नहीं रहे हिंदी भाषा के प्रख्यात विद्वान और काशी की शान प्रोफ़ेसर विश्वनाथ मिश्र, पूर्व राष्ट्रपति के0 आर0 नारायणन को सिखाया था हिंदी

तारिक आज़मी

वाराणसी। काशी शिक्षा और ज्ञान के अथाह समुन्द्र के रूप में है। काशी ने ऐसे कई अनमोल रत्न दुनिया को दिए है जिन्होंने केवल देश ही नहीं बल्कि दुनिया में अपने ज्ञान का परचम लहराया है। ऐसे ही हिंदी भाषा के प्रख्यात विद्वान प्रोफेसर विश्वनथ मिश्र का आज निधन हो गया। वह 88 वर्ष के थे और पिछले कुछ दिनों से वह ह्रदय रोग से ग्रसित थे। आज सुबह उनके आवास पर अचानक ह्रदयगति रुक जाने से देहांत हो गया।

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व प्रोफेसर रहे डॉ। विश्वनाथ मिश्र का जन्म जम्मू जिले के पुरमंडल गांव में वर्ष 1933 में हुआ था। उन्होंने जम्मू से काशी आकर शिक्षा प्राप्त किया और फिर यही के होकर रह गए। यहीं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में वह लेक्चरर के रूप में नियुक्त हुवे। भाषाविद होने के कारण विदेशी छात्रों को हिन्दी भाषा को अल्प समय में सिखा देने का उन्होंने एक पाठ्यक्रम तैयार किया,  जिसे बहुत सराहा गया।

प्रोफेसर विश्वनाथ मिश्र ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त होने के बाद तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष बालयोगी के आग्रह पर दिल्ली जाकर उन्हें हिन्दी सिखाई, प्रोफेसर मिश्र के पाठ्यक्रम से प्रभावित होकर तत्कालीन राष्ट्रपति के0 आर0 नारायणन ने भी उनसे हिन्दी भाषा सीखी। प्रोफेसर विश्वनाथ मिश्र के छात्रों में विशेष रूप से अनन्त कुमार,  पोन राधाकृष्णन, डी राजा जैसे अनेक दक्षिण भारतीय अहिन्दी भाषी सांसद शामिल हैं। 88 वर्षीय प्रोफेसर मिश्र अपने पीछे भरा पूरा परिवार छोड़ गये हैं, उनके पुत्र डा। अभिनव मिश्र,  डा। अनुभव मिश्र,  संयम मिश्र और पुत्री श्रीमती  नियति दत्ता हैं। सभी बेटे और बेटी वेल सेटल्ड है।

मेरी मुलाकात

प्रोफ़ेसर विश्वनाथ मिश्र को मैं पहले से ही जानता था। अपने विद्यार्थी काल में बीएचयु से मैं उन्हें जानता था। शिक्षण पूरा होने के बाद एक लम्बे समय उपरांत मेरी उनसे मुलकात उनके आवास पर वर्ष 2019 में हुई थी। उस समय मैं बुलिनियर फक्ट्री के द्वारा वायु प्रदुषण से होने वाले आम जनता के नुकसान पर एक विशेष स्टोरी कर रहा था। इसी स्टोरी के क्रम में मेरा संपर्क उनके पुत्र डॉ अनुभव मिश्र से हुआ और उन्होंने प्रोफ़ेसर साहब से मुलाकात करवाई थी।

प्रोफ़ेसर साहब में कुछ भी नहीं बदला था। वही शालीनता के साथ नम्रता जो उनकी पहचान यूनिवर्सिटी में हुआ करती थी वह उस समय भी दिखाई दी। एक लम्बे समय के बाद मेरी उनसे भेट पर वह भी काफी प्रसन्न थे। उन्होंने अपने आवास के टॉप फ्लोर पर स्टडी रूम बनाया हुआ था। उस कमरे में एक बढ़िया लाईब्रेरी भी थी। हिंदी से जुडी हुई अनमोल पुस्तके प्रोफ़ेसर साहब के लाईब्रेरी का हिस्सा थी। काफी देर उन्होंने मुझसे मेरे काम के सम्बन्ध में पूछा। उसके बाद अपनी लाईब्रेरी दिखाई। एक अच्छा वक्त मेरा उस महज़ दो घंटे के लगभग की मुलाकात में गुज़रा था।

लगता है जैसे कल की ही बात हो, जब मैं वापस आने के लिए उठा और अदब के साथ उनको आदाब किया तो उनका वही चिरपरिचित अंदाज़ था। अपना दाहिना हाथ मेरे सर पर रखकर वो शब्द “सदा सुखी रहो।” उस समय मेरे पिता इस दुनिया से रुखसत हो चुके थे, मगर उस लम्हे में मुझको ऐसा लगा जैसे प्रोफ़ेसर साहब के रूप में मेरे पिता ने मुझपर आशीर्वाद और दुआओं का हाथ रखा है। आज जब उनके स्वर्गवास का दुखद समाचार उनके पुत्र डॉ अभिनव मिश्र के द्वारा प्राप्त हुआ तो एक पल को विश्वास ही नहीं हुआ। उनके पुत्र और पुत्री तो उनके गुजरने के बाद यतीम हुवे है मुझको ऐसा प्रतीत हो रहा है कि एक अपने बुज़ुर्ग का साया मेरे सर से और भी उठ गया। प्रख्यात हिंदी के विद्वान प्रोफ़ेसर साहब को सत सत नमन।

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