तेलंगाना रेप केस पर तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – नाम में मज़हब तलाश कर घृणित अपराधिक घटना पर भी सियासत, देखे बेटियों पर क्या कहते है आकडे

तारिक आज़मी

तेलंगाना में महिला पशु चिकित्सक से सामूहिक दुष्कर्म के बाद हत्या के मामले में सियासत अपने शबाब पर है। ज़मीनी सियासत से लेकर सोशल मीडिया तक के सियासतदा इस मुद्दे पर अपने नज़रिये दे रहे है। एक ट्रेंड चल पड़ा है सियासी बयानों का। उन मंत्री जी का क्या कहे जिन्होंने मृतका के लिए बयान दे डाला कि ऐसी स्थिति में बहन को फोन करने के बजाये उन्हें 100 नंबर पर फोन करना चाहिए था और पुलिस मात्र 5 मिनट में पहुच जाती। हम पुलिस की छवि पर कोई प्रश्न नही उठा रहे है।

हम ये भी नही कह रहे है कि पुलिस 5 मिनट में पहुचती या नही पहुच पाती। मुझको तो सिर्फ मंत्री जी के इस बेतुके बयान पर ही नज़र टिकी है। वैसे कभी भगवान न करे ऐसा हो कि हमारी गाडी किसी अँधेरी जगह पंचर हो जाए और हम पुलिस को फोन करके कहे कि हमको डर लग रहा है मेरी गाडी पंचर हो गई है। कैसा जवाब उधर से आएगा इसके सम्बन्ध में आप भी समझ सकते है और हम भी, बहरहाल, सियासी दावपेच के बीच मंत्री जी ने अपने राज्य में दिलने वाली पुलिस सुविधा का प्रचार बढ़िया किया। खुद की सियासी उपलब्धी भी गिनवा बैठे इसी बहाने।

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खैर, इसके उलट सोशल मीडिया पर एक ज़बरदस्त ट्रेंड चल गया। आज इस घटना की जमकर आलोचना हुई और होनी भी चाहिये। सिर्फ इसी घटना की नही बलात्कार जैसे घृणित अपराध की हर प्रकार के शब्द से आलोचना होनी चाहिए। मगर संवैधानिक दायरे में रहकर। ऐसा नही कि हम कानून से खुद को ऊपर समझ कर खुद ही फैसले करने लग जाए। आज सुबह से ही सोशल मीडिया पर एक और भीड़ थी। उस भीड़ ने नाम में मज़हब तलाश लिया और आरोपी को तत्काल फांसी पर लटकाने की बात कह डाली। ये भी एकदम सही है कि फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में इस मुक़दमे को चलना चाहिये, पुलिस हफ्ते दस दिन में चार्जशीट लगाये और एक महीने के अन्दर अदालत मामले का निपटारा कर डाले। समाज के अन्दर ऐसे मानसिकता के लोगो की कोई जगह नही होनी चाहिए जिनकी गन्दी और बीमार मानसिकता बलात्कार जैसी घटना को अंजाम दे बैठे।

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मगर इन्साफ का पैमाना मज़हब पर नही होना चाहिए। आज सोशल मीडिया पर एक आरोपी मोहम्मद आरिफ उर्फ़ पाशा का नाम जमकर प्रचलित किया जा रहा था। जबकि हकीकत ये भी है कि कुल चार आरोपी अब तक गिरफ्त में आये है पुलिस के बकिया तीन के नाम क्रमशः शिवा, नवीन, चिंताकुंता चेन्नाकेशवुलु है। इसमें आरिफ की उम्र 26 साल बताई जा रही है बकिया के सभी तीन की उम्र 20 साल के आस पास बताई जा रही है।

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ऐसे सभी आरोपियों पर दोष सिद्ध होते ही इनको बीच चौराहे पर फांसी की सजा देना चाहिए ताकि इससे समाज के अन्य ऐसे मानसिक रोगी भी सबक सीख सके। ऐसे बदबख्त गुनाहगारो को बीच चौराहे पर सजा होनी ही चाहिए। मगर बात यहाँ फिर मैं यही कहूँगा कि संवैधानिक तरीके से बात होनी चाहिए। हमारे देश के सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दे रखा है कि रेप विक्टिम की पहचान उजागर नही होनी चाहिए। मगर इस प्रकरण में तो एक होड़ सी लग गई। सोशल मीडिया पर मृतक पीडिता का नाम ही नहीं बल्कि उसके नाम से हैश टैग और फोटो तक वायरल होना शुरू हो चूका है। कुछ ने तो अपनी डीपी पर ही मृतक पीडिता का फोटो लगा कर श्रधांजलि देना शुरू कर दिया है। भाई ये कौन सा संविधानिक कृत्य हो रहा है ? शायद नही बिलकुल ये कानूनी रूप से गलत है।

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घटना वीभत्स है ये, घटना पूर्णतः आलोचना के लायक है। इस घटना से जुड़े एक एक व्यक्ति को सजा होनी चाहिए बिलकुल होनी चाहिए। मगर जिस तरीके से ये ट्रेंड हो रहा है क्या सजा ऐसे होनी चाहिए। मगर एक सवाल और भी है कि आखिर सिर्फ एक घटना की ही बात क्यों हो रही है ? बलात्कार जैसे घृणित अपराध पर अंकुश लगाने में हमारा समाज कही न कही से फेल है। आप आकडे उठा कर देख ले। आकडे इस बात की गवाही देते है कि समाज में ऐसे जघन्य अपराध लगातार हो रहे है। हम सिर्फ एक घटना को ही इस श्रेणी में न रख कर सभी घटनाओ में इन्साफ क्यों नही मांग रहे है ?

आइये इस पर चिंतन करते है कि देश में बेटिया कितनी सुरक्षित है। आकड़ो पर ज़रा गौर-ओ-फिक्र कर ले। हम उस आकडे को देखते है कि जो राज्यों की हाई कोर्ट और पुलिस प्रमुखों ने सुप्रीम कोर्ट को प्रदान किया है। इन आकड़ो पर गौर करे तो देश में इस साल के पहले छः महीने में 24, 212 बलात्कार और यौन हिंसा के मामले दर्ज हुवे है। इसमें बच्चियों, किशोरियों के साथ बच्चे भी हैं लेकिन लड़कियों की संख्या अधिक है। यानि हर दिन बलात्कार और यौन हिंसा के 132 मामले होते हैं। ये आकडे पास्को की श्रेणी में आते है जिसमे पीडिता की उम्र 18 साल से कम है। क्या आप इन्हें सांप्रदायिक बना सकते हैं? नही बना सकते है क्योकि इन आकड़ो में नाम नहीं है और नाम में मज़हब तलाशने वाले लोग बहुत है। इसके गुनाहगार वो है जो सड़ चुके हैं, समाज के कीड़े जैसे है। जो लोग ऐसी घटना के अपराधियों के मज़हब के सहारे खेल खेलते हैं उनका भी दिमाग सड चूका है।

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आपको बताते चले कि इनमे सिर्फ एससी/एसटी बेटियों के साथ होने वाली यौन हिंसा को अलग से गिना जा सकता है। क्योंकि संविधान मानता है कि उच्च जातियों के दबंग जातिगत घृणा, नफरत और बदला लेने के लिए ऐसा काम करते रहे हैं। बकिया सभी मज़हब और जातियों में मर्दों में कोई बदलाव नही है। सभी एक जैसे ही होते है। बलात्कार की घटना को अंजाम देने वाला किसी जात अथवा धर्म का प्रतिनिधित्व नही करता वह एक सड़ी हुई मानसिकता का ही प्रदर्शन करता है।

हैदराबाद की घटना के बाद एक बार फिर सोशल मीडिया के गंध फैलाने वाले लोगो ने इसको मज़हब से जोड़ कर देखना और दिखाना शुरू कर दिया। एक आरोपी के फोटो और नाम के साथ जस्टिस के लिए नफरते फैलाने का काम आज सुबह से ही शुरू हुआ है। एक बेटी के साथ हुवे इस जघन्य काण्ड में संवेदनशीलता नही बल्कि कुंठित मानसिकता के साथ केवल एक धर्म विशेष के लोगो को हाशिये पर लाने का काम शुरू हो गया और इसको बल मिला व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी से।

आपको एक और उदहारण देता चलता हु। झारखण्ड की राजधानी में एक लॉ स्टूडेंट को हथियारों से लैस 12 युवको ने मुख्यमंत्री झारखण्ड के आवास से मात्र 8 किलोमीटर की दुरी से अपहरण कर लिया। उस तालीबा के साथ उसका दोस्त था, मगर अगवा करने वालो के हाथो में असलहे थे। घटना मंगलवार को शाम साधे छ बजे के लगभग की है। बुधवार को किसी प्रकार छात्रा उनके चंगुल से छुट कर थाने आती है और मुकदमा दर्ज होता है। सभी आरोपी युवक एक ही गाँव के रहने वाले थे। तो ज़ाहिर सी बात है कि घटना के लिये उन्होंने आपस में प्लान तैयार किया होगा। घटना का मुकदमा दर्ज होने के बाद पुलिस ने कुल 13 युवको को हिरासत में लिया और पत्रकारों से रूबरू हुई। गिरफ्तार युवको का नाम एक बार आपको इस लिए बता देता हु कि लोग नाम में मज़हब तलाशने लगे है। गिरफ्तार युवको के नाम है कुलदीप उराँव, सुनील उराँव, राजन उराँव, नवीन उराँव, अमन उराँव, रवि उराँव, रोहित उराँव, ऋषि उराँव, संदीप तिर्के, बसंत कश्यप, अजय मुंडा, सुनील मुंडा।

इस घटना के लिए न कोई हैश टैग चला और न कोई मुहीम। पुलिस ने अपनी कार्यवाही किया और आरोपी युवको की गिरफ़्तारी किया। कार्यवाही निष्पक्ष रही और उसके ऊपर शायद किसी को कोई शक नही रहा। आखिर सिर्फ एक समुदाय विशेष के लिए नफरत का बीच लेकर खेती करने वाले चाहते क्या है ? आखिर उनका मकसद क्या है ? मुझको तो नहीं लगता कि नफरतो की सियासत करने वालो के दिमाग का कुछ हो सकता है। शायद कुछ नही हो सकता है। जहा हर रोज़ 132 यौन हिंसा के मामले दर्ज हो रहे है और इनमे सिर्फ लडकियां ही नही बल्कि बालक भी पीड़ित है पर हमारे सवाल दिमाग में नहीं आता है। हम आखिर उसके लिए सवाल नही उठा पाते है।

विचारो की अभिव्यक्ति की आज़ादी हम सबको है। इसका ये मतलब नही कि हम ऐसी अभिव्यक्ति करे जिससे समाज का नुक्सान हो। एक तबके के खिलाफ हम ज़हर की खेती नही कर सकते। ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी हमारा संविधान न देता है और न ही कानून देता है। यहाँ एक बात ध्यान रखियेगा कि कानून के हाथ लम्बे होते है ये आप और हम बचपन से सुनते आये है। तो ये भी ध्यान रखे कि कानून के लम्बे हाथ किसी पेड़ पर लगे फल को तोड़ने के लिए नहीं बल्कि संविधान के तहत गुनाहगारो के गर्दन तक पहुचने के लिए है।

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