उर्दू के मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की यौम-ए-पैदाइश पर पढ़े वह वाक्या जब “जौंक” पर कसे तंज़ को ग़ालिब ने तुरंत बनाया कलाम “बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता, वरना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है?

शाहीन बनारसी

उर्दू अदब के अज़ीम-ओ-शान शायर मिर्ज़ा “ग़ालिब” की आज 325वीं यौम-ए-पैदाईश है। उर्दू और फ़ारसी ज़ुबान के महान शायर मिर्ज़ा असदुल्लाह खां “ग़ालिब” की पैदाईश आगरा में आज ही के रोज़ यानी 27 दिसम्बर 1797 को हुई थी। महज़ 5 साल की छोटी उम्र में वालिद मोहतरम मिर्ज़ा अबदुल्लाह बेग खां का साया इनके सर से उठ गया। वालिद के इंतक़ाल के बाद मिर्ज़ा अपने चाचा जान के साथ रहने लगे। वालिद के इंतक़ाल के कुछ ही सालो बाद इनके चाचा भी इंतक़ाल कर गए। चाचा के इंतक़ाल के बाद “गालिब” अपना गुज़र अपने चाचा के आने वाले पेंशन पर करने लगे। “गालिब” ने उर्दू और फारसी सीखना शुरू कर दिया और महज़ 11 साल की उम्र से ही उर्दू अदब के इस मशहूर शायर ने शेर कहना शुरू कर दिया था। मिर्ज़ा असदुल्लाह खा “ग़ालिब” के यौम-ए-पैदाइश पर आज हम आपको “ग़ालिब” के ज़िन्दगी से जुड़े एक ऐसे किस्से से रूबरू करवाएंगे जिसे सुन आप भी कह उठेंगे कि “उर्दू अदब में ग़ालिब सी शख्सियत कोई नहीं।”

ये उस समय की बात है जब बहादुर शाह ज़फ़र हमारे मुल्क के शासक थे और मशहूर शायर इब्राहिम जोंक उनके दरबार के शाही कवि हुआ करते थे। “ग़ालिब” उस्ताद “जोंक” और मियां “मोमिन” के दौर के शायरों में से एक थे। उस्ताद “जोंक” का रुतबा दिल्ली के साथ-साथ शाही दरबार मे भी कायम था। “जोंक” और “गालिब” की आपस मे कभी बनी नही। दौर-ए-शायरी था और “जोंक” और “गालिब” एक-दूसरे पर शायरी के माध्यम से तंज कसते थे। एक बार “जोंक” सड़क से पालकी पर जा रहे थे और मिर्ज़ा “ग़ालिब” का ध्यान किसी ने “जोंक” के तरफ करवाया तो मिर्ज़ा “ग़ालिब” ने “जोंक” पर तंज कसते हुए कहा- “बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता।

इस पर “जोंक” को गुस्सा आया और वो खफा होकर वहां से चले तो गए. मगर उन्होंने मिर्ज़ा को नीचा दिखाना चाहा और उन्हें बादशाह के दरबार के एक मुशायरे में बुलाया गया। “ग़ालिब” मुशायरे में पहूंचे. जहां दरबार मे सभी शाही दरबारी मौजूद थे। “ग़ालिब” जैसे ही हाज़िर हुए तो बादशाह ने उनसे कहा मियां “जोंक” की शिकायत है कि आप उन पर ज़रिया-ए-शायरी तंज कसते है। क्या यह बात जायज़ है? तो इस पर “गालिब” ने कहा जी बात तो बिलकुल सही है मगर जो “जोंक” साहब ने सुना वो मेरे नई ग़ज़ल के मुक्ता का मिसरा है। इस पर बादशाह ने “गालिब” से कहा क्या आप वो मुक्ता इरशाद फरमाएंगे। गालिब ने मुक्ता अर्ज़ किया।

बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता,
वरना शहर में ग़ालिब की आबरु क्या है।

“जोंक” “गालिब” की चालाकियों से बखूबी वाकिफ़ थे। उन्होंने “गालिब” की हक़ीक़त सबके सामने लाना चाहा और इसी मकसद से कहा कि जब मुक्ता ही इतना खूबसूरत है तो पूरी ग़ज़ल कितनी बेहतरीन होगी। इस पर बादशाह ने “गालिब” से पूरी ग़ज़ल सुनाने को कहा। गालिब ने अपने जेब मे पड़े एक कागज के टुकड़े को निकाला और उसको कुछ पलों तक उस कागज़ को निहारते रहे और फिर ये ग़ज़ल कहा।

हर इक बात पर कहते हो तुम के तू क्या है,
तुम्ही कहो ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है।
चिपक रहा है, बदन पर लहू से पैराहन,
हमारे जेब को अब हाज़त-ए-रफू क्या है।
जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजु क्या है।
रगो में दौड़ते फिरने के हम नही कायल,
जब आंख से न टपका तो फिर लहू क्या है।

यह बात अलग थी कि कागज़ कोरा था मगर उन्होंने जोंक पर तंज कसते हुए ही सही ग़ज़ल की चंद लाइने कह डाली। जो बेशक यह बात ज़ाहिर करता है कि मिर्ज़ा “ग़ालिब” उर्दू अदब के एक अज़ीम-ओ-शान शायर है। उर्दू अदब में सबसे ज्यादा और अदब के साथ लिया जाने वाला नाम बेशक मिर्ज़ा “गालिब” का नाम है। “ग़ालिब” उर्दू अदब के एक ऐसे शायर है जिनके द्वारा लिखी गई शायरियां आज भी युवाओं को अपनी ओर खींचती है और उन्हें बेहद पसंद आती है। आइये पढ़ते है “ग़ालिब” के चंद खुबसूरत कलाम

कोई उम्मीद बर नहीं आती

कोई सूरत नज़र नहीं आती

मौत का एक दिन मुअय्यन है

नींद क्यूँ रात भर नहीं आती

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी

अब किसी बात पर नहीं आती

जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद

पर तबीअत इधर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ

वर्ना क्या बात कर नहीं आती

क्यूँ चीख़ूँ कि याद करते हैं

मेरी आवाज़ गर नहीं आती

दाग़-ए-दिल गर नज़र नहीं आता

बू भी चारागर नहीं आती

हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी

कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

मरते हैं आरज़ू में मरने की

मौत आती है पर नहीं आती

काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’

शर्म तुम को मगर नहीं आती

लेखिका शाहीन बनारसी एक युवा पत्रकार है

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