कहा गई इंसानियत आखिर ? मोक्ष की नगरी काशी में बेमौत मर गया बेचारा

ए जावेद

वाराणसी। आल्हड और मस्ती से सराबोर काशी दिल वालो की नगरी हुआ करती थी। मिटटी भी जहा की पारस है उसी शहर का नाम बनारस है कहकर हम सीना गर्व से फुला लेते है। एक बढ़िया लोकगायक और कवि ने अपनी कविता में लिखा कि “जिसने भी छुआ, वह स्वर्ण हुआ, लोग कहे मुझे मैं पारस हु, मेरा जन्म महाशमशान मगर मैं जिंदा शहर बनारस हु। हम बड़े गर्व से इस लाइन को दोहरा कर सीना फुला देते है। मगर कल हुई घटना इस जिंदा शहर के मुर्दादिली को ज़ाहिर करती है। एक नही दो दो ऐसी घटना हुई, जिसके बाद खुद की जिंदादिली पर तरस आता है।

पहली घटना मंडलीय चिकित्सालय कबीर चौरा की है। बिहार के भभुआ में रहने वाले मजदूर मनोज की एक मासूम बेटी थी सरस्वती। महज़ 6 साल की हसती खेलती मासूम बेटी, मगर उस हस्ती खेलती बेटी को काल की नज़र लग गई। जून के अंत में उसकी तबियत ख़राब हुई। गरीब बाप मनोज अपनी वस्त भर उसका इलाज करता रहा, मगर जब वह ठीक नही हुई तो पिछले दिनों वह उसको लेकर वाराणसी के मंडलीय चिकित्सालय कबीर चौरा आया और उसका इलाज करवाना शुरू किया।

पैसे से कमज़ोर मनोज ने अपनी पूरी कमाई बेटी को बचाने में लगा दिया, मगर सरस्वती को इस दुनिया से विदा कहना था तो कह गई। तीन दिन इलाज के बाद रविवार को सरस्वती ने इस दुनिया को रुखसात कर दिया। गरीब बाप का जेब खाली हो चूका था। उसके जेब में महज़ दस रुपया बचा था। बेटी की लाश गोद में रखे मनोज ने कई रिश्तेदारों, नातेदारो को फोन किया। सबने कहा आ रहा हु। मगर आया कोई नही।

आंसू थे कि रुकने का नाम नही ले रहे थे। और गरीबी थी कि बेटी का अंतिम संस्कार तक करने की इजाज़त नही दे रही थी। लोग आते गए गुज़रते गए। कोई रुका और कोई रुका भी नही। जो रुका उसने हाल चाल पूछा, हालात जानी और फिर चलता बना, कोई ये तक नही पूछा कि कैसे अंतिम संस्कार करोगे। बस अफ़सोस की अल्फाज़ को ज़ाहिर करता और चला जाता। काफी वक्त गुज़र गया। इंसानियत शायद बिस्तर ओढ़ कर सो रही थी। जिंदा शहर मुर्दों की दलील पेश कर रहा था।

इसी दरमियान मानसिक रूप से कमज़ोर कल्लू जो अक्सर इस अस्पताल के आस पास रहता है। उसकी नज़र मनोज पर पड़ी। उसको पूरी बात पता चली तो इसकी जानकारी कल्लू ने जाकर कबीरचौरा चौकी इंचार्ज प्रीतम तिवारी को दिया। प्रीतम तिवारी, एक पुलिस वाला, कंधो पर दो तारे। लोग पुलिस वालो पर लाखो सवाल उठाया करते है। मगर हकीकत में इस पुलिस वाले को मैंने रोते हुवे इंसानियत की खातिर देखा है। बात उस वक्त की थी जब इंसानियत थोड़े से आक्सीज़न के लिए तड़प रही थी। एक अजनबी ने प्रीतम तिवारी से मदद माँगा था। कबीरचौरा में जगह नही थी। ज़रूरत सिर्फ आक्सीज़न की थी। तभी मेरा गुज़र उधर से हुआ। प्रीतम तिवारी में मुझे मदद की दरख्वास्त किया। मैं जब तक व्यवस्था करने में फोन कर रहा था। तब तक प्रीतम तिवारी की बेचैनी और उसके आखो की नमी को मैंने महसूस किया था। कुछ ही देर में आक्सीज़न का इंतज़ाम उस ज़रूरत मंद के लिए हुआ तो प्रीतम के आँखों में ख़ुशी के आंसू भी देखा था।

प्रीतम तिवारी को कल्लू ने हालात बताये तो प्रीतम तिवारी मनोज के पास जाते है। मनोज को दिलासा देते है। फिर उसके बाद प्रीतम तिवारी ने अंतिम संस्कार की पूरी व्यवस्था किया। व्यवस्था होने के बाद अंतिम संस्कार के बाद मनोज को वापस अपने पास बुलवाया और उसके हाथो में बंद मुट्ठी से कुछ पैसे देकर कहा कि “कृति को यही मंज़ूर था, वो हो गया। ज़िन्दगी आगे बढाओ।” प्रीतम के आँखों में भी नमी थी तो मनोज फुट फुट कर रो रहा था। उसके लफ्ज़ रुके हुवे थे। शायद उसके हाथो में 500 की चंद नोटे थी। ये दान इतना गुप्त था कि मैं खुद जो वह मौजूद था देख नही पाया कि प्रीतम तिवारी ने कितने पैसे उसको दिए। मगर ये चंद सिक्के ही सही, मनोज के काफी काम आने वाले थे।

ऐसे ही नही अमन को अमन कबीर कहते है

दूसरी घटना पांडेयपुर की है। पांडेयपुर के निवासी राजकुमार की एक बेटी है प्रेमलता। अल्लाह ने बेटी को अजमत ऐसे ही नही अता किया है। राजकुमार काफी समय से बीमार चल रहे थे। घर का खर्च बेटी प्रेमलता दुसरे के घरो में झाड़ू पोछे करके चला रही थी। साथ ही बीमार बाप का अपनी वस्त भर इलाज भी करवा रही थी। रविवार को जब प्रेम लता अपने काम से लौटी तो बाप राजकुमार की तबियत और भी ज्यादा ख़राब हो गई थी। बाप दर्द से तड़प रहा था। चंद सिक्के मुठ्ठी में लेकर प्रेम लता ने काफी कोशिश किया मगर शायद होनी को कुछ और ही मंज़ूर था। राजकुमार दर्द से तड़पते हुवे बेटी प्रेम लता के सामने ही दम तोड़ बैठे।

मजबूर बेटी तड़प कर रो रही थी। कोई नही था जो उसको दिलासा दे सके। कुछ देर रोने के बाद जब आंसू सूखने लगे तो पिता के अंतिम संस्कार की चिंता सताने लगी। अंतिम संस्कार के लिए भी रकम की ज़रूरत होती है। मुंशी प्रेम चन्द्र ने अपने कहानी में एक शब्द लिखे थे जो काफी दमदार थे कि “जिसको तन ढकने के लिए ज़िन्दगी भर चिथड़े भी नसीब नही होते है, उसको भी मरने के बाद नया कफ़न चाहिए होता है।” हाल ऐसे ही कुछ यहाँ भी थी। प्रेम लता ने अपने रिश्तेदारों को फोन किया। सबको बताया कि पिता गुज़र गए है। मगर कोई नही आया। कहा जाता है कि गरीब का कोई रिश्तेदार नही होता है। हुआ भी ऐसा ही। पूरी रात गुज़र गई मगर कोई नही आया।

सुबह होती है। पड़ोस के लोग भी अपने काम पर जाने को निकल चुके थे। किसी को क्यों परवाह होगी कि राजकुमार का अंतिम संस्कार करना है। बेटी बाप के लाश को चादर में लपेट कर बैठी थी। इसकी जानकारी बनारस के अमन कबीर को होती है। ये नवजवान तुरंत अपने सहयोगियों से संपर्क करके पांडेयपुर जाता है। अंतिम संस्कार का इंतज़ाम करता है। बेटी प्रेम लता ने अपने पिता की अर्थी को कन्धा दिया। शमशान घाट पर मुखाग्नि भी बेटी प्रेम लता देती है। इंसानियत दहाड़ मार मार कर रो रही थी। बाइक एम्बुलेस से चलने वाले अमन कबीर जो बेसहारो का सहारा बना रहता है एक बार फिर इस मजबूर परिवार का सहारा बना।

कहा गई जिंदादिली

दो घटनाए रविवार की आपको बताया। एक में पुलिस वाला मदद के लिए आगे आया, दुसरे में अमन कबीर आगे आया। इसके बाद भी हम खुद का सीना चौड़ा करके कह सकते है कि जिंदादिल शहर बनारस के रहने वाले है। हकीकत में सबसे अधिक तरस की स्थिति तो राजकुमार की थी। सोचे हम कहा आ गये है।

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