तारिक़ आज़मी की मोरबतियाँ – दिल में अगर गुरुर और तकब्बुर घर कर गया हो तो एक बार अपने शहर की सबसे पुरानी कब्रिस्तान हो आये

तारिक़ आज़मी

आज कुछ इसी तरह पढने का मन कर गया। अब कहाँ तीन मंजिल ऊपर चढ़ कर जाये। भाई 52 दांडे चढ़ने में अब उम्र के साथ घुटनों पर जोर भी पड़ता है, ऐसा मेरी सदाबहार जवानी से रश्क करने वाले मेरे दोस्त हसी मजाक में कह सकते है। मगर हकीकत तो यु है मियां की आलास घर कर जाती है। फिर मन तो कुछ खुबसूरत लफ्जों को पढने का था। सोचा कि मिया ग़ालिब को पढ़ लू, मगर फिर वही नुख्तो के नोक पर पुराने अशआर ही ज़ेहन में आ गए। “है और भी इस दुनिया में सुखअनवर बहुत अच्छे, कहते है ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और” के साथ मिया ग़ालिब को नही पढने की सोची।

Tariq Azmi
Chief Editor
PNN24 News

अब ख्यालात ही तो है अल्लामा इकबाल का नाम भी ज़ेहन में आ सकता है। मगर फिर ज़ेहन ने जब बल्लीमारान के चराग-ए-सुखन नही तो अल्लामा का लफ्ज़ कानो में गूंज उठा कि “दिल में खुदा का होना भी लाजिम है इकबाल, सजदे में पड़े रहने से जन्नत नही मिलती।” फिर ख्याल आया कि “लोग पत्थर मारने आये तो वह भी साथ थे इकबाल, जिनके गुनाह कभी हम अपने सर लिया करते थे।” सोच कर ही तो रूह फनाह होने के मुकाम तक पहुच जाएगी कि आप जिनके ऐबो को छुपाने के लिए खुद ऐबजदा हो गए वही आपके ऊपर उंगलियाँ उठा सकते है। बहरहाल, इकबाल साहब की शान ही निराली थी। “देखे हैं हमने अहराम में लिपटे हुए इब्लीस, हमने कई बार मैं-खाने में खुदा देखा है।” बिला शुबहा कह सकते है कि “कौन कहता है खुदा नज़र नही आता, वही तो नज़र आता है जब कुछ नज़र नहीं आता।” सही तो कहा था अल्लामा ने कि “ठिकाना कब्र है कुछ तो इबादत कर इकबाल, रीबायात है कि किसी के घर खाली हाथ नहीं जाते।”

इस कब्र लफ्ज़ में ही बड़ी कशिश होती है। अमूमन लैपटॉप पर कुछ न कुछ बजा ही करता है। इस दरमियान जब तक फैसला करता किसको पढना है किसको नही तब तक अचानक बशीर बद्र साहब की एक ग़ज़ल को आवाज़ मौसिकी ने दिया और लैपटॉप पर कोई गुनगुना उठा, “सँवार नोक-पलक अबरुओं में ख़म कर दे, गिरे पड़े हुए लफ़्ज़ों को मोहतरम कर दे। ग़ुरूर उस पे बहुत सजता है मगर कह दो, इसी में उस का भला है ग़ुरूर कम कर दे। यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं, मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे।” बेशक बशीर बद्र साहब ने बहुत उम्दा कलाम को लिखा है।

वैसे कब्र का भी बड़ा ताल्लुक है इस गुरुर से। कभी फुर्सत मिले और खुद के गुरुर को कम करना हो तो अपने शहर की सबसे पुराने कब्रस्तान तक हो आइये। कब्रस्तान वह भी सबसे पुराने। बेशक आपके ज़ेहन में उठने वाला सवाल वाजिब है कि इतनी रूमानी बातो के दरमियान अचानक कब्रस्तान क्यों ? बताता हु हुजुर। आप अपने शहर की सबसे पुरानी कब्रस्तान घुमने तो कभी चले जाए। इसलिए नहीं कि वहा की पुरानी दीवारों पर नक्काशी देखे या फिर पुरानी कब्रों के रखरखाव का तरीका देखे। बल्कि इस वजह से कि आपको गुरुर का अहसास कम हो जायेगा। आप जाइए देखिये अचानक आपका पैर जिस कब्र पर पड़ेगा हो सकता है वह कब्र किसी अमीर-ए-वक्त की हो। ध्यान दीजियेगा कि वही बगल में कोई टाँगे वाला भी न आराम तलब हो। गौर से देखिये वो फूलो से सजी कब्र शायद अपने वक्त के बड़े आलिम की कब्र है। मगर थोडा उसके बगल में भी तो देखे हुजुर, वो देखे अपने वक्त की सबसे मशहूर रक्काशा भी तो है।

ये कब्र की मिटटी है साहब सबको एक बराबर कर देती है। दास्तान-ए-सिकंदर तो सुना होगा कि जब उसकी माँ कब्रिस्तान के दरवाज़े से सिकंदर को आवाज़ देती है तो किसी कब्र से आवाज़ आती है कि यहाँ सभी अपनी माँ के सिकंदर ही लेटे है। बेशक कब्र की मिटटी सबको बराबर कर देती है। क्या अमीर क्या गरीब। शायद इमाम के पीछे की सफे भी उस बराबरी का अहसास आपको नही करवा पाए। भले ही अल्लामा कहे कि “एक ही सफ में खड़े हो गए अमीरों-अयाज़, न कोई बन्दा रहा और न कोई बन्दा नवाज़।” मगर आपके आलिशान कपड़े और बगल वाले के बदन पर पुराने कपडे फर्क बता दे। मगर ये जो कब्र है उसकी मिटटी है वो सबको बराबर कर देती है।

तो गुरुर किस बात का हुजुर ? “खामोश ए दिल भारी महफिल में चिल्लाना अच्छा नहीं होता, अदब पहला करीना है मोहब्बत के करीनो में”। इसी करीने की तो ज़िन्दगी में दरकार है। गुरुर तब आता है जब हम अपने पुराने और बुरे वक्त को भूल जाते है। जब हम ये भूल जाए कि हमारी भूख के वक्त किसने हमे एक रोटी खिलाई थी तो गुरुर वही से शुरू होता है। हमारे गुरुर को एक और ज़ीना मिल जात है जब हम किसी के अहसानों को भूल कर खुद को खुदा समझने लगते है। देखे तो ऐसे आपने भी होंगे जो आपके अहसानों को भूल जाते है। मगर आपके दिल-ओ-दिमाग में किसी का अहसान अगर भूलने की कुवत आ रही है तो बेशक आप मान ले कि आपके अन्दर तकब्बुर घर कर रहा है।

यह अहसान फरामोशी भी अजीब चीज़ होती है। “न जाने कब तिरे दिल में कोई दस्तक दे, मकान खाली हुआ है कोई तो आएगा।” इस खाली मकान को भरने के लिए बेशक कोई न कोई आएगा। इसका किसी को एतराज़ भी नही होना चाहिए मगर ख्याल ये रहे कि किसी के किये अहसानों को भूल कर अगर आप गुरुर को अपने दिल में जगह देते है तो माफ़ कीजियेगा आपको शायद इन्सानियत की तालीम ज़रूरी है। वरना जब गुरुर का शीशा पिघलेगा तो सिर्फ यही निकलेगा कि खुल के रो भी सकूँ, और हँस भी सकूँ जी भर के। अभी इतनी भी फ़राग़त में नहीं रह सकता। इक अदावत से फ़राग़त नहीं मिलती वर्ना, कौन कहता है मोहब्बत नहीं कर सकते। “किसी की बेघरी मंजूर होती तो महल होता, वो देखो मेरे छप्पर में नन्ही सी चिड़िया घर बनाती है।”

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