होली पर तारिक आज़मी की मोरबतियाँ: नफरते आखिर कहा ले आई ? ‘कोई उम्मीद बर नही आती, कोई सूरत नज़र नही आती……., पहले आती थी हाल-ए-दिल पर हंसी, अब किसी बात पर नही आती’

तारिक आज़मी

अब होली कुछ वैसी तो नहीं रहती है, जैसे हमारे बचपन या हमारी जवानी में हुआ करती थी। मेरे लफ्ज़ ‘जवानी’ से आप मुझे जईफ या बुज़ुर्ग न समझे। मैं आज से लगभग डेढ़ दशक पहले तक की बाते कर रहा हु। मगर डेढ़ दशक पहले 6 माह का फलिए पर खेलता हुआ हमारे पानारू यादव चचा का बेटा अब जब बाते कई दशक पुरानी करने लगे तो जवान उनको ही समझना चाहिए जो अभी किशोर अवस्था में अंगाई ले रहे है। फिर खुद को खामोश करके बुजुर्गो में शामिल कर लेना चाहिए।

बहरहाल, एक वक्त वह भी था कि हर रंग अपने आप में खामोशी से कुछ कहता था। अल्हड मस्ती रहती थी। ना पता रहता था कि हम हिंदू या मुस्लिम है। बस यही पता रहता था कि पढो लिखो, खेलो कूदो, मौज मस्ती और बनारसी अल्हड़ता। पता नहीं वक्त कब तब्दील हुआ और वक्त को इतनी रफ्तार कहां से मिल गई कि उसका दिल पत्थर का हो गया। उस वक्त ने समाज को ऐसा बदला कि अब समाज को मोआ’शरा कहने से पहले सोचना पड़ता है। लफ्जों में मज़हब की तलाश हो जाती है। ज़ेहन इसी फिक्र में रहता है कि ‘लब कुछ न कहे तो अच्छा है, ये चुप ही रहे तो अच्छा है।’ क्या पता कौन लफ्ज़ हमारे नाम की ही पहचान करवा जाए?

वक्त ऐसा बदल गया कि वह नाम में भी मजहब तलाशने लगा। बचपन का दिन याद है जब होलिका दहन के वक्त मोहल्ले के सभी बड़े बूढ़े खास-तौर से बुलाए जाते थे। यहाँ बढे बूढ़े के नाम में मज़हब की फिक्र नही रहती थी। पनारू यादव और कलीम के बीच कोई फर्क नही रहता था। उसमें उनके नाम में मजहब नहीं देखा जाता था। होलिका दहन के बाद सुबह रंग खेला जाता था, और रंगों के बाद अबीर का दौर चलता। हल्का सा अबीर लगाकर एक दूसरे को होली की बधाई दिया जाता था। गुज्झियो के मिठास में कभी मजहब के टशन की कड़वाहट नहीं दिखी मुझे।

अब्दुल गनी की शक्कर और सत्तर के खोये से ही बनती थी वह गुझिया। एक लंबे अरसे तक होली तब तक मुकम्मल नहीं होती थी, जब तक मैं मुकेश के घर नहीं जाता था, और मेरी ईद तब तक मुकम्मल नहीं होती थी जब तक वह मेरे घर नहीं आता था। ये वह वक्त था जब हमारा सिर्फ एक धर्म था और एक मजहब था, वह थी इंसानियत और खुशी। बेशक हो सकता है कि वह दौर-तालीम-ओ-तबीयत या फिर कहे शिक्षा-दीक्षा का हुआ करता था। वह भी एक वक्त था जब हम चलते हुए रंगों के बीच से गुजर जाते थे और नमाज पढ़ने के लिए मस्जिदों में जाते थे। हमारे ऊपर रंगों के छींटे तक नहीं पड़ते थे।

आज एक वक्त है, जब दिल में यही ख्याल रहता है कि रंग रुक जाए तब बाहर निकले। वह भी एक वक्त था जब रंग खेलने वालों की टोली हुआ करती थी। ऐसा नहीं है कि उसे उजड्ड उस वक्त नहीं होते थे, कुछ होते थे मगर उनको मस्जिदों के आसपास ही रहने वाले उन्ही के धर्म को मानाने वाले लोगों के द्वारा विरोध करके मस्जिदों के दीवारों पर रंग नही डालने दिया जाता था। अगर गलती से पड़ भी जाता था तो वह लोग ही खुद से साफ़ कर देते थे। मस्जिदों का एहतराम वह भी करते थे। कभी कोई भी बात नहीं होती थी। अब तो यह मामूली खबर जैसा हो गया है कि अमुक मस्जिद के दीवारों पर रंग फेक कर माहोल ख़राब करने की कोशिश की गई।

मोहर्रम का जुलूस निकलता था। आज भी मुझे याद है की कई अखाड़ो के उस्ताद हिंदू धर्म के थे। मगर अपने अखाड़े के साथ वह आगे-आगे ‘या हुसैन, या हुसैन’ की सदा लगाते हुए चलते थे। बहुत ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है, कोयला बाज़ार निवासी संकठा के’ पिताजी जो अब इस दुनिया में नहीं रहे, वह खुद अपने अखाड़े का जुलूस मोहर्रम के तीजा पर निकलते थे। संकठा खुद उस जुलूस में आम लोगो के तरह लाठी और तलवार से अपने हुनर को प्रदर्शित करते थे। मगर पता ही नहीं चला कि कब वक्त तब्दील हो गया। अखाड़े आज भी है, बस उसकी ‘या हुसैन’ की सदा अब किसी संकठा के लबो से आती नही सुनाई पड़ती है। होलिका आज भी जलाया जाता है, बस उस वक्त मोहल्ले के बुज़ुर्ग कोई अब्दुल को नही बुलाया जाता है।

हम कहां से कहां आ गए, जहां नाम में मजहब की तलाश होती है। जहां हमको यह संस्कार दिलने लग गया कि अमुक की पहचान उसके कपड़ों से की जा सकती है। जहां हमको यह तरबियत दिलने लग गई की होली पर मस्जिदों को दीवार पर भी रंग फेंक दो। न जाने कब वह वक्त आ गया जब एक दूसरे के बीच इतनी दुरी हो गई कि वह दूरी अब खाई जैसी लगती है। न जाने ऐसा वक्त कब आया जब इस अल्लहड मस्ती के त्योहार पर बाहर निकलने से पहले सोचना पड़ता है। न जाने वह वक्त कब आ गया जब होली की बारात के नाम पर सार्वजनिक फूहड़ता होने लगी।

न जाने वह वक्त कब और कहा काफूर होने लगा। हम भूल से गये है कि ईद की सेवइयों की मिठास भगवान दास की दुकान से आई हुई शक्कर और राजेश श्रीवास्तव की सेवई से बनकर तैयार होती है। हम भूल जाते है कि असलम के बने हुए अबीर से होली का त्यौहार मनाया जाता है। दूरी इतनी हो गई कि एक दूसरे की धड़कन तो बहुत दूर की बात, आवाज तक एक दूसरे तक न पहुंचे। धामपुर की घटना सिर्फ इसलिए उल्लेख नही कर रहा हूँ कि वहां जो हुआ वह गलत था। या फिर शायद किसी ने ख्याल नहीं किया होगा कि उस मुस्लिम परिवार के साथ महिलाएं भी थी। बस सिर्फ आप पुलिस के उस बयान को सुने जो गिरफ़्तारी में सामने आया। पुलिस के अनुसार घटना में गिरफ्तार हुवे 4 में से 3 नाबालिग थे।

सिर्फ सोचिएगा तो इतना कि आखिर वह कौन सी ऐसी सोच है, जिसने हमारे बच्चों को भीड़ में तब्दील कर दिया, जिसने हमारे बच्चों को उपद्रवी बना दिया, जिसने हमारे बच्चों को बदतमीज बना दिया। भले से आप होली के रंग खेलते हो और आप इसी धर्म में आस्था रखते हो, मगर बीच सड़क पर आपके परिवार के साथ अगर ऐसी घटना होती, तो क्या आपका खून नहीं खौलता। अगर आपका जवाब हाँ में है तो माफ़ कीजियेगा आपको कोई हक नही बनता है इस घटना की आलोचना करने का। क्योकि समाज या मुआ’शरा हमारा आपका है तो दिल पर हाथ रख कर बताये कि क्या आपने इन नफरतो को खत्म करने की कोई पहल किया। आपने समाज में एकता की बुनियाद के लिए पैरोकारी किया। हकीकत तो ये है कि इस नफरत से दूर हटाने के लिए आपने कोई कदम नहीं बढ़ाया।

आपको कोई हक नहीं बनता कि अपने घर की आराम कुर्सी पर बैठकर इस तरीके की तस्वीरों की आप निंदा कर सकें। क्योंकि आपने खुद कभी अपने बच्चों से उनके रवैया में इस बात का एहसास नहीं भरा होगा कि इंसान सब एक बराबर है और सभी की भावनाओं की कद्र करना चाहिए। वह वक्त कुछ और था जब हमारे हाथ में मोबाइल नहीं हुआ करता था। हमारे हर एक कमरे में टीवी नहीं हुआ करती थी। घर में एक लैंडलाइन हुआ करती थी, पूरा मोहल्ला उसका नंबर अपने-अपने रिश्तेदारों को दे रखा था। वह वक्त कुछ और था जब घर की एक टीवी पर आने वाले सीरियल को पूरा परिवार एक साथ बैठकर देखा था। बेशक हमारे पास उस वक्त इतनी सहूलियतें नहीं थी, मगर आपसी मुहब्बत थी। सुकून था। एक दुसरे के सम्बन्ध में अच्छी बुरी जानकारी थी। बडो का सम्मान और छोटो के लिए मुहब्बत थी।

आज हमारे हर कमरे में एक टीवी है। सभी सदस्यों के हाथो में मोबाइल है। सारी आसाईशे है। बस सिर्फ सुकून और मुहब्बत को छोड़ कर। हम इतने व्यस्त हो गये है कि एक छत के नीचे रहते हुवे एक दुसरे को जन्मदिन और त्योहारों की बधाई सोशल मीडिया पर दिया करते है। अब इसी सुकून और मोहब्बत के लिए हम में से कई ऐसे हैं, जो पैसे खर्च करके प्रवचन सुनते हैं। मोटिवेशनल गुरु की बाते सुनते है। बस हमारी रफ़्तार बहुत तेज़ हो गई है। हम तो इतनी तेज रफ्तार में हो गए हैं कि अपने बच्चों के साथ बैठ करके बातचीत भी नहीं करते। आज हमारे पास मोटे आरामदायक गद्दे है। कमरे में एसी है। फ्रिज का ठंडा पानी है। मगर क्या वह सुकून की नींद है जब धुप की तपन के बाद छत पर पानी का छिड़काव करके उस पर बिस्तर बिछा कर जो आती थी? सोचियेगा कभी।

पहले गर्मी आती थी तो मोहल्ले के सारे बच्चे शाम के वक्त कबड्डी जैसे खेल खेला करते थे। उसमें कोई भी बच्चा एक दूसरे के नाम में मजहब या धर्म नहीं तलाश करता था। मगर व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने हमारे वक्त को इतना तंग कर दिया कि हम क्रिकेट जैसा खेल भी मोबाइल में बैठकर खेलते हैं। हमारे बच्चों को WWE जैसे खेल जो हिंसा की भावनाओं को जागृत कर सकते हैं, वह पसंद आते हैं और हम बड़े खुशी-खुशी उनकी उन हरकतों को देखते हैं कि हमारा छोटा सा नन्हा सा मासूम बच्चा जो अभी भी पानी को मम्म और रोटी को टूटू कहता है, वह अपने टेडीबियर को WWE के किसी सुपरस्टार जैसा स्लैम मार रहा है। बस इसको देख कर हम बहुत खुश हो जाते हैं हमने कभी नहीं सोचा कि इससे हमारे बच्चे के दिमाग में हिंसा की भावना घर कर रही है।

मैंने शुरुआत में तालीम-ओ-तरबियत की बात किया, तो एक घटना से आपको रूबरू करवाता चलता हूं। पिछले दिनों प्रतापगढ़ के एक कारोबारी नईम मियाँ की कुछ युवकों ने गोली मारकर हत्या कर दिया था। पुलिस ने सीसीटीवी फुटेज के आधार पर तीन युवकों को गिरफ्तार किया था, नाम थे पियूष, शुभम और प्रियांसू। यहां मैं उन लड़कों का नाम इसलिए नहीं लिख रहा हु कि आप नाम में मजहब अथवा धर्म तलाशे। बात कुछ और है। बात ये है कि नईम मियाँ की हत्या में पकडे गए तीनो शूटरो से जब पुलिस ने जमकर पूछताछ किया तो पुलिस के भी पैरों के नीचे से शायद जमीन सरक गई होगी। तीनो ने बताया कि नईम मियां के नाबालिक बेटे ने ही उनको अपने पिता की हत्या के लिए 6 लाख 50 हज़ार की सुपारी दिया था जिसमें से डेढ़ लाख रुपए एडवांस भी दिए थे। एक नाबालिक बेटा अपने आप की हत्या सिर्फ इसलिए करवाया क्योंकि उसको लगता था कि उसका बाप उसको पॉकेट मनी काम देता है।

क्या कहेंगे इसको ? तालीम की कमी बेशक नहीं रही होगी क्योंकि नईम मियां अपने बेटे को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ा रहे थे। हाँ तबीयत की तो बेशक कमी थी, शायद अपने कारोबार में अपने रोज के दिनचर्या में हम व्यस्त होकर अपने बच्चों की जिद्द को पूरा करते हुए उनको जिद्दी बना रहे। हमको नहीं पता हमने कब आखरी बार पूछा था अपने बच्चों से की होली जब तुम सड़क पर खेल रहे थे तो क्या किसी अजनबी के ऊपर तो तुमने रंग नहीं डाल दिया। लगे रहिए भीड़ में तो तब्दील तो हुई चुके हैं। हमारे और हमारे बच्चों के दिमाग में नफरतें अपना घर कर चुकी है।

तारिक आज़मी
प्रधान सम्पादक

चलिए इन सब के बीच आपको रंगों के पर्व होली की हार्दिक शुभकामनाएं भी दे देते हैं। मुझे पता है कि मेरी होली की हार्दिक शुभकामनाएं भी कई लोग मज़हबी और सियासी चश्मे से देखेंगे। मगर कभी अगर यह चश्मा उतर जाए तो सोचिएगा कि तेलंगाना में सार्वजनिक रूप से हस्तमैथुन कर अपना वीर्य फालूदा में मिलाकर बेचने वाले दुकानदार कालूराम को ट्विटर के कौन से चमनचिल्ली मुस्लिम साबित करने में व्यस्त हैं। उनका क्या फायदा, यह तो हमको नहीं पता, मगर आप जरूर सोचिएगा की आपको क्या नुकसान। मुझे पता है कि हमने सोचना तो बंद कर दिया है, क्योंकि हमारे पास अब सोचने की फुर्सत नहीं है कि ऐसे हालात में हमारा खुद का मुस्तकबिल क्या होगा ? तो रस्म के तौर पर ही सही, मिलते हैं ‘आस्ता द लाविस्ता’।

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