मतदाताओं को रिझाने के लिए नेता अपना रहे नए नए हथकंडे

सरताज खान

गाजियाबाद लोनी। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की श्रेणी में आने वाले भारतवर्ष की बागडोर हाथ में आने के लालची नेताओं का चुनावी बिगुल बजते ही वह एक बार फिर किसी न किसी तरीके से मतदाताओं को रिझाने में जुट गए हैं। और यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि आज का मतदाता भी जातिवाद या अन्य किसी स्वार्थ के चलते जोड़-तोड़ की राजनीति का मजा लूटने वाले ऐसे नेताओं की सोच का शिकार बन जाते हैं। जिनके द्वारा बनाई गई ऐसी सरकार की यह भी कोई गारंटी नहीं होती कि वह कितने दिन चल पाएगी, जिसके लिए कहीं ना कहीं हम स्वयं दोषी होते है।

हम अपने निजी स्वार्थों की भूल भुलैया में इतना खो गए हैं कि आजादी की सांस के लिए अपने इस देश पर मर मिटने वाले उन शहीदों की कुर्बानी तक भूल चुके हैं। वैसे भी गौर करें तो आज देश प्रेम जैसी भावना हम में बची ही कहां है। जो हम नागरिकों को कलंकित कर देने जैसी बात नहीं तो और क्या है। क्या उन शहीदों ने कभी सोचा होगा कि उनके सपनों के भारत की दशा ऐसी होगी..? यदि हम में जरा भी गैरत शेष है तो अपने जहन में झांक कर देखने से एक ही आवाज की सनसनाहट सुनाई देगी। जिसके लिए हमारा सिर शर्म से झुक जाएगा। यदि वास्तव में उस सनसनाहट में इतना असर है तो क्यों न हम उसके अनुकूल ही चले ताकि हमारा सिर सदैव गर्व से ऊपर रहे। और जब सभी की सोच ऐसी होगी तो देश का वर्चस्व अपने आप ही ऊंचा होगा।

सच तो यह है कि हम सब कुछ जानते हुए भी अनभिज्ञ बने रहते हैं क्योंकि हम अपने निजी स्वार्थों एवं जातिवाद आदि के चलते सच से मुंह छुपाकर आपस में ही लड़ते आ रहे हैं। आपसी भाईचारे व एकजुटता की दुआएं देने वाले नेताओं को भी आज ऐसे ही मतदाताओं की जरूरत है जो स्वछ सोच खो देने वाले ऐसे मतदाताओं का कठपुतली की तरह प्रयोग कर रहे है। और इस तरह बिना स्वच्छद सोच के किए गए मतदान के बाद जो सरकार बनती है ऐसी स्थिति में देश की जो दुर्गति होती है वह किसी से छिपी नहीं होती और एक बार फिर हम ऐसे मतदाता सरकार को दोष मढ़ने शुरू कर देते हैं जबकि उसके लिए हम किसी नेता या सरकार को दोष देने के हकदार ही कहां रह जाते हैं।

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