सरदार पटेल की जयंती पर विशेष: क्या ‘लौह पुरुष’ सच में मुस्लिम विरोधी थे? जानें अफ़वाहों के इतर असली हकीकत…! पढ़े सरदार पटेल के सम्बन्ध में क्या थे पंडित नेहरु और गांधी जी के विचार

तारिक आज़मी
PNN24 न्यूज़: 31 अक्टूबर को देश के पहले गृह मंत्री और ‘लौह पुरुष’ सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती मनाई जाती है। भारत को एकता के सूत्र में पिरोने वाले इस महान व्यक्तित्व पर अक्सर एक गंभीर आरोप लगाया जाता है—कि वे मुस्लिम विरोधी थे। यह आरोप उनकी कुछ कड़वी और सीधी बातों पर आधारित है, लेकिन क्या ऐतिहासिक तथ्य इस धारणा की पुष्टि करते हैं? आइए, अफ़वाहों और संदर्भ से हटकर दिए गए बयानों के पीछे की पूरी सच्चाई जानते हैं।
1. लखनऊ का विवादास्पद भाषण (जनवरी 1948)
सरदार पटेल पर मुस्लिम विरोधी होने का सबसे बड़ा विवाद उनके 6 जनवरी 1948 को लखनऊ में दिए गए भाषण से खड़ा हुआ।
- पटेल का सीधा संदेश: विभाजन के बाद, मुस्लिम लीग की भारत में रह गई शाखाएं अक्सर पाकिस्तान के समर्थन में प्रचार कर रही थीं। इसी संदर्भ में, पटेल ने भारतीय मुसलमानों से स्पष्ट कहा था, “मैं मुसलमानों का सच्चा दोस्त हूँ, हालाँकि मुझे उनका सबसे बड़ा दुश्मन बताया जाता रहा है। मैं आप लोगों से साफ कह देना चाहता हूँ कि इस नाज़ुक घड़ी में भारतीय संघ से निष्ठा की घोषणा मात्र पर्याप्त नहीं है। आपको इसका व्यावहारिक प्रमाण पेश करना होगा।”
- “दो घोड़ों की सवारी”: उन्होंने यह भी कहा, “आप एक साथ दो घोड़ों की सवारी नहीं कर सकते। आपको जो बेहतर लगे, वह एक घोड़ा चुन लीजिए।”
- सच्चाई का पक्ष: पटेल का यह बयान राष्ट्र की सुरक्षा और अखंडता के प्रति उनकी अटूट प्रतिबद्धता को दर्शाता था। उनका उद्देश्य उन लोगों को चेतावनी देना था जो पाकिस्तान बनवाने में समर्थन देने के बाद भी भारत में रहकर सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने की कोशिश कर रहे थे, न कि आम भारतीय मुसलमानों को निशाना बनाना।
2. नेहरू और गांधी का दृष्टिकोण
पटेल पर लगे आरोपों का खंडन स्वयं उनके समकालीन नेताओं ने किया था:
- महात्मा गांधी: महात्मा गांधी का मानना था, “सरदार को मुस्लिम विरोधी कहना सच्चाई का उपहास उड़ाना होगा। सरदार का दिल इतना बड़ा है कि उसमें सब समा सकते हैं।”
- पटेल, मुस्लिम लीग की विभाजनकारी राजनीति के घोर विरोधी थे, लेकिन उन्होंने भारतीय मुसलमानों को कभी विदेशी नहीं माना।
नोआखाली और बिहार हिंसा की वारदात के एक महीने से भी कम समय के बाद में पटेल द्वारा दिए गए ये भाषण के कुछ अंश नेहरू को पसंद नहीं आए। गांधी जी उस समय नोआखाली में थे और नेहरू तथा आचार्य कृपलानी उनसे मिलने गये। उस समय ‘तलवार का जवाब तलवार’ से देने की बात पर सरदार का मेरठ में दिया गया भाषण चर्चा में था। गांधीजी ने 30 दिसंबर 1946 को सरदार को एक पत्र लिखा, जो नेहरू के साथ उनको भेजा।
राजमोहन गांधी सरदार की बेटी मणिबहन पटेल की डायरी का हवाला देते हुए लिखते हैं कि गांधीजी के पत्र के कारण वह पूरे दिन दुखी रहे थे। गांधीजी ने अपने पत्र में लिखा था, ‘आपके विरुद्ध कई शिकायतें प्राप्त हुई हैं। यदि आप तलवार का बदला तलवार से देने वाला न्याय सिखाते हैं, और यदि यह सत्य है, तो यह हानिकारक है।’ पत्र मिलने के पांच दिन बाद यानी सात जनवरी को सरदार पटेल ने गांधीजी को जवाबी पत्र लिखा। सरदार ने लिखा, ‘सच बोलना मेरी आदत है। मेरे लंबे वाक्य को छोटा करके ‘तलवार का जवाब तलवार से’ देने के संदर्भ को ग़लत तरीक़े से पेश किया गया है।’

1978 में संसद में कांग्रेस विधानमंडल के उपनेता रहे रफ़ीक़ ज़कारिया ने अपनी किताब ‘सरदार पटेल तथा भारतीय मुसलमान’ में लिखा है, ”देश के विभाजन के दौरान हिंदू शरणार्थियों की हालत देखकर सरदार के मन में हिंदू समर्थक रवैया भले देखा जा सकता है। लेकिन उनमें भारतीय मुसलमानों के साथ अन्याय करने की कोई प्रवृत्ति देखी नहीं जा सकती थी।”
3. पटेल के मुस्लिम हितैषी कार्य और बयान
आरोप-प्रत्यारोप के बीच, सरदार पटेल के कुछ ऐसे बयान और निर्णय भी हैं, जो उनकी धर्मनिरपेक्ष और व्यावहारिक सोच को दर्शाते हैं:
- सुरक्षा का वादा: 1949 में हैदराबाद में एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा था, “मुसलमान विदेशी नहीं हैं। वे हमारे बीच के हैं। हमारे धर्मनिरपेक्ष राज्य में, हमने यह सुनिश्चित करने की कोशिश की है कि मुसलमान समान नागरिकों के रूप में अपने सभी अधिकारों का आनंद लें।” उन्होंने यह भी आश्वस्त किया था कि जब तक मुसलमान देश के वफादार नागरिक बने रहेंगे, सरकार उन्हें जीवन, संपत्ति और धर्म की पूर्ण सुरक्षा देगी।
- दिल्ली में सुरक्षा: विभाजन के दौरान, जब दिल्ली में हिंसा फैली, तो सरदार पटेल ने व्यक्तिगत रूप से मुसलमानों की सुरक्षा सुनिश्चित की, उनकी संपत्तियों को वापस लौटाने का प्रबंध किया, और मस्जिदों की मरम्मत भी कराई।
- भेदभाव से इनकार: उन्होंने खाली मकानों को आवंटित करते समय केवल चरित्र की जाँच करने पर सहमति जताई थी, न कि धर्म की।
निष्कर्ष: व्यावहारिक राष्ट्रवाद
सरदार वल्लभभाई पटेल किसी समूह के विरोधी नहीं थे, बल्कि वह सांप्रदायिकता और विभाजनकारी राजनीति के विरोधी थे। उनका रुख एक व्यावहारिक प्रशासक का था, जो नवगठित राष्ट्र की सुरक्षा और एकता को सर्वोपरि मानते थे। उन्होंने हिंदू, सिख दंगाइयों की भी कड़ी निंदा की और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर आरएसएस जैसी हिंदूवादी संस्थाओं पर भी प्रतिबंध लगाया था। अतः, यह कहना कि सरदार पटेल ‘मुस्लिम विरोधी’ थे, उनके राष्ट्र-निर्माण और राष्ट्रीय एकता के लिए किए गए विराट प्रयासों के साथ न्याय नहीं होगा।











