न्यूज़ीलैंड आतंकी घटना पर तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – हवाये बाज़ कहा आती है शरारत से……..

तारिक आज़मी

आतंकवाद का कोई नाम धर्म और जाति नही होती है ये बात आज एक बार फिर साबित हो गई है। न्यूज़ीलैंड पुलिस ने इस घटना के सम्बन्ध में एक महिला सहित चार लोगो को गिरफ्तार किया है। गिरफ्तार अभियुक्तों में गोली चलाने वाला आस्ट्रेलिया का मूल निवासी है। ब्रेटन टेरेन्ट नाम का ये युवक अमेरिकन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का समर्थक और उनकी नीतियों का चाहने वाला बताया जा रहा है। ये पहली बार नही है कि किसी एक धर्म के अनुयायियों के लिये नफरतो का कहर बरपा हुआ है। इसके पहले यहूदी समुदाय के उपासना गृह में घुस कर एक व्यक्ति ने कई लोगो पर जानलेवा हमला किया था। वह व्यक्ति एक बेरोजगार था और उसकी वैन पर चारो तरफ ट्रंप के फोटो और उनके सन्देश लिखे हुवे थे।

ये नफरतो का सिलसिला कही न कही हमारी अपनी सोच पर निर्भर करता है। टीवी चैनलों पर दिन भर से लेकर प्राइम टाइम तक हिन्दू मुस्लिम मसले पर बहस करने वाले एंकरों ने तो इसमें भुस में चिनगारिया छोड़ रखी है। आज इसका नतीजा है कि ये नफरते और बढती जा रही है। आखिर समझ नही आता है कि देश में हिन्दू मुस्लिम कब से समस्या हो गई। बेरोज़गारी, बढती गरीबी मरता किसान शायद इन लोगो को दिखाई नही देता है। तभी तो दिल्ली में घर मकान छोड़ कर बैठे दो चार लोगो को स्टूडियो में बैठा कर लम्बी चौड़ी हिन्दू मुस्लिम मसले पर बहस होती रहती है। टीआरपी बढाने के लिये तो कभी कभार हाथ पैर से भी बहस हुई देखा गया है।

ये शायद इसी नफरत का नतीजा है कि आज सोशल मीडिया पर इस विध्वंसक घटना के लिये कुछ समाज के दुश्मन बहुत ख़ुशी ज़ाहिर कर रहे है। आखिर क्यों न करे। उनके दिमाग में नफरत का ज़हर बो दिया गया है। आपको याद होगा 90 के दशक में भी एक वर्ग विशेष को टारगेट करके उनके खिलाफ ज़हर भरा जाने लगा था। ये वो समय था कि जब न सोशल मीडिया था और न ही टीवी चैनलों की भीड़ थी। फिर भी मंचो से और माउथ कन्वेंसिंग के द्वारा नफरतो को बढाने का काम किया गया था। उसके बाद प्रधानमंत्री इंद्रा गांधी की हत्या के बाद देश में हुवे दंगे ने जहा एक तरफ नफरत की फसल को सीचने की कोशिश किया वही दूसरी तरफ नफरतो के बीज में मुहब्बतों ने अपना मकाम हासिल किया था। ये वो दौर था जब पंजाब के काफी गावो में मस्जिदे तो थी मगर मुस्लिम धर्म के लोगो के न होने की वजह से मस्जिदे वीरान और बंद पड़ी थी।

यहाँ मुहब्बतों ने अपना घर बसाया और मस्जिदों के रख रखाव के लिये आस पास के मुस्लिम लोगो को लाकर गाव में बसाया गया और मस्जिदों की सेवा किया गया। देखे आज जाकर पंजाब में नफरतो के बीज से मुहब्बते निकल कर पैदा हुई। आज एक दौर ऐसा भी आया कि लखनऊ की सडको पर कश्मीर जो भारत का अभिन्न अंग है के मूल रूप से रहने वाले नागरिको को सडको पर ये कहकर पीटा गया कि ये पत्थर बाज़ है। इस नफरत के बीच मुहब्बत की किरण जगमगाई और राह चलते एक युवक ने इस कृत्य का विरोध किया। उन कश्मीरी व्यापारियो को बचाया और पुलिस सहायता दिलवाया। शायद यही मुहब्बत हमारे हिंदुस्तान की वरासत है जिसके लिये हम दुनिया में मशहूर है। इस लखनऊ की घटना का सबसे कुरूप चेहरा आप उस ट्वीट को कह सकते है जिसमे कई अपराधिक मामलो में पहले जेल जा चुके उन युवको जिन्होंने कश्मीरी युवको की पिटाई किया था को जायज़ ठहराता हुवा ट्वीट एक एंकर ने कर डाला। वैसे तो उनके ट्वीट के जवाब में उनके इस नफरत के सौदों को दरकिनार करते हुवे मुहब्बतों का पैगाम देने वाले लोगो ने मान्यवर को पेट भर कर जवाब दे डाला। मगर क्या कहते है साहब कि “हवाये बाज़ कहा आती है शरारत से, सरो पर हाथ न रखो तो पगड़िया उड़ जाए।” के तर्ज पर उनके नफरत के सौदे आज भी फिज़ाओ में सौदागरी कर रहे है।

आज न्यूज़ीलैंड की युवा प्रधानमंत्री का वक्तव्य वाकई काफी उम्दा लगा और मन खुश हो गया। शायद मन की बात तो इसको कहते है। न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री ने स्पष्ट शब्दों में इस घटना को आतंकी घटना करार देते हुवे कहा कि हम विविधता में विश्वास रखते है। शब्द पर अगर ध्यान दे तो विविधता के अपने बहुत गहरे मायने होते है। विविध प्रकार के वेशभूषा खान पान इत्यादि पर विश्वास करना होगा सभ्य समाज को। अब आप देखे मेरे पडोसी अग्रवाल जी है, उनकी थाली का खाना शाकाहारी ही होगा, मेरी थाली में मांसाहार भी हो सकता है। वही मेहरोत्रा जी के यहाँ तो लहसुन, प्याज़ और अदरक तक प्रयोग में नही आता है। मगर हम तीनो एक ही है। एक देश के वासी है एक मोहल्ले के रहने वाले है।

हम होली की गुझिया अग्रवाल जी और मेहरोत्रा जी के यहाँ खाते है तो शीरकोरमा और सिवईया अग्रवाल जी और मेहरोत्रा जी हमारे यहाँ ईद पर खाते है। हम जहा होली पर उनसे गले मिलने जाते है तो वही ईद पर वह हमसे गले मिलने आते है। विविधता में भी एकता समाज के मूल में होती है। भाषा में भी विविधता हो सकती है। अग्रवाल जी जहा नमस्कार कहते है, तो मेहरोत्रा जी हरे कृष्णा कह कर मिलते है हम आदाब कहकर मिलते है। इस मिलने की भाषा और सम्मान में भी विविधता है मगर क्या हम अलग है ? नही हम अलग एकदम नही है बल्कि हम सब एक है। एक दुसरे के सुख दुःख में खड़े रहते है। अगवाल जी की बहन जहा मुझे भी राखी बांधती है तो मेरी बहन की डोली को कन्धा देने अग्रवाल जी और मेहरोत्रा जी भी रहते है। ये है भारत, ये है समाज। हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी आज एक बढ़िया सन्देश समाज को दिया जिसको समझने की ज़रूरत है उन्होंने अपने सन्देश में इस घटना की निंदा किया है और कहा है कि विविधतापूर्ण एवं लोकतांत्रिक समाज में हिंसा के लिये कोई स्थान नहीं है।

मंदिर में जाने वाला भी इंसान है, उसका भी परिवार है। उसके भी बाल बच्चे है वैसे ही जैसे मस्जिद में जाकर सजदा करने वाले इन्सान के है। रगों से खून निकलता है तो मंदिर में जाकर श्रधा से पूजा करने वाले का भी लाल ही निकलता है और और मस्जिद में जाकर इबादत करने वाले का भी लाल ही निकलता है। मंदिर में जाकर पूजा करने वाला भी मुह से खाना खाता है, मस्जिद में नमाज़ पढने वाला भी मुह से खाना खाता है। हम दोनों ही पैदा एक ही तरह से होते है। ऐसा नही कि कोई कुरियर से आता है। फिर अलग अलग कैसे। एक बार फिर स्पस्ट शब्दों का अगर प्रयोग करू तो निजी स्वार्थो के कारण समाज को हिस्सों में तकसीम करने वाले चंद मुट्ठी भर लोग ही इस विविधता में एकता को नकारते है। ऐसे लोगो और ऐसे शो जो साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे उनको नकारने का वक्त आ गया है। शायद अब ऐसा वक्त है कि अभी नही तो कभी नही।

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