हर सुबह चौक चौबारे पर लगती है जहां मज़दूरों की बोली, मुबारक हो वहां भी मज़दूर दिवस

फ़ारुख हुसैन

देश के हर कस्बे के बस चौराहे पर प्रातःकाल से ही सैकड़ों मजदूरों, राजगीरों का जमावड़ा लग जाता है। क्योंकि यहीं से इन्हें पूरे दिन मजदूरी करवाने के लिये कोई न कोई व्यक्ति मिल जाता है जिसके घर दुकान निर्माण सम्बन्धी कार्य इन्हें मिल जाता है जहां ये मजदूरी कर अपना व अपने बच्चों का पेट पालते हैं।

यह घर से यही सोंचकर निकलते हैं कि हे भगवान! आज भी मुझे कोई अच्छी जगह काम मिल जाये जिससे शाम को लौटकर अपने पत्नी-बच्चों का पेट भर सकूं। यदि काम नहीं मिला तो पूरा दिन भूखा ही रहना पड़ेगा। इन सब बातों से ही इन्हें कुछ और करने व सोंचने की फुरसत ही नहीं मिलती। जिसके चलते यह इस बात से भी अनभिज्ञ होते हैं कि भारत वर्ष में एक दिन श्रमिक दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। इन्हे तो बस अपने परिवार को लेकर ही चिन्ता रहती है जिसके लिये ये दिनभर पसीना बहाकर मेहनत कर परिवार का भरण-पोषण करने की जुगत में लगे रहते हैं।

श्रमिक दिवस हमारे देश में श्रमिकों के लिये मनाया जाता है लेकिन मजे की बात यह है कि जिसके लिये यह दिवस मनाया जाता है वे इसके बारे में जानते ही नहीं हैं। इन श्रमिकों के हितार्थ भले ही केन्द्र सरकार सौ दिन रोजगार गारण्टी आदि योजनाएं चलाकर इनके जीवन में सुधार करना चाहती हो लेकिन इन श्रमिकों के जीवन में सुधार तो तभी होगा जब सरकार द्वारा चलाई गई योजनाओं के तहत मिलने वाली सुविधाएं इन श्रमिकों तक साकार रूप से पहुंच पायें और पहुंचेंगी तो तभी जब हमारे क्षेत्रीय अधिकारी व सम्बन्धित विभाग इनका भला चाहते हों।

जो इमारतें, दफ्तर, कार्यालय, आवास आदि का निर्माण इन श्रमिकों की मेहनत पर टिका होता है उस बिल्डिंग में एसी का आनन्द ले रहे अधिकारी सरकार द्वारा चलाई गई योजनाओं का लाभ सिर्फ कागजों पर ही दर्शाकर अपने विभाग व सम्बन्धित अधिकारियों में बंदरबांट कर लेते हैं। श्रमिकों की बात की जाये तो उनके शरीर पर मात्र लुंगी बनियान ही देखने को मिलती है और उनके घर में शायद ही किसी दिन अच्छा खाना पेट भर खाने को मिल पाता हो। कभी वे गरीबी से परेशान होकर अपनी जान दे देते हैं तो कभी उनके बच्चे भूख से मर जाते हैं और गरीबी से जूझ रहे इन मजदूरों एवं उनके बच्चों को यदि ठीक से निहारा जाये तो शायद ही किसी के पेट की पसलियां न दिखती हों जिनमें बहुत से मजदूरों व उनके परिवार को तरह-तरह की बीमारियों से झेलते देखा जा सकता है। यह सब वे अहम बातें हैं जिनके कारण ही इन मजदूरों का कोई बच्चा कुपोषित होकर भुखमरी से मर जाता है तो कहीं तमाम से बच्चे शिक्षा पाने से वंचित रह जाते हैं तो किसी श्रमिक की बीवी-बच्चों के पास तन ढ़कने के लिये शायद ही पूरा कपड़ा हो।

सरकार की ओर से इन्हें और इनके परिवार को मिलने वाले लाभ तो ज्यादातर सरकारी आंकड़ों में ही होता है हकीकत में तो उसका लाभ श्रमिकों के नाम पर बड़ी-बड़ी इमारतों में एसी रूम में बैठे सरकारी कारिन्दे व उनके सम्बन्धितों को मिलता है। ऐसे में आखिर श्रमिक दिवस मनाने का क्या मतलब है? क्या श्रमिक दिवस चन्द सक्षम लोगों के लिये ही मनाया जाता है? तो चलिए साहब एक मजदूर दिवस की बधाई उनको भी जिनकी हर कसबे के चौक चौबारों पर बाज़ार लगती है. चंद घंटो के लिए ही सही मगर उनकी बोली लगती है. वो बिकते है या फिर ये कहे उनकी मेहनत बिकती है.

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