तारिक आज़मी की मोरबतियाँ: वाराणसी नगर निगम के स्मार्टनेस की कहानी ‘चुल्लू भर बारिश में लग गया ठेहुनी तक पानी’

तारिक आज़मी

वाराणसी: शहर बनारस में मौसम करवट ले चूका है। वैसी ही करवट मैंने भी बिस्तर पर आज सुबह लिया तब तक हमारे काका अपनी कर्कश कानफाडू आवाज़ के साथ मेरे कमरे में अपने हाथो में चाय लिए दम्मादार हो गए। पुरे दिन की शुरुआत ही आज काका के ‘ज्ञान’ से होगी, सोच कर आंखे खोली और चाय की चुस्की लेने लगा। मगर काका की आवाज़ आज कर्कश नही बल्कि बड़े नर्म लहजे में थी। मुझे तो शक हुआ कि आज काकी ने लगता है काका को शक्कर वाली चाय पिला दिया है जिससे काका एकदम्मे बदल गये है।

मगर मेरा ये ख्याल धरा का धरा उस समय रह गया जब काका बोल पड़े कि ‘ए बबुआ, देख मौसम कितना सुहाना है, चल तनिक अपनी फटफटिया से शहर घुमा दे, थोडा आम भी लेते आयेगे।’ सुबह सुबह काका और मेरे बाइक की सवारी ने ऐसा लगा जैसे काका ने दो तीन बोतल खून मांग लिया हो। मगर हाथो में उनके लट्ठ की याद आते के साथ ही मैं फटाफट बिस्तर छोड़ कर ब्रश हिलाता हुआ ही शावर के नीचे खड़ा हो गया कि दिमाग ठंडा हो तो देखे इस मुसीबत से कैसे निजात मिल सकती है। मगर ब्रश और स्नान दोनों एक साथ होने के बाद भी निजात तो दिखाई नही दी उलटे हमारे काका एकदम ‘टिपटॉप-लल्लनटॉप’ बनकर खड़े हो गये और मुझे देख कर मुस्कुरा रहे थे।

उनकी कुटिल मुस्कान बता रही थी कि काका आज बड़ा बम फोड़ने वाले है। मगर मरता क्या न करता, कपडे पहने और बाइक की चाभी उठा रहा था कि एक कप ‘आफ्टर शावर चाय’ काका ने दुबारा थमा दिया हाथो में। इस बार तो मैं पक्का हो गया था कि आज की ये मुसीबत थोडा बड़ी है। काका की कुटिल मुस्कान मेरे धडकनों को तेज़ कर रही थी। चाय पीने के बाद काका को बाइक पर बैठा कर निकल पड़ा और काका शहर के दौरे पर निकल पड़े। उनका पहला ही लफ्ज़ था कि ‘ए बाबु “बतिया है कर्तुतिया नाही” वाली कहावत हम तुमका सुनाया है कई बार, आज तुमका असलियत दिखाते है।’ काका के शब्द अब मेरे दिल की धड़कन को ‘वन्देभारत मेल’ बना चुके थे।

दालमंडी के बहते हुवे पनारे को दिखाते हुवे काका मुझे रविन्द्रपूरी की लेंन नंबर 5 में उखड़े चौके दिखाते हुवे टी-रेस्ट दे चुके थे। सिगरा पर खड़े अभी चाय पी रहे थे कि तब तक बारिश ने अपनी आमद कर डाला और झूम के एक चुल्लू बारिश हो गई। काका को तो आज जवानी छिटकी थी, खुद तो भीगे ही मुझे भी भीगा दिया। खडखड नाऊ तिराहे से पहले ही बारिश बंद हो गई और हम दोनों भीगे हुवे अफ़्रीकी जंगलो के नमूने जैसे लगने लगे थे। मगर काका है कि उनकी रफ़्तार लफ्जों की कम नहीं हो रही थी। खडखड नाऊ तिराहे से लेकर काली महल तक बरसात का पानी खुद में एक सैलाब बन चूका था। सड़क पर पानी लगे होने के कारण बाइक मैंने थोडा धीरे किया।

बाइक धीरे क्या किया काका कुद्दी मार कर बाइक से उतर गए और उसी बरसात के पानी के बीचो बीच खड़े हो गए। लगभग 8 इंच पानी जमा रहा होगा, उन्होंने धरती का सबसे भारी सवाल पूछ डाला। कहा ‘का रे पत्रकरवा ऐकरा के का कहिबे रे’। मेरे मुह से निकल पड़ा कि ‘काका कहेगे क्या ? नगर निगम की यही कहानी, चुल्लू भर बारिश में ठेहुनी तक पानी।’ मेरा सब्र जवाब दे गया था और मैं काका को अपनी बाइक पर दुबारा बैठाते हुवे बोला ‘काका आप सवाल तो ऐसे मुझसे कर रहे हो कि जैसे मैं यहाँ का विधायक, सांसद, पार्षद अथवा नगर आयुक्त हु। सवाल तो ये उनसे होगा न जिनको हम चुनते है और बाद में वही हमे धुनते है। सवाल उससे होगा जो अधिकारी है, जो जवाबदेह है। हमारी जवाबदेहि कहा से बन रही है।’

काका अपने मुह में लिया हुआ 10 रूपये का रजनीगंधा बर्बाद नहीं करना चाहते थे। वह उसका लुत्फ़ ले रहे थे और हम घर पहुच चुके थे। काकी ने दोनों को तौलिया देते हुवे दुबारा नहाने की सलाह दे डाला और ख़ामोशी से किचेन में महिला मंत्रालय के साथ व्यस्त हो गई। मैं अपने बाथरूम से निकला और कपडे बदल कर दफ्तर के लिए निकलने वाला था कि इस बार काका कि कर्कश आवाज़ ने मेरे कदम रोक डाले। काका लगभग अपने असली अंदाज़ में बोले ‘का रे बबुआ, ई नश्तवा का तोहरे दफ्तर पहुचायेगे ? चल देख आम पुड़ी खा ले।’ काका की कर्कश आवाज़ और काकी की मनमोहक मुस्कराहट ने कदम रोक दिए और दस्तरखान पर मैं भी बैठ गया।

काका ने बड़े ही गंभीर भाव में हमसे कहा ‘देख बाबु हम जानते है कि तुम सांसद, विधायक या पार्षद अथवा अधिकारी नही हो, मगर हम तुमसे सवाल पूछा। तुमका बुरा लगा तो लगा करे, अरे “ससुर के नाती” तुमका पढ़ा लिखा कर पत्रकार बनावे में ज़िन्दगी गुजर गई, तुम किस दिन काम आओगे बे ? तुम्हार कलम कब चलेगी, कब मुह खुलेगा। “ससुर के नाती” गुस्सा दिख रहे थे। इतने में काकी का पारा सातवे आसमान पर नज़र आया और तुरंत उन्होंने आपत्ति दर्ज करवाते हुवे कहा कि आपसी पंचायत में मेरे अब्बू को बीच में कैसे लाये। काका सकपका गए और थोड़ी देर मेरे भी समझ में नहीं आया कि काकी के अब्बू का नाम कहा से आया ? मगर जैसे ही समझ आया मैंने कहा ‘बहुत सही पकडे है काकी।’ कह कर मैं सरक लिया और जंग काका काकी की बीच शुरू हो गई।

तारिक़ आज़मी
प्रधान सम्पादक
PNN24 न्यूज़

मगर एक हकीकत है नगर आयुक्त साहब, जिस स्मार्ट सिटी और तमाम दावे जल निकासी के आपके विभाग द्वारा किया जाता है, दरअसल वह सभी दावे आपके कागज़ तक ही शायद महदूद है। शहर की सरहदों के अन्दर नगर निगम लगता है दो हिस्सों में तकसीम है। एक वह इलाके जहा अमीरों का रहना है वह सभी सुविधाये है, दूसरा वह इलाका जहा गरीब रहते है, वह एकदम ही विकास परियोजनाओं में अछुता है। यकीन न हो तो किसी दिन अपनी लक्ज़री कार को घर पर छोड़ दे और गलियों के शहर बनारस को बाइक से एक दौरा करके देख ले। वैसे किसी शहर को सोते हुए देखने का अलग ही मज़ा है। असली खूबसूरती तभी नज़र आती है।

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