‘मिसिंग फ़्रॉम द हाउस’: लोकसभा में मुस्लिम महिलाओं की ‘गैरमौजूदगी’ पर एक ज़रूरी पड़ताल

लेखक: तारिक आज़मी
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई और राजनीतिक विश्लेषक अंबर कुमार घोष की नई किताब, ‘मिसिंग फ़्रॉम द हाउस: मुस्लिम विमेन इन द लोकसभा’ भारतीय लोकतंत्र के एक अनदेखे लेकिन बेहद महत्वपूर्ण पहलू पर रोशनी डालती है। यह किताब सिर्फ आँकड़ों का लेखा-जोखा नहीं है, बल्कि उन चुनिंदा मुस्लिम महिलाओं के संघर्ष, चुनौतियों और असाधारण यात्राओं की दास्तान है, जिन्होंने पितृसत्ता, धार्मिक रूढ़िवादिता और राजनैतिक बहिष्करण जैसी तमाम बाधाओं को पार करके लोकसभा तक का सफर तय किया।
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई और राजनीतिक विश्लेषक अंबर कुमार घोष की किताब ‘मिसिंग फ़्रॉम द हाउस’ भारतीय राजनीति के एक अहम पहलू पर रोशनी डालती है। आज़ादी के बाद से अब तक लोकसभा में कितनी मुस्लिम महिला सांसद पहुँची हैं? उनकी चुनौतियाँ क्या रही हैं? वंशवाद ने कैसे उन्हें सहारा दिया और पितृसत्ता तथा रूढ़िवाद ने कैसे उनके रास्ते में बाधाएँ डालीं? यह किताब सिर्फ 18 मुस्लिम महिला सांसदों की कहानी नहीं है, बल्कि उस पूरे राजनीतिक सिस्टम पर एक ज़रूरी सवाल है जो भारतीय लोकतंत्र में मुस्लिम महिलाओं के प्रतिनिधित्व को कमज़ोर करता है। जानिए, क्यों आज भी संसद में मुस्लिम महिलाएँ ‘गायब’ हैं और उनके संघर्ष की अनसुनी दास्तान।
आज़ादी के बाद सिर्फ 18…..!
किताब का शीर्षक ही अपने आप में एक सवाल है। ‘मिसिंग फ़्रॉम द हाउस’ यानी ‘सदन से गायब’। आँकड़े चौंकाते हैं। 1952 में पहले आम चुनाव से लेकर अब तक, लोकसभा में कुल सांसदों में मुस्लिम महिलाओं का प्रतिनिधित्व 1% से भी कम रहा है। लेखकों के अनुसार, आज़ादी के बाद से अब तक केवल 18 मुस्लिम महिलाएं ही लोकसभा तक पहुँच पाई हैं। यह संख्या भारतीय लोकतंत्र की विविधता और समावेशिता के दावों पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाती है।

पुस्तक इस बात को स्पष्ट करती है कि इन 18 सांसदों में से अधिकांश यानी लगभग 13 महिलाएं राजनीतिक परिवारों से ताल्लुक रखती थीं। यह एक विडंबना है। जहाँ एक तरफ वंशवाद को लोकतंत्र के लिए बाधा माना जाता है, वहीं मुस्लिम महिलाओं के लिए राजनीति में प्रवेश का यह एक बड़ा और शायद इकलौता सहारा बना।
किताब राजनीतिक वंशजों जैसे अकबर जहान अब्दुल्ला, आबिदा अहमद और महबूबा मुफ़्ती के साथ-साथ जमीनी स्तर की कार्यकर्ता, डॉक्टर-राजनेता और अभिनेत्री-सांसद बनी नुसरत जहाँ जैसी शख्सियतों की कहानियों को भी सामने लाती है। यह उनके विशेषाधिकार और संघर्ष, चुप्पी और विरोध के बीच के जटिल सफ़र को दिखाती है।
‘सिस्टम’ जो उन्हें बाहर रखता है
किदवई और घोष इस बात को उजागर करते हैं कि मुस्लिम महिलाओं के लिए राजनीति में जगह बनाना केवल चुनाव जीतना नहीं है, बल्कि यह उस पूरे राजनीतिक ‘सिस्टम’ को चुनौती देने जैसा है जो उन्हें बाहर रखने के लिए डिज़ाइन किया गया है। धार्मिक रूढ़िवादिता और पितृसत्तात्मक समाज के दबाव के साथ-साथ, राजनीतिक दलों में टिकट वितरण और प्रतिनिधित्व की कमी भी उनकी गैरमौजूदगी का बड़ा कारण है।
क्यों ज़रूरी है यह किताब?
‘मिसिंग फ़्रॉम द हाउस’ केवल एक राजनीतिक अध्ययन नहीं है; यह सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व और महिला सशक्तिकरण की लड़ाई का एक मार्मिक दस्तावेज है। यह हमें याद दिलाती है कि जब तक समाज का एक बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा देश की सर्वोच्च विधायी संस्था से ‘गायब’ रहेगा, तब तक सच्चे मायने में समावेशी लोकतंत्र का दावा अधूरा रहेगा।
यह किताब हर उस भारतीय पाठक के लिए एक ‘मस्ट रीड’ है जो भारतीय राजनीति को उसके सबसे निचले स्तर से समझना चाहता है, और यह जानना चाहता है कि भारतीय लोकतंत्र में अभी भी ‘प्रतिनिधित्व’ की लड़ाई कितनी लंबी है।
(यह लेख पुस्तक में दिए गए तथ्यों और निष्कर्षों पर आधारित है।)










