बोल शाहीन के लब आज़ाद है तेरे: “अभिमन्यु” ने मज़हबी नफरतो का चक्रव्यूह तोडा और उसके खून से बची अदनान के माँ की जान, इसको कहते है मज़हब नही सिखाता आपस में बैर रखना

शाहीन बनारसी

मशहूर शायर अल्लामा इकबाल ने एक सदी पहले एक तराना-ए-वतन लिखा था। आप सभी ने इसको सुना होगा और अक्सर गुनगुनाया होगा कि “सारे जहाँ से अच्छा, हिंदोस्ता हमारा, हमारा” बड़े ही फक्र के साथ हम इस तराने को आज भी गुनगुनाते है। बेशक सारे जहाँ में हमारे मुल्क जैसा कोई मुल्क नही। जहा मिल्लत और मुहब्बत का जज्बा लहू बनकर हमारे रगों में दौड़ता है। इसी तराने के एक अशार पर आपकी तवज्जो चाहूंगी कि “मज़हब नही सिखाता, आपस में बैर रखना, हिंदी है हम, हिंदी है हम, वतन है हिन्दुस्ता हमारा, हमारा। सारे जहां से अच्छा, हिन्दुस्ता हमारा हमारा।”

बड़ा ही फक्र महसूस होता है इस तराने को पढ़कर। बेशक हम अपने वतन की अज़मत के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर सकते है। हमारा वतन एक ऐसा गुलिस्ता है जहा हर एक रंग के फुल खिलते है। बिस्मिल्लाह खान साहब को याद करते हुवे उनके एक कार्यक्रम में उनके लफ्ज़ जो अदा हुवे थे दोहराती हु कि “एक फुल हम लाते थे, एक फुल वो लाते थे, ऐसे ही रंग बिरंगा गुलदस्ता तैयार हो जाता था और क्या बेमिसाल खुशबु उससे आती थी।” बेशक जन्नत के झरोखों से देखते अल्लामा इकबाल और उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब की रूह इस वक्त मुल्क के हालात पर उसी गुलदस्ते को तलाश रही होगी।

नफरतो का काफिला ऐसा चल रहा है कि जिधर देखो उधर नफरतो के मसीहा अपने नफरती बयानबाजी से बाज़ नही आ रहे है। चाहे वह नुपुर शर्मा हो या फिर मौलाना बन कर फिरने वाला इलियास। नफरत तो दोनों के तरफ से एक बराबर ही तकसीम हो रही है। ज़ाती मुफात के खातिर ये नफरतो के काफिले को लोग हका भी रहे है। कही दुसरे मज़हब के मुखालिफ कसमे खाई जा रही है। तो कही कुछ और। नफरत के इस कारवां के लिए एक लफ्ज़ में हमारे उस्ताद तारिक आज़मी ने क्या खूब एक लाइन लिखा था कि “नफरतो का ये कारवाँ जब थम जाएगा, भीड़ के पाँव में फिर दर्द बहुत होगा।” मगर इस कारवाँ की सदारत कर रहे लोगो को नही पता है कि इसी सरजमी पर भगत सिंह के साथ अशफाक़उल्लाह खान भी थे।

कुछ लोग सवाल करते है फिर आखिर ये गंगा जमुनी तहजीब कहा गई। आखिर भगत सिंह और अशफाकुल्लाह खान की वो मुहब्बत कहा गई। तो हुजुर कही नही गई। यही है इसी मुल्क के ज़र्रे ज़र्रे में है। हर एक शहर में है तो हर एक मोहल्ले में है। आपकी गली में है तो हमारी भी गली में है। सब यही है। बस दिखाई इसलिए नही देते है कि नफरतो के कारवाँ ऐसी धुल उड़ा रहा है कि ये मुहब्बत के पैरोकार दिखाई नही देते है। मुल्क के हर गली मोहल्ले में एक अदनान है जो कश्मीर में मुल्क के सरहद की हिफाज़त अपनी बीमार माँ को घर पर छोड़ कर कर रहा है, और एक अभिमन्यु है जो अदनान की माँ को अपने जिस्म का लहू देकर ज़िन्दगी दे रहा है। तलाश तो करे, आपको आपके बगल में ही ऐसे अदनान और अभिमन्यु दिखाई देंगे।

कानपुर के रहने वाले सेना के जवान अदनान की मां शाहना बेगम को खून की जरूरत हुई, तो अभिमन्यु गुप्ता उन्हें खून देने के लिए अस्पताल पहुंच गए। सफलता पूर्वक डायलिसिस होने के बाद शाहना बेगम और उनके परिजनों ने अभिमन्यु का आभार जताया। प्रांतीय उद्योग व्यापार मंडल के प्रदेश महासचिव अभिमन्यु गुप्ता ने कहा कि देश में नफरत हारेगी और मुहब्बत जीतेगी। जितनी भी नफरते फैला ले। मगर जीत तो मुहब्बत की ही होगी। कन्नौज निवासी अदनान की मां की डायलिसिस शनिवार को होनी थी। वो उर्सला अस्पताल में भर्ती थीं, लेकिन अचानक खून की जरूरत हुई, तो उनके परिजनों अभिमन्यु को इसकी जानकारी दिया। जिसके बाद अभिमन्यु अपने सभी काम छोड़ कर अस्पताल जाते है और अदनान की माँ शाहाना को अपने जिस्म का खून देते है। भारतीय सेना के जवान अदनान इस समय श्रीनगर में तैनात है। अभिमन्यु ने अदनान की माँ के अच्छे स्वास्थ्य की कामना हेतु व्रत भी रखा हुआ है।

लेखिका शाहीन बनारसी एक युवा पत्रकार है

ये है अल्लामा इकबाल का हिंदोस्ता, ये है भगत सिंह का हिन्दोस्तान, ये है अशफाकुल्लाह खान का भारत, ये गाँधी का भारत है तो ये ही पटेल का भारत है। नाम गिनते गिनते आप थक जायेगे। असल में ये हमारा भारत है। लाख कोई नफरते तकसीम करे, लाख कोई नफरतो का कारवा हाके, मगर मुहब्बत आज भी पुख्तगी से कायम है। आज भी काफी ऐसे है जिनको शाहीन बनारसी का “राम-राम, दुआ सलाम” पसंद है।

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