टनल और कोल माईनस मजदूरी: घंटो घुप सियाह अँधेरे में अपने और अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी तलाशती ज़िन्दगी की जाने क्या होती है मुश्किलें

तारिक आज़मी

डेस्क: उत्तराखंड के उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सिल्क्यारा सुरंग 12 नवम्बर को ढह गई थी। इससे सुरंग के अन्दर उस समय काम कर रहे 41 मजदूर सुरंग के अन्दर फंसे है। अब भी 41 मजदूरों को बचाने की हर रोज की उम्मीद, समय बीतने के साथ आगे खिसकती जा रही है। आज 9वां दिन है जब इन मजदूरों के परिवार वाले इस आस में हैं कि बचाव दल को सफलता मिलेगी। सुरंग में फंसे लोगों को बचाने के लिए लगातार प्रयास किया जा रहा है। लेकिन अभी तक कोई सफलता नहीं मिली है। मजदूरों के स्वास्थ्य को लेकर भी चिंता बढ़ती जा रही है।

इस हादसे के बाद टनल के अन्दर काम करने वाले मजदूरों की ज़िन्दगी को लेकर अब बाते होने लगी है। हादसे के जाँच हेतु टीम का गठन प्रदेश सरकार ने कर दिया है। मगर अब लोगो की नज़रे इन मजदूरों की ज़िन्दगी पर पड़ने लगी है। टनल में अधिकतर वक्त सियाह अँधेरा ही रहता है। एक ऐसी अँधेरी दुनिया जहा सर पर लगे हेलमेट की टार्च अगर बंद हो जाए तो हाथ को हाथ न दिखाई दे। ऐसे हालात में पेट की खातिर काम करने वाले मजदूरों की ज़िन्दगी में रोशनी बहुत ही कम होती है। दो जून की खुद और खुद के परिवार के लिए रोटी की तलाश ऐसी दुनिया में काम दिलवाती है।

एकदम घुप्प अंधेरा। टार्च की रोशनी में काम। माथे पर विशेष हेलमेट। उसके अगले हिस्से में जलती टार्च। कमर में बंधे बेल्ट में टंगी बैटरी। उस बैटरी से तार के सहारे जुड़ा टार्च अगर बंद हो जाए, तो खुद का हाथ भी न दिखे। अपने काम की जगह से दूसरी जगह जाने की मनाही। धरती के अंदर काम करने वाली जगह (खान या सुरंग) में शौचालय का प्रायः नहीं होना। फ़ोन ले जाने की मनाही। खाने की टिफ़िन भी नहीं।

अमूमन 2 लीटर की एक वॉटर बोतल। काम के आठ घंटे बाहरी दुनिया से कोई संपर्क नहीं। ऐसी होती है धरती की सतह से कई मीटर अंदर गहरी खान या सुरंग में काम करने वाले किसी मज़दूर (माइनर) की जिंदगी। उत्तर काशी में टनल के अन्दर फंसे 41 मजदूरों के खबर के बाद से टनल मजदूरों पर सभी का ध्यान गया। अगर विभिन्न मीडिया रिपोर्ट का अवलोकन करे तो मिलेगा कि टनल के मजदूर को नियमानुसार जो सुविधाए मिलनी चाहिए वह नही मिलती है। एक मीडिया कर्मी से बात करते हुवे एक टनल मजदूर ने बताया कि अन्दर पानी की सुविधा नही होती है। हमे अपनी पानी की बोतले खुद ले जाना पड़ता है।

माइंस रुल्स एंड रेगुलेशन के मुताबिक पीने के पानी की आपूर्ति पाइपलाइन के जरिये होनी चाहिए लेकिन प्राय: ऐसा नहीं होता। लिहाज़ा मजदूर अपनी वाटर बोतल साथ ले जाते हैं। मजदूरों ने बताया कि खाने का टिफिन ले जाने का चलन नहीं है। पहले कुछ खदानों में कैंटीन भी हुआ करती थी लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब ज़्यादातर ओपन कास्ट माइंस हैं। जो अंडर माइंस हैं, उनमें भी कैंटीन नहीं है। लिहाजा, खान मज़दूर ड्यूटी पर आने के पहले घर पर ही खा लेते हैं। हमारी आठ घंटे की शिफ्ट होती है। इस दौरान भूख नहीं लगती। शिफ़्ट के बाद खदान से बाहर आकर साफ-सफाई और कागजी काम करने होते हैं। उसके बाद हम लोग घर वापस लौटकर ही खा पाते हैं।

यही नही चिकित्सा विशेषज्ञों का कहना है कि लंबे वक्त तक धरती के अंदर काम करने से कई तरह की बीमारियों के खतरे भी बढ़ जाते हैं। खासकर कोल माइंस, पत्थर की खदान और सुरंग बनाने में लगे मज़दूरों को न्यूमोकोनोयोसिस जैसी लाइलाज बीमारी के खतरे होते हैं। यह बीमारी जानलेवा है। इसमें फेफड़ों में घूल जमा हो जाती है और साँस लेने में तकलीफ़ होने लगती है। माइनिंग के नियमों के मुताबिक़ ऐसे मज़दूरों की नियमित स्वास्थ्य जाँच के अलावा हर पाँच साल पर विशेष जाँच करायी जानी चाहिए लेकिन ऐसा अक्सर नहीं होता।

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