तीजनबाई : महाभारत को अपनी भावभंगिमा और इकतारे से रचने वाली कलाकार

शबाब ख़ान
मशहूर रंगकर्मी बादल सरकार ने कभी सेटरहित मंच की अवधारणा दी थी। माने नाटक खेलने के लिए ऐसा मंच बनाने का सुझाव जिस पर कोई सज्जा या सेट न हो। यह बात लगभग असंभव सी ही लगती है। लेकिन इसी असंभव के बीच आती हैं तीजनबाई। उनकी प्रस्तुति देखकर लगता है कि बादल सरकार की सेटरहित मंच की अवधारणा की सटीक उदाहरण ही नहीं, उस अवधारणा की प्रेरणा भी तीजनबाई स्वयं हैं।

साधारण परिचय के तौर पर कह दिया जाता है कि तीजनबाई छत्तीसगढ़ की लोकगायन शैली पंडवानी की गायिका हैं। पर कुछ चीजें शुरुआत में ही स्पष्ट कर लेनी चाहिए। पहली कि पंडवानी गायन शैली न होकर गीति-नाट्य शैली है और तीजनबाई इस गीति-नाट्य शैली की पहली महिला कलाकार। थोड़ा और प्रयास करते हुए यह कह सकते हैं कि जैसे तीजनबाई और पंडवानी की नाट्य शैली एक मिश्रित कला है ठीक वैसे ही तीजनबाई एक मिश्रित कलाकार हैं। वे स्वयं नायक भी हैं, नायिका भी, गायिका भी, निर्देशिका भी और अभिनेता भी। संवादों की लेखिका (मौखिक) भी हैं और उनके अनुकूल बनी पात्र भी।
तीजनबाई कभी स्कूल नहीं गईं। वे खुद ही कहती हैं, ‘हमारे जमाने में लड़कियों का स्कूल जाना अच्छा नहीं मानते थे, सोचते थे, ऐसे भी खाना ही बना रही है, वैसे भी तो खाना ही बनाएगी, कभी नहीं भेजा गया हमें पढ़ने। सो भइया हम ठहरे निरच्छर, अंगूठा छाप।’ दर्शकों से राब्ता कायम करते वक्त वे बेहद ईमानदार रहती हैं। कहती हैं, ‘आप लोग पढ़े-लिखे हो, कोई भूल-चूक कथा हो जाए, कथा इधर-उधर हो जाए तो माफ कर देना।’ अपना परिचय देते हुए कहती हैं, ‘हममें भी हर कमी है, चोरी भी की है बचपन में, खाने के लिए करती थी। दरवाजे को खींचकर ऊपर की ओर उठा देना और घुसकर चौके में खा लेना, फिर उसी तरह बंद कर अपने भाई-बहनों के बीच भूखे बने बैठे रहते थे, यही हमारी चोरी थी।’ इतनी बड़ी कलाकार होने के बावजूद भी विनम्रता का स्तर ऐसा कि अपनी हिंदी के बारे में तीजनबाई कहती हैं, ‘हम ठहरे निरच्छर, हिंदी बहुत टूटी है हमारी, छत्तीसगढ़ी बोलती हूं। तो भईया कौनो गलती होए तो माफ करना।।।’
सौंदर्य के सामंती रीतिकालीन प्रतिमानों और अत्याधुनिक जीरो फिगर के सांचे में तीजनबाई नहीं अटतीं। लेकिन उतना ही बड़ा सत्य यह भी है कि तीजनबाई सर्वांग आकर्षण से भरी हुई हैं। उनका आकर्षण ही उनका सौंदर्य है। वो सौंदर्य जो उनकी साधना में बसा है। यह वही सौंदर्य है जो बूढ़े हो चले केलुचरण महापात्र में बालकृष्ण का सा बचपन और बिरजू महाराज जैसे मर्दाना चेहरे में युवती राधा का लावण्य भर देता है। यह वही सौंदर्य है जो 90 वर्ष की सितारा देवी को 16 वर्ष की युवती बनाता रहा है। यूं कहें तो साधना ने इन सभी कलाकारों को उस चरम पर पहुंचा दिया है जहां सौंदर्य की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। वहां नाम ने रूप को अपने अधीन किया है, कला ने सौंदर्य को दासी बना रखा है।
यही बात तीजनबाई पर भी लागू होती है। आयताकार बड़ा सा भारी-भरकम चेहरा, अपेक्षाकृत मझोली नाक, उनींदी सी छोटी-छोटी आंखें, पतले सुतवां होंठ और पान में सने दांत, आंखों के साम्राज्य को कपाल की सीमा में प्रवेश कराती और चौड़े कपाल के अधिकाधिक क्षेत्र को कब्जे में करती चौड़ी भौंहें, गालों के ऊपर और आंखों के नीचे उठे से दो गोलक जो नाक से विद्रोह कर अपनी ऊंचाई का लोहा मनवाना चाहते हों और असफल से होकर बैठ गए हों। तीजनबाई की मुखाकृति की यही स्थिति है। बहुत सी खाली जगह चेहरे पर मानो यूं लगता है विधाता ने बाईसाहब के चेहरे को चेहरा नहीं बल्कि एक ऐसा सांचा बनाया हो जिसमें भावों के अनुकूल चेहरे भरे और निर्मित किए जा सकें। अगर यह कहा जाए कि महाभारत की जटिल कथा और पात्रों की अधिकता का निष्कर्ष तीजनबाई का चेहरा है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
स्वयं के संकुचन-विमोचन की यह कला, भव्यता एवं सौम्यता के अनुरूप स्वयं को ढालने की कला तीजनबाई ने किसी नाट्यविद्यालय से नहीं सीखी वरन यह कई पीढ़ियों के संचित तप और स्वयं की साधना का परिणाम है मुझ जैसे जिन लोगों ने बचपन में बीआर चोपड़ा का धारावाहिक महाभारत देखा है उनके लिए यह सोचना मुश्किल है कि इस कथा को सेट रहित खाली मंच पर भी उतारा जा सकता है। पर कथा प्रस्तुत करते समय तीजनबाई को देखकर मैंने महसूस किया कि उनकी स्वयं की बनावट और उनका भव्य श्रृंगार उस पूरी महाभारतकालीन भव्यता को मंच पर उतार देने में सक्षम है। उनकी आत्मविकसित प्रतिभा ने उनके अभिनय को ऐसा मांज दिया है कि जब उन्हें भव्यता की आवश्यकता होती है तो अपनी भंगिमा को विस्तार देकर और स्वर को तारसप्तक के निषाद तक ले जाकर वे उसे प्राप्त कर लेती हैं और जहां सादेपन या सूनेपन की आवश्यकता होती है, स्वयं को समेट अपनी सारी भव्यता को समेटकर मंच की उदासी स्वयं पर ओढ़ लेती हैं। ऐसा करते समय उनका स्वर मध्य सप्तक के षड्ज या ऋषभ पर होता है। देखने वालों ने प्राय: ध्यान दिया होगा स्वर जैसे ही तेज होते हैं तीजनबाई इकतारे को एक हाथ में पकड़कर आकाश की ओर उठा देती हैं और दूसरा हाथ दर्शकों की ओर लहरा उठता है। उधर, करुण दृश्य के निर्माण में वे इकतारे को प्राय: कमर से टिकाकर शिशुवत रख लेती हैं और दोनों हाथ जुड़ जाते हैं। स्वयं के संकुचन-विमोचन की यह कला, भव्यता एवं सौम्यता के अनुरूप स्वयं को ढालने की कला तीजनबाई ने किसी नाट्यविद्यालय से नहीं सीखी वरन यह कई पीढ़ियों के संचित तप और स्वयं की साधना का परिणाम है। मुझे नहीं लगता कि तीजनबाई से इस पूरी प्रक्रिया की व्याख्या करने को कहा जाए तो वे कर सकेंगी। उनके लिए ये सूक्ष्म अभिनय तत्व हैं। आंगिक अभिनय के नाम पर वे नृत्य नहीं प्रस्तुत करतीं। वे जिस किसी पात्र का नाम लेती हैं, उसके संवाद बोलती हैं, उनका हाव-भाव ठीक उसके अनुरूप हो जाता है। बोलते समय अलग-अलग पात्रों के लिए अलग-अलग पिच का उपयोग वे सहज ही कर जाती हैं। उनके गहने आधुनिक और फैंसी न होकर प्राचीन जड़ाऊ से होते हैं। इनसे जिन कैशिकी वृत्ति ( चार नाट्य वृत्तियों में से एक जिसमें शारीरिक चेष्टाओं द्वारा नाटक की शोभा बढ़ाई जाती है।) का निर्माण वे करती हैं, वह आश्चर्य में डाल देता है।
तीजनबाई के मंच पर विंग्स तक नहीं होते। अलग-अलग भूमिकाओं के लिए अलग-अलग पात्र तो क्या बार-बार विंग में जाकर नई-नई भंगिमाओं के साथ आने की आवश्यकता उन्हें नहीं होती। वे संपूर्ण कथा एवं संपूर्ण पात्रों के साथ अकेली मंच पर आती हैं और पूरी कथा का अभिनय कर जाती हैं। मंच पर लगे दो माइकों के बीच के दो कदम भर के अंतराल में चहलकदमी करती बाईसाहब क्षण-क्षण परिवर्तन को पूरी कथा चलने तक हमारे मनोमस्तिष्क पर अंकित कर देती हैं। क्षण भर का किरदार लेकर उनके चेहरे पर आने वाले भाव सदा के लिए ह्रदय में पैठ जाते हैं।
तीजनबाई के इस अभिनय में सहायकों की भी अपनी भूमिका होती है जो किसी भी तरह कम नहीं आंकी जा सकती। सबसे पहला सहायक है वह इकतारा। इकतारा एक अद्भुत साज है। एक तो वह सदा संतों के हाथ में दिखता है, दूसरे यह कि उसमें तार दो हैं और नाम इकतारा। अगर अपनी अल्पबुद्धि के अनुसार उसको एक बिंब बनाऊं तो ऐसा लगता है कि आत्मा और परमात्मा रूपी दो तारों को एकतार करने की प्रेरणा देता है यह इकतारा। संतों के हाथ में वह साज नहीं प्रतीक है स्वयं को ईश्वर से एकतार कर देने का। इकतारा एक अद्भुत साज है। एक तो वह सदा संतों के हाथ में दिखता है, दूसरे यह कि उसमें तार दो हैं और नाम इकतारा। संतों के हाथ में वह साज नहीं प्रतीक है स्वयं को ईश्वर से एकतार कर देने का .
तीजनबाई का इकतारा विशेष है। मोर के पंखों से सजा वह इकतारा मंच पर द्वापर युग का प्रतिनिधि (कृष्ण) है। उसका लाल रंग महाभारत की रक्ताभा और महीन तार उस युग से आज तक के जीवन के शाश्वत स्पंदन का बोध कराते हैं। तीजनबाई को वह इकतारा तीजनबाई तक सीमित नहीं रहने देता, कभी भीम तो कभी अर्जुन, कभी कर्ण तो कभी पितामह भीष्म बनाता रहता है और ठीक इसके एवज में तीजनबाई उसे कभी भीम का गदा और कभी अर्जुन का गांडीव बनाती रहती हैं। वह ऊपर की ओर उठकर भीम का गदा बनता है तो नीचे झुककर दु:शासन का हाथ, जिसे भीम-रूपी तीजनबाई दोनों हाथों से पकड़कर ऐंठती और उखाड़ फेंकती हैं। वह इकतारा साज तो कम ही रहता है, बार-बार पात्र बन जाता है। वह मृत्यु से तो निर्मित ही हुआ है और नियति से एक साज बना है लेकिन इन दोनों द्वारों को पारकर वह निर्जीव इकतारा एक सजीव पात्र बनकर बाई के हाथ में आता है।
तीजनबाई के साथी कलाकारों में कोरस गाने वाले साजिंदे अपनी एक विशेष स्थिति रखते हैं। युद्ध की गर्जना और तुमुल कोलाहल की वाचिक अभिव्यक्ति की सजीवता में वे बाई के बहुत बड़े पूरक बन जाते हैं। उनमें विशेष हैं हारमोनियम मास्टर, गाने के साथ-साथ मंच पर विदूषक की भूमिका में उनका स्वर होता है। बाई यूं तो वैदुष्य कला में भी माहिर हैं लेकिन हारमोनियम मास्टर का दखल लाजवाब है। बाई जब किसी पात्र को संबोधित करती हैं तो उनका ‘काए!’ कहना हंसाए बिना नहीं छोड़ता।
बाई मंच पर हमारे अतीत और गौरव की प्रतिनिधि होती हैं जबकि अन्य कलाकार आज के उपभोक्तावादी एवं फैशनवादी समाज की प्रवृत्ति के नुमाइंदे। बाई की भव्यता जब इन्हें नकारती है तो ऐसा लगता है कि हमारे अतीत का शौर्य एवं पराक्रम, आधुनिकता के इस मशीनीकरण और फैशनधर्मिता को नकार रहे हैं। तीजनबाी दिखाती हैं कि हमारी मूल्य रहित तरक्की हमारे मूल्यवान अतीत के समक्ष कितनी बौनी है। यह वह युक्ति है जो प्रत्येक से यह सवाल करती है, ‘बताओ तुम आगे बढ़े हो या तुम्हारा अध:पतन हुआ है?’
यह तो ज्ञात नहीं कि पंडवानी के वे पद जो तीजनबाई और कलाकार गाते हैं वे पारंपरिक हैं या तीजनबाई के बनाए हुए। यह भी नहीं पता वह गायन शैली पारंपरिक है या बाई की स्वनिर्मित। लेकिन कथा का जो समायोजन जो प्रस्तुति में होता है, वह स्वयं में अद्भुत है। यदि हम चाहें तो बाई की प्रस्तुति को तीन अंकों के नाटक के रूप में लिख और देख सकते हैं। वे आधुनिक असंगत नाटक की तीनअंकीय विधि को अनजाने में ही प्रस्तुत करती हैं। तीजनबाई भीम बनकर इकतारे को गदा बनाती हैं और जरा सा झुककर उसे यूं आगे की ओर बढ़ाती हैं, जैसे सच में भीम ने रथ के चक्के में गदा अड़ाकर रथ को रोक लिया हो
पंडवानी की प्रस्तुति में उसके गीतों एवं संवादों की महत्वपूर्ण योजना है। प्राय: हम देखते हैं कि जब भी पुराणकालीन कथा का कार्यक्रम होता है तब उस परिवेश को निर्मित करने के लिए संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का सहारा लिया जाता है। माताश्री, तातश्री जैसे संबोधन और संस्कृत क्रियापदों की योजना से काल का परिवेश निर्मित होता है। लेकिन यह मानना पड़ेगा कि बघेली, छत्तीसगढ़ी आदि भाषाएं अपने किसी विशेष गुण के कारण अपने सामान्य रूप में ही उस परिवेश का निर्माण कर देती हैं। चाहे वो आल्हाखंड हो या पंडवानी, इनकी भाषा वीर रस के बहुत करीब है। प्राय: भोजपुरी को वीर और करुण, ब्रज और अवधी को माधुर्य, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी तथा बघेली को वीर रसों के अनुकूल पाया जाता है।
भाषा के साथ-साथ उनकी छंद योजना भी काबिल-ए-तारीफ है। जैसा कि हमें ज्ञात है कि आल्हा छंद में 31 मात्राएं हैं। यह चौपाई से एक मात्रा कम लेता है लेकिन 16-16 के बजाए 16-15 का क्रम चौपाई के लालित्य एवं शांत रस को शौर्य एवं वीरता से भर देता है। पंडवानी की छंद शैली भी कुछ ऐसी ही है। चौदह-चौदह मात्राओं के दो चरण और बीच में बहर-ए-तबील जैसी लंबी पंक्तियां एक विशेष योजना का निर्माण करती हैं। लेकिन पंडवानी की प्रस्तुति न तो पूर्णत: छंदबद्ध होती है, न पूर्णत: कथा। बल्कि यह गद्य-पद्य मिश्रित चंपू शैली की नाट्य प्रस्तुति है जिसमें गद्य को पूरी नाटकीयता और पद्य को पूरी गीतिमयता से बरता जाता है।
अभिनय करते समय बाई की देहयष्टि तरल हो जाती है। माने विभिन्न रूपाकार ग्रहण कर लेने वाली लहराती हुई काया। तीजनबाई भीम बनकर इकतारे को गदा बनाती हैं और जरा सा झुककर उसे यूं आगे की ओर बढ़ाती हैं, जैसे सच में भीम ने रथ के चक्के में गदा अड़ाकर रथ को रोक लिया हो। ठीक वैसे ही इकतारे को कमर पर टिकाकर रखती हैं और हाथ जोड़कर पलभर में अर्जुन बन गईं। त्रिभंगी मुद्रा में खड़ी होकर जरा हौले से मुस्कुरा क्या देती हैं और साक्षात् कृष्ण हो जाती हैं। यह तरल देहयष्टि अभिनय के दौरान अपना स्वरूप बदलती रहती है और कहीं किसी खास क्षण में ठोस होकर जम जाती है। आधुनिक रंगमंच की भाषा में ‘फ्रीज’ हो जाती है। और उसी मुद्रा में आंखों में हमेशा के लिए स्थित रह जाती है। इस तरह इस गीति-नाट्य की लोक परंपरा का भार पहली बार किसी महिला के रूप में अपने कंधों पर लेने वाली यह कलाकार अपनी प्रस्तुति से तो मंत्रमुग्ध करती ही है, अपनी विनम्रता के प्रदर्शन से भी दर्शकों को गुलाम बना लेती है। आज तीजनबाई 61 साल की हो गई हैं। एक अनोखी लोक परंपरा का संरक्षण करती यह कलाकार एक असाधारण मिसाल भी है।

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