देखिये कितने निर्भीक है पत्रकार आपके खिलाफ धरने पर बैठे है। ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष सौरभ लाल श्रीवास्तव, पूर्व प्रधानाचार्य चंद्रशेखर उपाध्याय, पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष नागेंद्र बहादुर सिंह झुन्नू, छात्र नेता प्रवीण सिंह, जिलाध्यक्ष ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन बलिया शशिकांत मिश्र, मधुसूदन सिंह प्रांतीय मुख्य महासचिव भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ उत्तर प्रदेश, संदीप सौरभ, अखिलानंद तिवारी,हरिनारायण मिश्र, रजनीकांत सिंह, प्रदीप गुप्ता एडवोकेट, मंजय सिंह, राणा प्रताप सिंह, जिलाध्यक्ष भारतीय राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ, मुकेश मिश्र, मनोज, अरविन्द, मुकेश यादव, संजय ठाकुर, मनोज चतुर्वेदी, अजय भारती, संजय तिवारी, दिनेश गुप्ता, नरेंद्र मिश्र,अमित वर्मा, विवेक जायसवाल, विनोद पांडेय। कितने नाम लिखू जगह कम पड़ जाएगी मगर नाम नही कम पड़ेगे। ये है उन निरीह पत्रकारों की कमाई। सभी इन बेकसूर पत्रकारों की रिहाई हेतु बैठे है। आपके निलंबन की मांग कर रहे है। कब तक सच छिपा सकते है, कब तक कलम पर पहरा लगा सकते है। पत्रकार है हम साहब, आइना समाज को दिखाते है। रुखी सुखी खाकर खुद का भले जीवन बसर करे, दुसरे को घी चुपड़ी ही खिलाते है। सच से अपना बैठाया गया पहरा उठाये साहब।