शहर बनारस के चौहट्टालाल खान से निकला कदीमी “अँधेरे का जुलूस”, घुप सियाह अँधेरे में गूंजी सदा “या सकीना या अब्बास.. ! या हुसैन, हाय सकीना.. ! हाय प्यास.. ! या हुसैन.. !”, दालमंडी नब्बु मियाँ के इमामबाड़े से से भी निकली तुर्बत

शाहीन बनारसी

वाराणसी: कर्बला की शहादत के याद में शहीदों को अपना खिराज-ए-अकीदत पेश करने के लिए मातमो और जुलूसो का दौर शहर बनारस में जारी है। इसी क्रम में कल रविवार को देर रात लगभग 10 बजे के करीब चौहट्टा लाल खान से “अँधेरे का जुलूस” निकला। अँधेरे में मातमो की आवास एक धुन पैदा कर रही थी। मातमो के धुन पर हज़ारो लबो से एक साथ आवाज़ आती, “या सकीना या अब्बास…. ! या हुसैन, हाय सकीना… ! हाय प्यास… ! या हुसैन….. !”

दालमंडी से निकली हज़रत अब्बास की याद में तुर्बत

हर साल की तरह इस साल भी आठवीं मुहर्रम का तुर्बत व अलम जुलूस ख्वाजा नब्बू के चहमामा स्थिति इमामबाडे से सै0 मुनाजिर हुसैनी मंजू के जेरे इन्तजाम उठा। जुलूस उठने से पूर्व मजलिस को खेताब फरमाते हुए अब्बास मुर्तुजा शम्सी ने बयान किया कि मौला अब्बास अ0 स0 की शुजाअत और वफा की कोई मिसाल नहीं है। जुलूस उठने पर शराफत अली खां साहब,  लियाकत अली साहब व साथियों ने सवारी शुरू किया “जब हाथ कलम हो गए सक्काए हरम के” जुलूस धीरे-धीरे पत्थर गलिया चहमामा होते हुए दालमंडी पहुंचा।

जहाँ से अंजुमन हैदरी चौक ने नौहाख्वानी व मातम शुरू किया। “करते है मातम हरम अब्बास का हो गया मरना सितम अब्बास का”। जुलूस में पूरे रास्ते उस्ताद हसन अली खां साहब व साथियों ने शहनाई पर मातमी धुन पेश किया। जुलूस नई सडक, काली महल, पितरकुण्डा होते हुए लल्लापुरा स्थित फातमान पहुंचा, जहाँ से पुनः वापस अपने कदीमी रास्तों से होते हुए चहमामा स्थिति इमामबाडे मे आकर इकतेदाम पदीर हुआ।

चौहट्टा लाल खान से निकला “अँधेरे जा जुलूस”

कदीमी रास्तो से होकर गुज़रे इस जुलूस में हिन्दू मुस्लिम एकता अथवा उसको गंगा जमुनी तहजीब कहे दिखाई दी। कदीमी रास्तो पर कई घर हिन्दू समुदाय और एक घर सिख समुदाय का है। मगर इस जुलूस की अजमत में सभी अपने घरो की रोशनी को बंद कर देते है। पिछले दो सालो से कोरोना काल के कारण ये जुलूस नही उठ पाया था। इस बार दो साल के बाद उठे इस जुलूस में हज़ारो की तयदात में अकीदतमन्दो ने शिरकत किया।

अँधेरे में हाथ को हाथ नही दिखाई दे रहा था। हर एक तरफ से आवाज़े बुलंद हो रही थी “या सकीना या अब्बास…. ! या हुसैन, हाय सकीना…. ! हाय प्यास… ! या हुसैन…. !” इन आवाजों के बीच मातम एक सुरीली धुन के तरफ सुनाई पड़ रहा था। आँखों में अश्क लिए हज़रत अब्बास अलमबरदार की शहादत के याद में खिराज—ए-अकीदत पेश कर रहे थे। पुरे कदीमी रस्ते भर सीनाज़नी और मातमो का दौर जारी रहा। हज़ारो हाथो के सीने पर एक साथ पड़ने से निकलने वाली आवाज़ फिजा में गूंज रही थी। इन आवाजों के बीच आंसुओ की सिसकियो के बीच या सकीना या अब्बास की सदा रूह को झकझोर दे रही थी।

इस भीड़ की आखिर में एक तुर्बत जिसके बाजू में महज़ दो मोमबत्तियां जल रही थी के नूर से समा ग़मगीन था। पुरे कदीमी रास्ते मजहबो और फिरको की दीवार को तोड़ते हुवे हाथ आगे बढ़कर तुर्बत को अकीदत के साथ छू कर माथे पर अपने हाथ लगाते रहते। इन हाथो के न मज़हब थे और न धर्म केवल और केवल एक विश्वास या फिर कहे एक अकीदत थी। जुलूस अपने कदीमी मुकाम पर जाकर ठंडा हुआ।

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