खुद को कभी विधायक नहीं माना, लोगों के दिलों पर राज करते थे मुन्ना

फारुख हुसैन

लखीमपुर खीरी= वह कहते हैं कि राजनीति में कदम रखते ही लोगों पर लक्ष्मी का वास हो जाता है भले वह राजनीति में कदम रखने से पहले फटे हाल रहा हो, लेकिन राजनीति मैं किसी पद पर आने के बाद रुपया पैसा उसके पैरों की धूल बन जाता है। लेकिन एक ऐसा विधायक जो शायद ही किसी के समक्ष जाकर अपनी राजनीति की हनक नही दिखाई वह सभी के दिलों पर राज करता है। भले ही सियासत को सेवा की जगह पेशे के तरीके से समझने वाले लोगो की कमी नही है। मगर इसी समाज में ऊँचे कद तक पहुचने के बाद भी खुद को सेवक समझने वाले भी है। ऐसे ही थे मुन्ना भैया।

निघासन विधायक रहे निरवेंद्र कुमार मिश्र को लोग मुन्ना भैया कहकर पुकारते थे। तीन बार विधायक रहने के बावजूद लखनऊ में अपने लिए एक घर तक न बना पाए। बतौर विधायक उनका आवास दारुलशफा होता था। वहीं उनके सैकड़ों समर्थक जाकर रुकते थे और उन्हीं के बीच वह भी फर्श पर लेट जाते थे। बच्चा हो या बुढा सभी उनको मुन्ना भैया ही कहते थे। विधायक होने के बावजूद मुन्ना भैया के भीतर अहंकार पैर नहीं जमा पाया था। वह इस कदर जाति-भेद और ऊंच-नीच को दूर रखकर सादगी का जीवन जीने वाले इंसान थे कि किसी भी बिरादरी के व्यक्ति के यहां खाना खा लेना, चाय पी लेना, उसके बिस्तर पर लेट जाना मुन्ना भैया की आदत में शुमार था। जो भी बुलाता वह उसी के हो जाते।

वह जमीन पर ही धम्म से बैठ जाते थे। निर्दलीय रहे हों या फिर सत्तासीन सपा के विधायक होने के बावजूद किसी के घर पहुंचने पर वह अपने लिए किसी खास सीट का इंतजार और अपेक्षा नहीं करते थे। टूटी चारपाई हो या लकड़ी का जर्जर स्टूल या कुछ न होने पर जमीन पर बिछा बोरा। मुन्ना भैया हर जगह अपना आसन जमा लेते थे। हर किसी से उनका रिश्ता था। तीन बार विधायक रहने वाले व्यक्ति के पास उसका खुद का एक फ़्लैट तक लखनऊ में अथवा पैत्रिक संपत्ति के अलावा और कोई संपत्ति न होना आपको आश्चर्य चकित कर जाएगा। मगर मुन्ना भैया ऐसे ही थे।

उनके सहयोगी और समर्थक रहे पीके सिंह, ओमप्रकाश जायसवाल, जसवंत वर्मा आदि बताते हैं कि चुनाव के दौरान किसी के घर में सूट-बूट की जगह महज एक सूती फतुही पहनकर वोट मांगने जाने वाले मुन्ना घर के दरवाजे से ही आवाज लगाते थे, अरे अम्मा, कुछ खाने को मिलेगा। दो रोटी का लोन ही दे दो। बड़ी भूख लगी है। पूरा दिन दौड़ते हो गया। अच्छा पहले एक गिलास पानी ही पिला दो। यह कहते ही वह जमीन पर बैठ जाते थे। उनके इस व्यवहार से आम और गरीब आदमी खुद को उनसे अंतरंगता से जुड़ा महसूस करता था।

समय बदला और सियासत चमक दमक वाली हो गई। पैदल वोट मांगने जाने वाले मुन्ना भैया के सामने आने वाले बड़ी बड़ी गाडियों का काफिला लेकर आते है। सियासत के इस चकाचौंध ने अपने हमदर्द विधायक को छोड़ चका चौंध वाले विधायक के तरफ देखा और आज भी देख रहा है। मगर मुन्ना भैया के लिए विधायकी कोई प्रतिष्ठा का प्रश्न नही थी। उनको लगा कि जनता को चकाचौंध वाले विधायक पसंद है तो वह खुद धीरे से सियासत से पीछे हट गए।

पीके सिंह बताते हैं कि इलाके के लोगों की बिना लाग-लपेट के मदद करने की वजह से उनके पीछे बिना किसी लालच के साथ रहने वाली ग्रामीणों की भीड़ हमेशा रही जो उनके इशारे पर कुछ भी कर सकती थी। कभी उन्होंने किसी का दिल नही दुखाया, हमेशा इन्साफ और हक का साथ दिया। मगर वक्त ने करवट लिया और वही इन्साफ पसंद इंसान ऐसे बाहुबलियों के हाथो अपने आखरी सफ़र पर चला गया जिनका पेशा ही बहुबल से संपत्ति कब्ज़ा करना है। ग्रामीणों ने जब हमलावरों को पकड़ा तो वही क्षेत्राधिकारी जो कभी मुन्ना भैया के सामने कुछ गलत करने की सोचता नही था, उसने ही छुडवा दिया। उनके परिजनों पर लाठियां चल गई।

जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ मुन्ना भैया आजीवन रहे आखिर उसी भ्रष्टाचार ने उनकी ज़िन्दगी ले लिया। मुन्ना भैया ने बेईमानी और लूट-खसोट का रास्ता कभी नहीं पकड़ा। यही वजह थी कि नेता बनते ही जहां किसी के मालदार हो जाने के चांस बढ़ जाते हैं, वहीं मुन्ना भैया अपने लिए कुछ नहीं ले सके। बेहद सादगी से रहने वाले मुन्ना बेहद मजबूत भी थे। उन्होंने लोगों से काम के नाम पर घूस लेने वाले एक थानेदार को बहुत बेइज्जत करके कई लोगों के पैसे वापस कराये थे। तीन बार विधायक रहे मुन्ना भैया ने बाद में किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की भारतीय किसान यूनियन से भी नाता जोड़ा था, लेकिन बदले समय में वह चुनाव जीतने में कामयाब नहीं हो पाए।

 

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