ठण्ड तेरे सितम की हद हो गई, अब तो लौट जा

संजय ठाकुर.

मऊ : सब कुछ थोड़े समय के लिए ही अच्छा लगता है।चाहे मेहमान हो या मौसम, ज्यादे समय होने पर सब बोझ जैसे लगने लगते हैं। आजकल ये बातें प्रकृति पर पुरतः चरितार्थ हैं। बात की जाय अगर दिसम्बर महीने की तो उस वक्त की तेज धूप ने अध्यापक एवम दुकानदार सबके चेहरे की रौनक कम कर दी थी। दुकानदार को तो लगता था कि यदि ठंडक के मौसम में ठण्ड नही पड़ी तो व्यापार ही ठंडा हो जाएगा। वही दूसरी तरफ अध्यापक वर्ग तो कुछ ज्यादे ही मायूस था कि यदि भाष्कर जी इसी तरह दर्शन देते रहे तो आखिर हम लोग विद्यालय से अंतर्ध्यान कब होंगे।

अंततः उनकी मनोकामना पूर्ण हुई। लेकिन भाष्कर दर्शन से जिस वर्ग के माथे पर सबसे ज्यादा चिंता की लकीरें थी वो था किसान तो फिर क्या था धूप ने विदाई ली और ठंड ने आगाज किया और परेशानिया बढ़ी गरीबो की। क्योंकि सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता या अलाव के इंतजाम ठण्ड के सापेक्ष ऊंट के मुंह मे जीरा साबित हुई। आज भी दूरदराज के गाँवो में बच्चे,बूढ़े, गरीब ठंडक से काँपते हुए नजर आते है। सरकार द्वारा भेजें गए पैसे लोगो मे तो नही अपितु ऑफिस में तो गर्मी जरूर ला दी है।

लेकिन मौसम के इस तरह से लगातार बने रहने से छात्र , किसान, यहाँ तक कि इस मौसम में सबसे ज्यादे प्रसन्न रहने वाले अध्यापक वर्ग भी कहने लगा कि ऐ ठण्ड बहुत हो गई तेरी सितम,अब तो लौट जा। लेकिन प्रकृति का ये नियम है कि हर समय हर जगह गुलाबी मौसम नही होता। कवि सूढ़ फैजाबादी की गीत है कि उनके शहर की उनके आफिस का मौसम गुलाबी है, ऐ दुनिया वाले आकर देखो आज भी जुम्मन के घर फूटी रकाबी है।

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